Menu
blogid : 5736 postid : 3038

अरब बसंत का मुश्किल दौर

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

Subhash Gatadeतहरीर स्क्वॉयर जो मिस्र के राजनीतिक-सामाजिक आंदोलनों को प्रतिबिंबित करता रहा है, वहां पर पिछले सप्ताहांत फिर हजारों की तादाद में लोग जुटे थे। भीड़ में ऐसे लोगों की तादाद नाम मात्र थी, जो वहां लगातार मौजूद रहते आए हैं या जिन्होंने तानाशाह मुबारक की बेदखली और सेना के मनमाने रवैये की मुखालफत के लिए लगातार आवाज बुलंद की है। याद रहे, अभी ज्यादा दिन नहीं बीता जबकि वही तहरीर स्क्वॉयर ऐसे प्रदर्शनकारियों के खून से लाल हो उठा था, जिन्हें सेना के आदेश पर चली गोलियों का शिकार होना पड़ा था। भीड़ का बहुलांश मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे रूढि़वादी संगठन या सलाफी जैसी इस्लाम की कट्टरवादी धारा से जुड़े लोगों से बना था। कारण स्पष्ट था, ताजा समाचारों के मुताबिक मुस्लिम ब्रदरहुड से जुड़े संगठन आदि इस्लामिक संगठनों को दो तिहाई से अधिक सीटें मिली हैं। मुस्लिम ब्रदरहुड से जुड़े राजनीतिक संगठन ही नहीं, बल्कि इस्लामिक धर्मशास्त्र के प्रति अधिक शुद्धतावादी एवं अधिक कट्टरवादी रुख अख्तियार करने वाली सलाफी ताकतें दूसरे नंबर पर पहुंचती दिख रही हैं। नूर पार्टी, जो कट्टरपंथी सलाफी आंदोलन की राजनीतिक शाखा है और जो सौदी मार्का वहाबी चिंतन से अधिक प्रेरित दिखती है, वह शरिया कानूनों को लागू करने की हिमायती है।


1928 में बने मुस्लिम ब्रदरहुड से संबद्ध फ्रीडम एंड जस्टिस पार्टी ने भले ही चुनाव जीतने के लिए अधिक मध्यमार्गी बातें की, मगर यह भी स्पष्ट है कि मिस्र के ईसाई अल्पसंख्यकों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति उसका किस किस्म का नकारात्मक रवैया दिखता है। लाजिमी है कि मिस्र की महिलाएं या मुल्क की लगभग दस फीसदी आबादी जो कॉप्टिक ईसाई समझी जाती है, मिस्र के तेजी से बदलते घटनाक्रम से चिंतित दिखते हैं। मगर अकेला मिस्र ही नहीं, जहां ऐसी रूढि़वादी ताकतें हावी होती दिखती हैं, मध्य-पूर्व के अन्य मुल्कों में भी जहां लोग आंदोलित रहे हैं, वहां भी एक-एक कर इस्लामिक ताकतें हावी हो रही हैं। ट्यूनीशिया में अक्टूबर में संपन्न चुनावों में एक मॉडरेट इस्लामिक पार्टी को 217 में से 89 सीटें मिली हैं और वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सत्ता संभाल रही है। मोरक्को में राजा के राजनीतिक गतिविधियों के लिए रास्ता सुगम किए जाने के बाद हुए चुनावों में मुस्लिम ब्रदरहुड से प्रेरणा ग्रहण करने वाली एक इस्लामिक पार्टी ने सत्ता संभाली है।


लीबिया में गद्दाफी के पतन के बाद हुकूमत संभालने वाली लीबिया ट्रांजिशनल काउंसिल के नेता ने तत्काल यह ऐलान कर दिया था कि लीबिया भी शरिया कानूनों के सहारे चलेगा। देखते ही देखते अरब बसंत के इस्लामिक शीतऋतु में परिवर्तित होने के संकेत मिल रहे हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं बीता, जब 76 अग्रणी मानवाधिकार कर्मियों, लेखकों ने अक्टूबर माह के आखिर में सेक्युलर एवं आजाद मध्य-पूर्व और उत्तरी अफ्रीका के लिए अपना घोषणापत्र जारी किया था। यह वही वक्त था, जब लीबिया के नए शासकों ने अपने राजनीतिक-सामाजिक एजेंडे को स्पष्ट किया था और अरब बसंत के नाम से शुरू हुए विप्लवी जनता के आंदोलनों के इस्लामिक ताकतों द्वारा या अमेरिकी सैन्यवाद द्वारा अपहरण किए जाने की आशंका प्रबल होती दिख रही थी। धर्मनिरपेक्षता को सभी नागरिकों की आजादी एवं समानता की पूर्व शर्त बताते हुए घोषणापत्र में राज्य एवं धर्म से पूर्ण अलगाव, परिवार, नागरिक एवं आपराधिक संहिताओं से धार्मिक कानूनों की समाप्ति, शिक्षा प्रणाली से धर्म का अलगाव, आस्था एवं नास्तिकता को निजी विश्वासों के तौर पर मानने की आजादी, लिंग पर आधारित भेदभाव तथा जबरन बुर्का पहनाए जाने पर पाबंदी आदि पर जोर दिया गया था। अब जबकि समूचे परिदृश्य में बदलाव के संकेत मिल रहे हैं, प्रस्तुत घोषणापत्र की बातें फिलवक्त बहुत दूर की कौड़ी नजर आती हैं।


