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वोट के बदले नोट मामले में राज्यसभा सांसद अमर सिंह के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होना एक गंभीर मामला है। इस मामले में अमर सिंह के करीबी सुधीर कुलकर्णी को प्रमुख साजिशकर्ता आरोपित किया गया है। इन लोगों ने संजीव सक्सेना और सुहैल हिंदुस्तानी के साथ 22 जुलाई 2008 को लोकसभा में विश्वास मत के दौरान भाजपा सांसद अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर सिंह भगोरा को वोट के बदले घूस दी थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार की नैतिक शुचिता पर आंच तो उसी दिन आ गई थी जब उसने लोकसभा में विश्वास मत हासिल किया था, लेकिन प्रमाणित अब हो रहा है। संजीव सक्सेना और सुहैल हिंदुस्तानी के बयानों ने जाहिर कर दिया है कि सरकार बचाने के लिए सांसदों को खरीदने का इशारा शीर्ष नेतृत्व की ओर से हुआ था। सुहैल ने अमर सिंह के साथ सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल का भी नाम लिया।
विकिलीक्स ने भी इस खरीद-फरोख्त का खुलासा किया था। इस कारण प्रधानमंत्री से इस्तीफा भी मांगा गया, लेकिन तब सरकार ने कहा था कि विदेश में स्थित दूतावास के बातचीत की न तो पुष्टि की जा सकती है और न ही इससे इनकार किया जा सकता है। मसलन वोट खरीदे भी जा सकते हैं और नहीं भी? प्रजातंत्र के मंदिरों में जो दृश्य दिखाई दे रहे हैं, उससे तो यही जाहिर होता है कि राष्ट्रीय हित अनैतिक आचरण और बाजारवाद की भेंट चढ़ रहे हैं। पीवी नरसिम्हाराव की अल्पमत सरकार से लेकर मनमोहन सरकार तक की कहानी इस अवधारणा को मजबूत करती है। गैर राजनीतिज्ञों का सत्ता में दखल और दलाल संस्कृति ऐसे ही प्रबंधकीय कौशल के नतीजे हैं। अमर सिंह पर प्राथमिकी दर्ज होने और चार्जशीट दाखिल होने के बाद इस स्थिति पर किसी हद तक अंकुश लगने की उम्मीद की जा सकती है। अल्पमत सरकारों को सांसदों की खरीद-फरोख्त की सौदेबाजी के जरिये बचाए जाने का सिलसिला 1991 में शुरू हुआ था। तब शिबू सोरेन समेत झारखंड मुक्ति मोर्चा के चार सांसदों को पैसा देकर खरीदा गया था।
अल्पमत सरकार इस सौदेबाजी से बहुमत में आ गई थी, लेकिन मामला उजागर हो जाने से संसद की गरिमा और सांसदों की ईमानदारी को आघात पहुंचा। बाद में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव समेत कुछ सांसदों पर भी मामला चला, किंतु संसद के विशेषधिकार के दायरे में होने के कारण तब न्यायालय ने लाचारी प्रकट की थी। अन्ना के जनलोकपाल विधेयक में संसद के भीतर सांसदों के ऐसे ही दुराचरण को कानून के दायरे में लाने की मांग की गई है। अमर सिंह द्वारा संसद के भीतर अपराध की पुष्टि हो जाने के बावजूद क्या शुचिता का तमगा लगाए रखने वाले प्रधानमंत्री को यह अहसास नहीं हो रहा कि सांसदों के आचरण को लोकपाल के दायरे में लाना कितना जरूरी है। सांसदों को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं देने की छूट शायद संविधान निर्माताओं ने इसलिए रखे होंगे, जिससे जनप्रतिनिधि अपने काम को पूरी निर्भीकता से अंजाम दे सकें। यह देश और जनता का दुर्भाग्य ही है कि जब बच निकलने के ये कानूनी रास्ते सार्वजनिक होकर प्रचलन में आ गए तो 22 जुलाई 2008 को खुद को नीलाम कर देने वाले सांसदों की संख्या भी बढ़ गई। जब भाजपा सांसदों ने संसद में नोटों के बदले वोट देने के लिए बतौर घूस दी गई नोटों की गड्डियां लहराईं तो कमोबेश खामोश रहने वाले मनमोहन सिंह ने दलील दी कि सांसदों को खरीदा गया है तो प्रमाण दो। अब तो प्रमाण भी मिल गया, लेकिन अब संयोग से हालात बदले हुए हैं। अब नोट के बदले वोट कांड में फरियादी खुद वे सांसद हैं, जिन्हें खरीदने की कोशिश हुई और आरोपी वे दलाल हैं जिन्होंने मनमोहन सिंह सरकार को बचाने के लिए सांसदों को खरीदने में अहम भूमिका निभाई।
मनमोहन सिंह पर कठपुतली प्रधानमंत्री, अमेरिका का पिट्ठू, विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हित साधक के आरोप भले ही लगते रहे हों, किंतु उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी पर अंगुली कभी नहीं उठी। जिस तरह से उन्होंने विश्वास मत हासिल किया, उसने संविधान में स्थापित पवित्रता, मर्यादा और गरिमा की सभी चूलें हिलाकर रख दीं। यह सौदा-संस्कृति आगे न बनी रहे, इसके लिए जरूरी था कि सांसदों के आचरण और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाया जाए।
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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