Menu
blogid : 5736 postid : 1642

क्यों अधिक प्रासंगिक हो रहे गांधी

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने देशव्यापी आंदोलन में अन्ना हजारे ने गांधीवादी तरीके अपनाकर सरकार को घुटनों के बल ला खड़ा किया। 12 दिन तक चले अनशन का जादू केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में दिखी। देश में अन्ना की जो आंधी आई दरअसल वह उस गांधी की लहर थी जिसे आजादी के बाद पैदा हुई दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी पीढ़ी ने कभी नहीं देखा, लेकिन इनके दिलोदिमाग में गांधी का कब्जा जरूर है। अंग्रेज कहते थे इस बूढ़े में कुछ खास है। जैसे जैसे इसे भुलाओ स्मृति में लाठी लेकर आ डटता है। कुछ दशक पहले जब रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी आई थी तो लंदन से लेकर मियामी तक के युवाओं को उसने झकझोर दिया और देखते ही देखते ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज से लेकर मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के छात्रों में गांधी टोपी और खादी का कुर्ता लोकप्रिय हो गया। तब प्रतिक्रिया थी यह गांधी का ग्लैमरस जादू है जिसने छात्रों को आकर्षित कर लिया है। कहने का मतलब था कि सिनेमाई जादू बहुत जल्द उतर जाएगा। ठीक इसी तरह लगे रहो मुन्नाभाई और मुन्नाभाई एमबीबीएस फिल्मों के बाद युवाओं में गांधीगीरी के प्रति उमडे़ आकर्षण को देखकर भी कहा गया था।


दरअसल, यह मान लिया जाता है कि गांधी को लेकर जो सिनेमाई आकर्षण है उसकी वजह गांधी की विचारधरा कम और उसकी जादुई प्रस्तुति ज्यादा है, लेकिन अन्ना के आंदोलन ने इस मिथ को तोड़ दिया और साबित किया कि गांधी आज भी सिर्फ प्रौढ़ों और बूढ़ों के दिलोदिमाग में नहीं, बल्कि युवाओं के भी मन में छाए हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि गांधी जैसे-जैसे वक्त गुजर रहा है ज्यादा प्रासंगिक हो रहे हैं। भले ही गांधी को गए साढ़े छह दशकों से ज्यादा हो गए, लेकिन उनका आकर्षण, जादू या कहें रोमांच बिल्कुल कम नहीं हुआ है। मगर सवाल है आखिर आज का युवा गांधी से इस कदर पैशनेट क्यों है? गैजेट और गिज्मो लवर युवा आखिर गांधी से इतना लगाव क्यों रखता है? क्या इसलिए कि गांधी का समूचा व्यक्तित्व किसी किस्से कहानी के नायक सी लगती है या फिर दुबला पतला, असमर्थ सा शरीर, हाथ में छड़ी, आंखों के धुंधला होने का सबूत चश्मा और बदन में महज लंगोटी युवाओं को रोमांचित करता है यह कल्पना करने के लिए कि एक इतना कमजोर दिखने वाला शख्स आखिर इतनी बड़ी साम्राज्यवादी ताकत को हिलाया कैसे? या फिर वाकई गांधी के दर्शन में ऐसा कुछ है जिसके अर्थ धीरे-धीरे खुल रहे हैं और युवा इससे अभिभूत हो रहे हैं। कुछ दशकों पहले गांधी के बारे में सोचा जा रहा था कि जैसे-जैसे भूमंडलीकरण बढ़ेगा, जीवन का तकनीकीकरण, उपभोक्तावाद बढ़ेगा गांधी की याद धंुधली पड़ती जाएगी। मशहूर वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने लिखा था कि एक समय आएगा जब लोग यह विश्वास नहीं कर सकेंगे कि एक समय हाड़-मांस का चलता-फिरता यह शख्स इस पृथ्वी पर था। हर गुजरते दिन के साथ गांधी की मौजूदगी बढ़ती ही जा रही है। पहले गांधी हिंदुस्तान तक थे अब गांधी पूरी दुनिया में फैल गए हैं।


