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प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों पंजाब के जालंधर में चार मंजिला इमारत के ढहने के कारण मलबे में दबे एक मजदूर को करीब 24 घंटों के बाद बाहर निकाला गया तो उसकी पहली टिप्पणी थी कि अब मैं यहां नहीं रुकूंगा। वह अभागा मजदूर बिहार से संबंध रखता था। इस हादसे में कमोबेश मलबे में दबने वाले मजदूर बिहार से ही थे। उनके दर्द को समझने की जरूरत है। दरअसल, प्रवासी मजदूरों के दुख-दर्द और दुर्दशा को दूर करने की फिक्र प्राय: सरकारें नहीं करती हैं। पंजाब सरकार का भी रुख घायल मजदूरों को लेकर कोई बहुत मानवीय नहीं रहता। जालंधर मामले में भी मुख्यमंत्री से लेकर दूसरे नेताओं ने रस्मी संवेदनाएं प्रकट करके अपने दायित्वों की इतिश्री कर ली। क्या पंजाब सरकार का रुख इसी तरह का रहता यदि इमारत में दबे मजदूर पंजाबी ही होते? कतई नहीं। पेट की आग को बुझाने के लिए अपने घर से हजारों मील दूर आए मजदूर अब बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अपील कर रहे हैं कि वह उन्हें न्याय दिलाएं। पंजाब में करीब 30 लाख प्रवासी मजदूर रहते हैं। इनमें से अधिकतर का संबंध बिहार या उत्तर प्रदेश से है। कुछ उड़ीसा, मध्य प्रदेश या छतीसगढ़ से भी आते हैं। समूचे पंजाब की इंडस्ट्री और कृषि इनके खून-पसीने के दम पर चलती है। लेकिन, संकट के हालात पैदा होने पर इनके हक में न तो सरकार खड़ी नजर आती है और न ही समाज। पिछले दिनों पंजाब विधानसभा चुनावों के दौरान प्रवासी मजदूर किसी भी दल के वोट बैंक नहीं थे। इसलिए इनका मत पाने की किसी भी पार्टी को कोई चिंता नहीं थी।


पंजाब में मजदूर जान जोखिम में डालकर काम कर रहे हैं, बावजूद इसके वे मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। उन्हें न तो नियमों के मुताबिक पूरी मजदूरी मिल रही है और न ही ईएसआइ से संबंधित स्वास्थ्य सेवाएं। अगर फैक्ट्री में कोई हादसा हो जाता है, तो ऐसे में मजदूर को ही इलाज का खर्च उठाना पड़ता है। प्रवासी मजदूर आम तौर पर किसी मंच या मोर्चे के तहत लामबंद नहीं होते, इसलिए उनका खूब शोषण होता है। इन्हें श्रम कानूनों का लाभ नहीं मिलता। इनके काम के घंटे तय नहीं है। प्रवासी पंजाब की अर्थव्यवस्था की जान हैं। अगर ये तय समय पर पंजाब नहीं पहुंचते तो व्यापारी और बड़े किसान परेशान हो जाते हैं। लेकिन जालंधर की घटना ने साबित कर दिया कि पंजाब में प्रवासियों का इस्तेमाल ही होता है। जब कल-कारखानों को चलाने और खेतों में बुवाई या कटाई की जरूरत होती है तो प्रवासी मजदूरों की याद आने लगती है, पर इनके ऊपर कभी कोई विपत्ति आने पर इनकी कोई सुध नहीं लेता।


पंजाब से सैकड़ों मजदूर बिहार वापस आ चुके हैं। बहरहाल, केंद्र सरकार की योजनाएं और बिहार सरकार ने जिस प्रकार से बिहार में रोजगार उपलब्ध करवाए हैं उससे यही लगता है कि बिहार से दूसरे राज्यों में जाने वाले मजदूरों का पलायन अगर पूरी तरह से न भी थमा तो बहुत कम तो अवश्य ही हो जाएगा। बिहार से मजदूरों का पलायन इसलिए भी कम होना तय है क्योंकि देश में दूसरी हरित रांति की नींव पड़ गई है। और इस क्रांति का सूत्रधार बिहार बना है। अन्न उत्पादन के ताजा सालाना आंकड़े बता रहे हैं कि बिहार के किसानों ने बदलाव की जो बयार बहाई है उसका असर पड़ोस में पूर्वी उत्तर प्रदेश और प:िम बंगाल के इलाके में भी महसूस किया जा रहा है। बीते वित्तीय वर्ष में देश के कुल अन्न उत्पादन का चालीस प्रतिशत हिस्सा बिहार और उससे लगने वाले राज्यों के सीमायी इलाके के किसानों ने पैदा करके नया कीर्तिमान बनाया है। भले ही बिहार कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज कर रहा है और वहां से मजदूरों का बाहर जाना भी निरंतर कम होता रहेगा, पर यह सवाल अपनी जगह पर बना हुआ कि प्रवासी मजदूरों के साथ मानवीय व्यवहार करने की पहल कौन करेगा।


लेखक विवेक शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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