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शोषण का नया हथियार

जागरण मेहमान कोना
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माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के कर्ज के जाल में फंसी ग्रामीण महिलाओं की परेशानियों का उल्लेख कर रही हैं सुभाषिनी सहगल अली


महिला सशक्तीकरण कुछ सालों से सरकार का पसंदीदा मंत्र रहा है। विश्व बैंक के दिशा-निर्देश पर हमारे देश में पिछले दो दशकों से महिलाओं के बचत समूह बनाने पर बहुत जोर दिया जा रहा है। करोड़ों महिलाओं को इन बचत-गुटों मे संगठित किया गया है और उन्हें समूह की सामूहिक बचत राशि के आधार पर मिलने वाले कर्ज से उत्पादन करने और बेचने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। महिलाएं इतनी जरूरतमंद है और किसी तरह के रोजगार या कमाई करने के मौके के लिए इतनी लालायित है कि उन्होंने समूहों में बहुत ही उत्साह के साथ शामिल होना स्वीकार किया है, लेकिन इसके खतरनाक नतीजे सामने आए है। उनकी बचत पर मिलने वाला ब्याज और उन्हे दिए गए कर्ज पर उनसे वसूल किए जाने वाले ब्याज के बीच भारी अंतर है। इतना ही नहीं, अगर वे किसी तरह के उत्पादन में अपनी धनराशि लगाती है तो उसे बेचने में उन्हें बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त बीमारी, फसल की बर्बादी या किसी आपदा के कारण अक्सर गरीब महिलाएं अपनी किस्त समय से जमा नहीं कर पाती है।


महिलाओं की मांग है कि उन्हे रियायती दरों पर बैंकों से कर्ज मिले और उनके उत्पादन की बिक्री में सरकार उनकी मदद करे। केरल, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल की वाम सरकारों ने बचत समूहों को राष्ट्रीयकृत बैंकों से मिलने वाला कर्ज मात्र 4 फीसदी ब्याज पर दिलवाया और ब्याज दरों का बाकी अंतर खुद वहन किया। इन राज्यों में बचत-समूहों को सरकार की ओर से काम करने और अपने द्वारा बनाए गए सामान की बिक्री करने में काफी मदद मिलती है।


ऐसे समय जब महिलाओं के सामने लड़कर इस योजना में आवश्यक सुधार लाने के रास्ते खुल रहे थे, सरकार ने अपनी असल मंशा स्पष्ट कर दी। यह कवायद महिलाओं की मदद के लिए नहीं, बल्कि जनता के बहुत बड़े हिस्से के संसाधनों को निजी कंपनियों के हवाले करने की है। सरकार ने गरीब औरतों के शोषण का एक नया जरिया तैयार कर दिया है-अति लघु वित्तीय कंपनियां यानी माइक्रो फाइनेंस कंपनियां। अब बचत समूहों को राष्ट्रीयकृत बैंकों से मिलने वाले कर्ज की धनराशि घटती जा रही है और यह रकम इन अति-लघु वित्तीय कंपनियों को दी जा रही है, जो इस पैसे को मनमानी ब्याज दरों पर गरीब महिलाओं को मुहैया करा रही है।