भूमंडलीकरण के दौर में गांधी सार्वभौमिक हो गए हैं। यह अकारण नहीं है कि ओबामा से लेकर एंजेला मर्केल और कोफी अन्नान से लेकर डेविड कैमरून तक अपने भाषण में गांधी का उल्लेख करते हैं। ओबामा ने शपथ लेते समय सबसे ज्यादा बार गांधी को याद किया। जिस गांधी को कभी कांग्रेस ने जीते जी भुला देने की, अनदेखी करने की कोशिश की थी आज वही गांधी दुनिया को झकझोर रहे हैं। दरअसल पूंजीवाद के संकट ने गांधी को ज्यादा प्रासंगिक बना दिया है। पूंजीवाद के मौजूदा संकट से स्पष्ट हो गया है कि यह महज पूंजी का संकट नहीं है, बल्कि यह विचारधराओं का भी संकट है। आज दुनिया में कोई ऐसी बड़ी विचारधारा नहीं बची जिससे लोगों को सहारा मिले। समाजवाद के पतन और पूंजीवाद के संकट से भविष्य को लेकर असुरक्षा पैदा हो गई है। जब बड़ी विचारधाराएं मौजूद होती हैं तो लोगों में समर्पण, त्याग, आत्मोसर्ग की भावना रहती है, लेकिन जब विचारधाराएं समाज के लिए और अर्थव्यवस्था के लिए पतन का कारण बन जाती हैं तो इनसे वैयक्तिक और सामूहिक दोनों तरह के विश्वास हिल जाते हैं।


पूंजीवाद के साथ यही हुआ है और समाजवाद को पहले से ही पूंजीवाद ने रास्ते से बाहर कर दिया था। गांधी के अगर समूचे व्यक्तित्व को देखें तो वह बेहद पारंपरिक हैं। अगर उन्हें पढ़ने का जोखिम उठाएं तो लगेगा कि वह तकनीकीकरण, मशीनीकरण और आधुनिक किस्म के जनतंत्र के विरोधी हैं, लेकिन जब गहरे उतरकर देखते हैं तब पता चलता है कि उनका विरोध इनसे नहीं, बल्कि समाज को किनारे करने से है। वह तकनीक के जरिये समाज में पैदा होने वाले विचलन के विरोधी हैं। गांधी बड़े पैमाने पर पूंजी के भी विरोधी हैं। उनकी नजर में बड़ी पूंजी अपने आपको और बड़ा बनाने की फिराक में रहती है और उससे पूंजी के बहाव का एक बेहद अनियंत्रित क्रम शुरू हो जाता है। हकीकत में ऐसा ही होता है। बड़ी पूंजी और मशीनीकरण के विरोध के पीछे भावना है कि समाज ज्यादा समरस, ज्यादा एकजुट, ज्यादा संपन्न और ज्यादा आत्मनिर्भर बने। जब तक समाजवाद नई चमक बिखेर रहा था और पूंजीवाद नई ऊंचाइयां हासिल कर रहा था तब तक गांधी के विचार अप्रासंगिक लग रहे थे, लेकिन अब जब समाजवाद मौजूद नहीं है और पूंजीवाद संकट में फंसा है तो गांधी की एक सदी पहले की प्रगतिहीन बातें बेहद मानवीय, बेहद सामाजिक और बेहद भविष्यकालिक लगने लगी हैं। आज भले बहुत खुलकर यह बात सामने न आ रही हो, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि यूरोप और अमेरिका में जो मंदी गहरी होती जा रही है उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ एक ही कारण है वह है पूंजी का संकेंद्रण।


ब्रिटेन में गरीब और अमीर के बीच का फासला 60:1 का हो गया है यानी गरीब अमीर से 6000 फीसदी ज्यादा गरीब है। भारत में भी भविष्य में यही होने के आसार बन रहे हैं। भले अमेरिका के पास दुनिया को छह बार पूरी तरह से तहस-नहस कर डालने के हथियार हों, लेकिन हकीकत यह है कि आज एक करोड़ 80 लाख अमेरिकियों के पास दिनभर खर्च करने के लिए महज 20 डॉलर हैं। अमेरिका में 80 लाख लोग पूरी तरह से गरीब हैं। एक करोड़ 90 लाख या तो बेरोजगार हैं या आंशिक बेरोजगार हैं। आधुनिक तकनीकी समीकरण पर आधारित लोकतंत्र के भी गांधी विरोधी हैं और इन तमाम मामलों में मौजूदा दुनिया की सफलताएं गांधी के पक्ष में खड़ी होती हैं। इसीलिए चाहे नाम जेपी का हो, तस्वीर अन्ना की हो मगर लोग उसे महसूसते गांधी ही हैं। गांधी का इस देश में भले भौतिक पुनर्जन्म न हुआ हो मगर अन्ना के आंदोलन और जेपी की याद को देखें तो गांधी का फिर से जन्म हुआ है और शायद इस बार वह पहले से ज्यादा मजबूत कद काठी के होंगे, भले चलते-फिरते न दिखें।


लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh