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भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय लहर स्वाभाविक व जायज है। भ्रष्टाचार की हालिया घटनाओं ने देश के मौजूदा भ्रष्टाचाररोधी तंत्र में जनता का विश्वास डिगा दिया है। भ्रष्टाचार का कैंसर विभिन्न संस्थानों में फैल चुका है। 2008 में संप्रग सरकार के विश्वास मत में घूसखोरी और भ्रष्टाचार की प्रमुख भूमिका थी। संसदीय समिति ने घूस के पुख्ता साक्ष्यों की अनदेखी करते हुए राजनीतिक आधार पर खुद को बांट लिया। लोकतंत्र में घूस के माध्यम से संसदीय विश्वास अर्जित करने से बड़ा कोई अपराध नहीं है। तीन साल से विरोध जताने के बावजूद 2-जी घोटाला होता रहा। संसदीय दबाव, मीडिया बहस और न्यायिक सक्रियता के कारण ही कुछ लोगों पर मामला चलाया जा सका है। राष्ट्रमंडल खेल सरीखी अंतरराष्ट्रीय घटना भ्रष्टाचार में डूब गई। न्यायपालिका पर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि समाज के अंदर जवाबदेही तंत्र को मजबूत किया जाए। लोकपाल ऐसा ही एकीकृत संस्थान है, जिसके गठन पर लंबे समय से बहस चल रही है। इससे उम्मीद जग रही है कि जवाबदेही तंत्र में सुधार के कारण भ्रष्टाचार के दोषियों को दंड मिलेगा और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा। मंत्रियों के लोकपाल बिल के मसौदे की पड़ताल इस आधार पर होनी चाहिए कि क्या यह इस उद्देश्य की पूर्ति में सक्षम है?
इस मसौदे के अनुसार लोकपाल में एक अध्यक्ष और दस सदस्य होने चाहिए। इनमें से चार न्यायपालिका के सदस्य हों। लोकपाल की चयन समिति में दो विपक्षी नेताओं के अलावा न्यायिक संस्थान से दो प्रतिनिधि हों। इनके अलावा, प्रधानमंत्री, लोकसभा के स्पीकर, एक नेता उस सदन से जिसके प्रधानमंत्री सदस्य न हों और गृह मंत्री सदस्य के रूप में शामिल हों। कैबिनेट सचिव को समिति का सदस्य सचिव बनाया जाए और नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के अध्यक्ष इसके सदस्य हों। इस चयन समिति में उन लोगों का प्रभुत्व है जो सत्तारूढ़ सरकार का समर्थन करते हैं। सरकारी बहुमत से लैस चुनाव समिति लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों का चयन करेगी। गैरन्यायिक सदस्यों को जनकार्यो, प्रशासनिक कानून, नीति, शिक्षा, वाणिज्य, उद्योग, कानून, वित्त या प्रबंधन क्षेत्र का विशिष्ट ज्ञान होना चाहिए। अगर चुना गया व्यक्ति सांसद या विधायक है तो इसे लोकपाल सदस्य बनने से पहले इस्तीफा देना होगा। अगर वह किसी राजनीतिक दल से जुड़ा है तो उसे पहले उस दल से संबंध विच्छेद करने होंगे। मंत्रियों के मसौदे के अनुसार ऐसे व्यक्ति भी लोकपाल के सदस्य बन सकते हैं जो स्वतंत्र, उचित और पात्र नहीं हैं। लोकपाल के सदस्यों का चयन सरकार के पक्ष में किया जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति लोकपाल के दुराचरण से असंतुष्ट है तो उसकी शिकायत पर लोकपाल से छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं है। लोकपाल को राष्ट्रपति के संदर्भ पर यानी सरकार की सलाह पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा ही हटाया जा सकता है। इस प्रकार सरकार ही लोकपाल को हटाने की प्रक्रिया शुरू कर सकती है, कोई असंतुष्ट नागरिक नहीं। यही नहीं, लोकपाल को निलंबित करने की शक्ति सुप्रीम कोर्ट के पास नहीं, बल्कि सिर्फ सरकार के पास है।
