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मुल्लापेरियार बांध पर अपने-अपने तर्क

जागरण मेहमान कोना
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केरल के इडुक्की जिले के वल्लाक्कडावू गांव में जैसे ही आप प्रवेश करते हैं तो सामने ही एक बैनर नजर आता है, जिस पर लिखा है- स्वागत है आपका, मौत का चेहरा देखने के लिए। यह मुल्लापेरियार बांध के एक तरफ की कहानी है, जहां लगभग 1100 परिवार मौत की आशंका से भयभीत और गमगीन हैं। लेकिन जब आप बांध के दूसरी तरफ लगभग 40 किलोमीटर का फासला तय करके तमिलनाडु के सुरूलीपट्टी गांव में पहुंचते हैं तो किसानों को मुल्लापेरियार बांध से निकल रहे पानी से खेतों की सिंचाई करते हुए देखते हैं। यह पानी उनके लिए जीवनरेखा है और बिना इस बांध से निकले पानी के उनका जीवन लगभग असंभव है। जहां वल्लाक्कडावू में मंडराती मौत के खौफ से जमीन की कीमत 75 हजार रुपये प्रति सेंट (एक एकड़ का सौवां हिस्सा) से घटकर मात्र 10 हजार रुपये प्रति सेंट रह गई है। लोग गांव छोड़कर सुरक्षित स्थानों पर भागना चाहते हैं। दरअसल, उन्हें डर है कि अगर बांध टूटता है तो 10 मिनट में उनका गांव जल मग्न हो जाएगा, लेकिन जमीन की इतनी कम कीमत मिल रही है कि दूसरी जगह इतने पैसे में मकान बनाना संभव ही नहीं है। वहीं सुरूलीपट्टी के लगभग 2,900 परिवारों का जीवन और उनका रोजगार मुल्लापेरियार बांध के पानी से जुड़ा है। अगर पानी का स्तर कम हो जाता है तो इस गांव में भुखमरी फैल जाएगी। इस गांव को प्रतिदिन 3.60 लाख लीटर पानी चाहिए, जो बांध ही सप्लाई कर सकता है। इन दो परस्पर विरोधी तस्वीरों से स्पष्ट हो जाता है कि मुल्लापेरियार बांध पर विवाद केवल फिल्म डैम 999 को लेकर ही नहीं है, बल्कि उसके इधर-उधर बसे केरल और तमिलनाडु राज्यों को वास्तव में अपनी अपनी जानों की चिंता हो रही है। मगर अलग-अलग कारणों से। चूंकि इस बांध पर दोनों राज्यों में राजनीति भी हो रही है, इसलिए सही बात खुलकर सामने नहीं आ रही है। कुछ झूठ पर और कुछ सच पर जनता के अनुमान पनप रहे हैं और उनमें भय उत्पन्न हो रहा है।


केरल का डर केरल में डर है कि अगर मुल्लापेरियार बांध टूट जाता है, जैसे कि वर्ष 1979 में गुजरात का बांध टूटा था तो उनका क्या होगा? यह डर इसलिए भी है कि केरल ने जो 2008 और 2009 में विशेषज्ञ समितियां गठित की थीं, उन्होंने इस बांध को वॉटर बम बताया था, जो किसी भी समय फट सकता है। दूसरी ओर तमिलनाडु में इस बात का डर है कि अगर मुल्लापेरियार बांध को खत्म कर दिया जाता है तो उसके पानी से इंसानों, पौधों और जानवरों को जो जीवन मिल रहा है, उस पर विराम लग जाएगा। दोनों दृष्टिकोणों में से सही कौन-सा है? यह बता पाना कठिन है। पश्चिमी घाट की शिवागिरी पर्वत श्रंृखला से पेरियार नदी निकलती है और पश्चिम की ओर बहती है। इसी नदी के ऊपरी हिस्से पर जहां वह मुल्लायार नदी से मिलती है, एक बांध बना है। इसे ही मुल्लापेरियार बांध कहते हैं। पेरियार टाइगर रिजर्व क्षेत्र में पानी को एकत्र किया गया है, जो ठिक्कटडी झील बनाता है। पेरियार रिजर्व से निकलने वाले पानी का पहले लोअर पेरियार (तमिलनाडु) में विद्युत उत्पादन के लिए इस्तेमाल किया जाता है और फिर वह सुरूलीअर (जो वैगाई नदी की शाखा है) में बहता है। तमिलनाडु पेरियार पानी का इस्तेमाल लगभग 2.08 लाख हेक्टेयर भूमि को सींचने के लिए करता है। यह भूमि थैनी, डिंडीगुल, मदुरै, शिवगंगा और रामनाथपुरम की है।


बांध और अतीत के समझौते दरअसल, वर्ष 1886 में त्रावणकोर के महाराजा ने अंगे्रजी सरकार के साथ पेरियार लीज डीड पर हस्ताक्षर किए थे। अंगे्रजी सरकार त्रावणकोर के लिए पेरियार के पानी को बेकार का समझती थी और चाहती थी कि यह पानी तमिलनाडु के सूखे क्षेत्रों में चला जाए, लेकिन महाराजा ऐसा नहीं समझते थे और इसलिए डीड पर हस्ताक्षर करने के लिए 20 साल तक विरोध करते रहे। बहरहाल, 1895 में बांध का निर्माण किया गया। इसके बाद 1932 में तत्कालीन मद्रास सरकार हाइडल पॉवर जनरेट करना चाहती थी, जिसका विरोध त्रावणकोर ने किया। लेकिन 1959 में मद्रास ने यहां बिजली बनाना शुरू कर दिया। बाद में बिजली बनाने की क्षमता बढ़ाकर 140 मेगा वॉट कर दी गई।


दरअसल, इस बांध की सुरक्षा को लेकर विवाद वर्ष 1961 में शुरू हुआ। उस साल एक क्षेत्र में बाढ़ आई थी और मीडिया में यह खबरें आने लगी कि बांध सुरक्षित नहीं है। इसी को मद्देनजर रखते हुए केरल ने यह मुद्दा केंद्रीय जल आयोग के समक्ष रखा। फलस्वरूप वर्ष 1964 में केरल और तमिलनाडु ने बांध का संयुक्त निरीक्षण किया और जल स्टोरेज की ऊंचाई को 155 फीट से घटाकर 152 फीट कर दिया गया। इसके बाद फिर एक बार जल स्तर को घटाकर 136 फीट किया गया। यह 1980 की बात है। जाहिर है, जल स्तर कम करने से तमिलनाडु के लोग खुश नहीं थे और वे निरंतर प्रदर्शन करके जल स्तर बढ़ाने की मांग करते रहे। जबकि केरल जल स्तर बढ़ाने की मांग को ठुकराता रहा। इस प्रकार दोनों राज्यों के बीच बांध की स्टोरेज क्षमता और सुरक्षा को लेकर विवाद शुरू हुआ, जो अब तक चल रहा है। इसी के चलते केरल और तमिलनाडु के उच्च न्यायालयों में लिखित याचिकाएं भी दायर की गई। इन याचिकाओं को वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट को ट्रांसफर कर दिया गया। साथ ही केंद्र ने एक विशषज्ञ समिति गठित की, यह जानने के लिए कि बांध सुरक्षित है या नहीं और अगर सुरक्षित है तो इसका जल स्तर कितना होना चाहिए? सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में तमिलनाडु को जल स्तर 142 फीट करने की अनुमति दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि बांध के मजबूतीकरण कार्य के पूरा होने के बाद जल स्तर को 152 फीट किया जा सकता है, अगर विशेषज्ञ समिति निरीक्षण के बाद इसका प्रस्ताव रखे। लेकिन मार्च 2006 में केरल विधानसभा ने राज्य सिंचाई व जल संरक्षण कानून-2003 में संशोधन करके मुल्लापेरियार बांध को खतरनाक बांधों की सूची में शामिल कर दिया और जल स्तर को फिर से 136 फीट पर कर दिया। उस समय से अब तक असल मुद्दा बांध की सुरक्षा को लेकर बना हुआ है।


केरल की मांग, तमिलनाडु का हठ दरअसल, केरल चाहता है कि मौजूदा बांध को तोड़कर एक दूसरा बांध तैयार करा दिया जाए, भले ही उसका नियंत्रण तमिलनाडु के पास रहे और वही उसके पानी का इस्तेमाल करे। इसलिए वर्ष 2007 में केरल मंत्रिमंडल ने नए बांध पर शुरुआती काम करने की अनुमति दे दी। इसके विरोध में तमिलनाडु ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। फलस्वरूप सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2010 में एक समिति का गठन किया, जो बांध की सुरक्षा का अध्ययन कर रही है। लेकिन इससे पहले 2008 में आइआइटी दिल्ली और 2009 में आइआइटी रुड़की के विशेषज्ञों ने अपनी अपनी रिपोर्ट में कहा कि मुल्लापेरियार बांध असुरक्षित है, वह भूकंप क्षेत्र में है और किसी बडे़ भूकंप का सामना नहीं कर पाएगा। हाल ही में जब इस क्षेत्र में भूकंप के झटके महसूस किए गए तो केरल ने नवंबर 2011 में केंद्र से हस्तक्षेप करने को कहा, ताकि जलस्तर को 120 फीट किया जा सके। जबकि तमिलनाडु जलस्तर को 136 से बढ़ाकर 142 फीट करना चाहता है। और इस स्तर को बढ़ाने-घटाने के बीच में वल्लाक्कडावू और सुरूलीपट्टी के लोग पिस रहे हैं।


लेखिका वीना सुखीजा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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