अपने इस कदम के समर्थन में सरकार मोहम्मद यूनुस का नाम लेती है, जिन्होंने बांग्लादेश में ग्रामीण बैंक स्थापित किया था और जिन्हें नोबेल प्राइज से नवाजा गया था। उनके बारे में कहा जाता था कि वह करोड़ों गरीब महिलाओं के मित्र है और बचत समूहों को दिया जाने वाला कर्ज गरीबी दूर करने की जादू की छड़ी है। 1976 में उन्होंने 42 औरतों को इकट्ठा करके ग्रामीण बैंक शुरू किया था। 2006 तक यह बैंक हजारों गांवों मे फैल चुका था और लाखों औरतों को कर्ज बांटने का काम कर रहा था। उसकी तर्ज पर भारत समेत 32 देशों में काम होने लगा, लेकिन पिछले साल बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने मोहम्मद यूनुस को ग्रामीण बैंक से हटाकर उनकी और बैंक की गतिविधियों की जांच शुरू कर दी। जांच के दौरान सनसनीखेज तथ्य सामने आए है। बांग्लादेश में आत्महत्या करने वाली हर चौथी महिला ग्रामीण बैंक की कर्जदार है। ग्रामीण बैंक गरीब महिलाओं को इतनी ऊंची ब्याज दरों पर कर्ज देता है कि उसे अदा करने के लिए उन्हे उसी बैंक से नए कर्ज लेने पड़ते है और इस प्रकार वे कर्ज के जाल में बुरी तरह फंस जाती हैं। बैंक में भ्रष्टाचार भी सामने आया है। नार्वे की एक एजेंसी ने ग्रामीण बैंक को करीब एक करोड़ रुपये इस शर्त पर दिए थे कि उसका इस्तेमाल केवल औरतों को दिए जाने वाले कर्ज के लिए होगा, लेकिन यूनुस ने उस पैसे को अपनी ही एक अन्य कंपनी के नाम स्थानांतरित कर दिया और फिर उसे कर्ज के रूप में ग्रामीण बैंक को दे दिया। इसके अलावा मोहम्मद यूनुस ने अपनी झूठी उपलब्धियों का बखान करने के लिए कई फर्जी डाक्यूमेंटरी फिल्में भी तैयार की थीं।


जांच के दौरान यह भी पता चला कि ग्रामीण बैंक को कई अंतरराष्ट्रीय संस्थानों से तीन फीसदी सालाना ब्याज दर पर मोटा पैसा मिला था, जो उसने गरीबों को 40 से 50 फीसदी ब्याज दर पर कर्ज के रूप में बांट दिया था। गरीब कर्जदारों से कर्ज वसूली इतने अमानवीय तरीके से की जाती थी कि बहुत सी महिलाओं ने आत्महत्या कर डाली।


अफसोस है कि इस प्रकरण से सबक लेने के बजाय हमारी सरकार इसे उदाहरण के रूप में पेश कर रही है। सरकार ने अति लघु वित्तीय संस्थाओं को खुली छूट दे रखी है। ये कंपनियां पैदा होते ही अनाप-शनाप मुनाफा कमाने लगती है। गरीबों से लूट-खसोट के बल पर ही माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के तीन साल में मुनाफे में कई गुना वृद्धि हो गई। एक माइक्रोफाइनेंस कंपनी का मुनाफा 2007-08 में 170 करोड़ से बढ़कर 2009-10 में 959 करोड़ रुपये हो गया। इसी प्रकार एक अन्य कंपनी का साढ़े छह करोड़ से बढ़कर 222 करोड़ रुपये हो गया। इस तरह की मुनाफाखोरी शायद ही अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र में हुई होगी।


माइक्रो फाइनेंस कंपनियों की लूटखसोट और गुंडागर्दी के दुष्परिणाम सामने आने लगे है। पिछले दिनों आंध्र प्रदेश में माइक्रो फाइनेंस कंपनियों के उत्पीड़न से तंग आकर 30 महिलाओं ने आत्महत्या कर ली। उड़ीसा में भी आठ महिलाओं ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीयकृत बैंकों का कहना है कि ये कंपनियां उनसे 8-10 फीसदी ब्याज दर पर कर्ज लेकर गरीब महिलाओं से 150 फीसदी तक ब्याज वसूलती है। अफसोस है कि सरकार चलाने वालों के पास अपने पड़ोसी की तरफ देखने और उसके कड़वे अनुभव से सीखने की फुर्सत ही नहीं है?


लेखिका सुभाषिनी सहगल अली लोकसभा की पूर्व सदस्य हैं


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