इस प्रकार मंत्रियों के लोकपाल मसौदे पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि चयन समिति में सरकार का प्रभुत्व होगा। चयन का मापदंड अस्पष्ट है और व्यक्तियों के दोषी या निर्दोष होने का निर्धारण कानूनी साक्ष्यों के आधार पर नहीं है। पूर्व राजनेता भी सदस्य बनाए जा सकते हैं। लोकपाल को हटाने की पहल सरकार ही कर सकती है और इसे निलंबित करने का तो पूरा अधिकार ही सरकार के पास है।
मंत्रियों का मसौदा लोकपाल के दायरे से प्रधानमंत्री को बाहर रखता है। लोकपाल बिल का प्रारूप जांच की प्रक्रिया निर्धारित करता है और जांच की शक्ति वाली एजेंसी का गठन करता है। इसमें ऐसे लोगों की जांच की जा सकती है जो भ्रष्टाचार उन्मूलन अधिनियम के तहत आरोपी हो सकते हैं। इस अधिनियम में प्रधानमंत्री को कोई छूट नहीं है। अगर सीबीआइ या पुलिस प्रधानमंत्री से पूछताछ करना चाहती है तो उन्हें इससे बचने का कोई विशेषाधिकार हासिल नहीं है। सीजर की पत्नी के संदेह से परे होने का सिद्धांत प्रधानमंत्री पर लागू नहीं होता। जनहित के परिप्रेक्ष्य में प्रधानमंत्री को केवल राष्ट्रीय सुरक्षा या जन सुरक्षा के संदर्भ में फैसलों पर ही संरक्षण मिलना चाहिए। इन मुद्दों से संबंधित मामलों को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए, किंतु अगर प्रधानमंत्री किसी सौदे में दलाली खाता है या फिर घूस देकर विश्वास मत हासिल करता है तो उसे दंड के प्रावधान से मुक्त क्यों रखा जाना चाहिए? इसी कारण अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह, दोनों ने बार-बार कहा है कि उन्हें लोकपाल के दायरे में रहने पर कोई आपत्ति नहीं है। वर्तमान में, न्यायिक जवाबदेही का तंत्र या तो खुद न्यायपालिका की अंदरूनी व्यवस्था पर निर्भर करता है या फिर इसके लिए महाभियोग की प्रक्रिया अपनाई जाती है। महाभियोग की प्रक्रिया दुरूह, असामान्य रूप से लंबी और अधिकांश मामलों में निष्प्रभावी है। यह ऐसी प्रक्रिया है जो बिरले मामले में ही अपनाई जाती है। अंदरूनी तंत्र की अपनी सीमाएं व कमजोरियां हैं। भारत इस युग में प्रवेश कर चुका है जहां जजों की नियुक्ति जजों द्वारा की जाती है और महाभियोग को छोड़कर अन्य मामलों में केवल जज ही दूसरे जज को खराब आचरण का दोषी ठहरा सकता है। यह व्यवस्था पूरी तरह विफल सिद्ध हो चुकी है, इसलिए हमें नई व्यवस्था तलाशनी है। इस पर बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए। हमें वैकल्पिक तंत्र पर संयत बहस के लिए तैयार रहना चाहिए।
सिविल सोसाइटी के कुछ सदस्यों का सुझाव है कि न्यायिक संस्थान भी लोकपाल के दायरे में हों। एक वैकल्पिक सुझाव यह भी है कि जजों की नियुक्तियां और उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाइयों का अधिकार राष्ट्रीय न्यायिक आयोग को सौंप देना चाहिए। कानून मंत्री वीरप्पा मोइली न्यायपालिका की जवाबदेही संबंधी कानूनों में सुधार का सुझाव दे रहे हैं। 2003 में राजग सरकार ने 98वें संविधान संशोधन में न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के अधीन करने का प्रावधान किया था। इसके सदस्यों में न्यायपालिका से जुड़े लोगों को प्रमुखता देने के साथ-साथ सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर कानून मंत्री और किसी एक प्रबुद्ध नागरिक को निगरानी कर्ता के रूप में शामिल करने का प्रावधान था। राष्ट्रीय न्यायिक आयोग का गठन या स्वरूप बहस और व्यापक चर्चा का विषय है। अब समय आ गया है कि इस तरह के आयोग का गठन किया जाए। इसके पास जजों की नियुक्ति करने के अधिकार के साथ-साथ उनका आचरण सही रखने की जिम्मेदारी भी हो। यह न्यायिक लोकपाल हो सकता है।
लेखक अरुण जेटली राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं
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