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सड़कों पर बहता दूध

जागरण मेहमान कोना
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इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां किसानों के पसीने पर मौज करने वाले नकली किसानों (बिचौलियों, आढ़तियों, व्यापारियों) की फौज हर कदम पर मुस्तैदी से तैनात है। इन नकली किसानों की करतूतों के चलते कभी किसानों को खेत में खड़ी गन्ने की फसल आग के हवाले करनी पड़ती है तो कभी आलू-प्याज से सड़कें पट जाती हैं। आज जो आलू 16 रुपये किलो बिक रहा है, महज तीन महीने पहले उसी आलू को मुफ्त में लेने वाले नहीं मिल रहे थे। ताजा वाकया दूध का है। जिस देश में दूध को संतान के समान मानकर पैरों के नीचे पड़ने से बचाने की पंरपरा रही हो, वहां दूध सड़कों पर बहाया जा रहा है। वह भी उस समय, जब सरकार दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए 17,000 करोड़ रुपये के नेशनल डेयरी प्लान का आगाज कर रही हो। इसके तहत अगले दस साल में सालाना दूध उत्पादन 12.5 करोड़ टन से बढ़ाकर 20 करोड़ टन करने का लक्ष्य रखा गया है, लेकिन दूधियों के विरोध प्रदर्शन को देखते हुए इस योजना की सफलता पर अभी से संदेह प्रकट किया जाने लगा है। दूधियों के गुस्से की मूल वजह दूध की खरीद-बिक्री पर बिचौलियों का बढ़ता वर्चस्व है, जिससे न तो उनकी लागत निकल पा रही है और न ही उपभोक्ताओं को कम कीमत का लाभ मिल रहा है। दूसरी ओर शायद ही कोई ऐसा महीना गुजरता हो, जब देश के किसी न किसी हिस्से से दूध की कीमतों में बढ़ोतरी की खबरें न आती हो।


उद्योग संगठन एसोचैम के एक हालिया सर्वेक्षण के मुताबिक महानगरों में पिछले पांच सालों में एक औसत व्यक्ति की कमाई जहां 38 फीसदी बढ़ी है, वहीं दूध, सब्जी, मसाले जैसी आवश्यक वस्तुओं की कीमतें 72 फीसदी बढ़ चुकी हैं। देखा जाए तो दूध महंगाई की मूल वजह निजी डेयरी कंपनियों की बढ़ती भूमिका है। दरअसल, उदारीकरण के दौर में सहकारिता की मूल भावना खंडित हुई, जिससे दूध की खरीद-बिक्री में निजी डेयरी कंपनियों का हस्तक्षेप बढ़ा। मुनाफे से तिजोरी भरने में माहिर कंपनियां दोनों ओर से लूट रही हैं। जिस दूध को वे शहरों में 38 से 40 रुपये प्रति लीटर बेच रही हैं, उसके लिए महज 12 से 24 रुपये प्रति लीटर का भुगतान करती हैं। इससे भी विडंबनापूर्ण बात यह है कि पिछले साल की तुलना में इस साल दूध का उत्पादन अधिक हुआ है और स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) के निर्यात पर रोक लगी हुई है। फिर पिछले सीजन में आयात हुआ 30,000 टन एसएमपी और 15,000 टन बटर ऑयल का स्टॉक पड़ा है। इससे उपलब्धता की कोई कमी नहीं है। इसी को देखते हुए कंपनियों ने दूध के खरीद मूल्य में 1 से 4 रुपये प्रति लीटर तक की कटौती कर दी है। इससे दूध उत्पादकों के सामने दोहरी कठिनाई पैदा हो गई। एक तो उनकी आमदनी घटी तो दूसरी ओर चारे और पशु आहार के दाम बढ़ने से उनकी लागत बढ़ गई।


देश को दूध के मामले में आत्मनिर्भर बनाने में आणंद को मॉडल बनाकर पूरे देश में चलाए गए ऑपरेशन फ्लड की मुख्य भूमिका रही है। 1950 और 60 के दशक में दूध उत्पादन महज 1.2 फीसदी की दर से बढ़ रहा था। आबादी के मुकाबले कम उत्पादन के चलते दूध की दैनिक उपलब्धता 1951 के 132 ग्राम प्रति व्यक्ति से घटकर 1971 में 114 ग्राम रह गई। वहीं ऑपरेशन फ्लड के बाद यह दर बढ़कर 4.3 फीसदी हो गई, जिससे दूध की उपलब्धता में तेजी से इजाफा हुआ। दूध उत्पादन में हुई बढ़ोतरी की तीन बड़ी वजहें थीं- ग्रामीण उत्पादकों को शहरी बाजार उपलब्ध कराने के लिए विपणन ढांचे की स्थापना, हरित क्रांति के चलते चारे की बढ़ी उपलब्धता और ग्रामीण परिवारों का सस्ता श्रम। यह ऑपरेशन फ्लड का ही कमाल है कि आज दूध उत्पादन के मामले में भारत दुनिया में पहले नंबर पर है। देश में दूध का उत्पादन किसी भी फसल की तुलना में अधिक है और किसानों को प्रति इकाई सबसे ज्यादा कमाई भी कराता है। फसलों की बरबादी की क्षतिपूर्ति करने और छोटे किसानों व महिलाओं को रोजी-रोटी मुहैया कराने में दूध उत्पादन ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। भले ही ऑपरेशन फ्लड के चलते देश में श्वेत क्रांति हुई, लेकिन आणंद मॉडल में दूध का संग्रह और परिवहन बढ़ा। पहले दूध की खपत घर में या गांव या नजदीक के कस्बे में होती थी। अब डेयरी सहकारी संस्थाओं की बदौलत दूध गांव से निकलकर शहरों और महानगरों में जाने लगा। शहरों के निवासियों को 24 घंटे सुगमता से दूध के पैकेट मिलने लगे, लेकिन गांवों से दूध गायब हो गया। आज आप किसी भी गांव में दोपहर के समय जाएं तो वहां दूध के दर्शन होना मुश्किल है, क्योंकि जैसे-जैसे दिन चढ़ता है, वैसे-वैसे दूधियों का कारवां नजदीकी कस्बों-शहरों का रुख कर लेता है।


खुद दूध उत्पादकों के बच्चे दूध पीना बंद करके चाय पीने लगे, क्योंकि दूध की बिक्री से होने वाली आमदनी परिवार के लिए ज्यादा अहम हो गई। देखा जाए तो ऑपरेशन फ्लड की शुरुआत ही महानगरों में दूध की आपूर्ति के लिए की गई थी। स्वयं आणंद की दुग्ध सहकारिता की स्थानपना ही इसलिए हुई, क्योंकि तीन सौ मील दूर मुंबई शहर को दूध की जरूरत थी। आणंद मॉडल के डेयरी विकास ने कई समस्याएं भी पैदा कीं। चारे के उत्पादन और खेतों में भारी रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं का इस्तेमाल व दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए नुकसानदेह हारमोनयुक्त इंजेक्शनों का प्रचलन बढ़ा। इस दूध के सेवन से तरह-तरह की बीमारियां भी फैल रही हैं। फिर इस पद्धति में गाय-भैसों की देसी नस्लों की भी उपेक्षा हुई और विदेशी नस्लों का प्रचलन बढ़ा। चूंकि आणंद पद्धति में दूध उत्पादन को व्यवसाय का रूप दे दिया गया, इसलिए इस मॉडल में दूधियों को मिलने वाली और उपभोक्ताओं द्वारा चुकाई जाने वाली कीमत अंतराल का एक बड़ा हिस्सा पैंकिंग, प्रोसेसिंग, परिवहन, प्रबंधन, विज्ञापन में जाता है, जिससे दूध की लागत कई गुना बढ़ जाती है। इसे कोलकाता की दूध आपूर्ति से समझा जा सकता है। आणंद (गुजरात) से कोलकाता तक प्रतिदिन रेफ्रिजरेटेड रेल टैंकरों से दूध भेजा जाता है।


दुनिया में दूध का इतना लंबा परिवहन सिर्फ हमारे यहां होता है। दो हजार किलोमीटर तक ताजे दूध की आपूर्ति को भले ही टेक्नोलॉजी का कमाल कहा जा सकता है, लेकिन यह बिजली, डीजल और रेलवे की बरबादी है। जब गुजरात, राजस्थान जैसे सूखे प्रदेशों में श्वेत क्रांति संभव है तो गीले बंगाल में क्यों नहीं? आणंद मॉडल का कमाल तो तब माना जाएगा, जब कोलकाता के लिए दूध उसके आसपास के ग्रामीण इलाकों में पर्याप्त मात्रा में पैदा होने लगे। बढ़ती आय और खान-पान की आदतों में बदलाव के चलते दूध और दूध से निर्मित पदार्थो की मांग तेजी से बढ़ रही है। इस मांग को तभी पूरा किया जा सकेगा, जब आणंद मॉडल को विकेंद्रित, मितव्ययी और पर्यावरण अनुकूल बनाया जाए। इसकी शुरुआत नेशनल डेयरी प्लान से होनी चाहिए। इससे दूध उत्पादकों को उनके पसीने की वाजिब कीमत मिलेगी और उपभोक्ताओं को गुणवत्ता युक्त दूध सहजता से उपलब्ध हो सकेगा। फिर इससे दूध उत्पादन से बिक्री तक के हर चरण पर मौजूद बिचौलियों की भूमिका अपने आप कम हो जाएगी।


लेखक रमेश दुबे स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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