सभी जानते हैं कि अरब बसंत न केवल चंद तानाशाहों या जालिम हुक्मरानों से लोगों की मुक्ति का मसला रहा है, जो प्रजा बनाकर रखी गई जनता के नागरिक बनने की ख्वाहिश के रूपायित होने की कहानी है। बल्कि उसने पश्चिम द्वारा अरब के व्याख्यायित करने को भी चुनौती दी थी। मालूम हो कि पश्चिम ने अरब को हमेशा खास ढंग से व्याख्यायित किया है, जो उनके हिसाब से अतार्किक, डरावना, भरोसा न करने लायक, पश्चिम विरोधी होता है। अरब को खास नजरिये से देखने का ही नतीजा है कि पश्चिम में विकसित फिल्मों में अरब आमतौर पर तीन भूमिकाओं में नजर आता रहा है- बॉम्बर अर्थात आतंकी, बेली डांसर और बिलियनॉयर यानी अरबपति। वह इस हद तक उदासीन होता है कि जालिम से जालिम तानाशाह को भी चुपचाप बर्दाश्त किए रह सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अरब जगत में तानाशाहों और राजे-रजवाड़ों को शह देने में अमेरिका की केंद्रीय भूमिका रही है, जिसने इस क्षेत्र में जनतांत्रिक आंदोलनों के फलने-फूलने की लगातार मुखालफत की है और इसके लिए कट्टरपंथी इस्लाम के हिमायती सऊदी अरब से मधुर रिश्ते कायम रखे हैं। कट्टरपंथी इस्लाम के एक बड़े हिमायती के तौर पर सऊदी अरब की भूमिका से सभी वाकिफ हैं। इस्लाम के दो प्रमुख धर्मस्थान मक्का एवं मदीना के वहां स्थित होने के नाते इस्लाम को मानने वाले दुनिया भर से वहां आते रहते हैं। वहां जिस वहाबी इस्लाम को मानने वालों का जोर है, उसका असर विगत कुछ दशकों में पेट्रो-डॉलर के प्रभाव में तमाम अन्य मुस्लिम बहुल मुल्कों में भी फैला है। मिस्र का इंकलाब जिन दिनों अपने चरम पर था, तब अमेरिका के चर्चित विचारक एवं भाषाविद् प्रोफेसर नोम चोम्स्की द्वारा दिया गया साक्षात्कार काफी चर्चित रहा।


अपने वक्त के सबसे व्यापक क्षेत्रीय जनविद्रोहों की हिमायत करते हुए प्रो. चोम्स्की ने लगभग पचास साल के दौरान अरब जगत के अमेरिका संबंधित जनमत की समीक्षा की थी। उनका कहना था कि किस तरह अरब जनता अमेरिकी शासकों से लगातार घृणा करती आई है, जो उनके हिसाब से उन क्षेत्रों में जनतंत्र विकसित होने देने में या जनता के वास्तविक विकास में सबसे बड़ी बाधा रहा है। अरब जगत एवं उत्तरी अफ्रीका के मुल्कों में तेजी से बदलते हालात जहां जनतंत्र के रास्ते धर्म आधारित पार्टियां सत्ता में आ रही हैं, जिन्होंने अपने प्रतिक्रियावादी सामाजिक एजेंडे को स्पष्ट किया है, आने वाले दिनों में धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं, असहमति रखने वाले बुद्धिजीवियों पर कहर बरपा सकते हैं। कई के लिए अरब दुनिया के मौजूदा हालात एवं इरानी क्रांति के बाद के हालात में बहुत समानता दिखती है, जब 1979 में अयतुल्लाह हुकूमत में आए, तब तक तेहरान, इस्तांबुल, काहिरा, अमान, दमिश्क, बगदाद, अल्जीयर्स और मोरक्को के कई शहरों की आबादी में सेक्युलर अभिजातों, बुद्धिजीवियों की अच्छी खासी तादाद थी, लेकिन तीन दशकों के अंदर ही इन सभी समाज से धर्मनिरपेक्षता की निशानी को मिटा दिया गया। इस्लामिक ताकतों ने एक ही रास्ता अपनाया आतंक का, असहमति रखने वाले लोगों को आतंकित करने का। स्पष्ट है कि वह उससे गुरेज नहीं करेंगे।


लेखक सुभाष गाताडे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh