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पिछले कुछ सप्ताह से देश के शेयर बाजारों में अफरा-तफरी का माहौल बना हुआ है। बंबई शेयर बाजार (बीएसई) का संवेदी सूचकांक (सेंसेक्स) 8 जुलाई 2011 के स्तर 19,084 से लुढ़कता और चढ़ता हुआ 23 सितंबर 2011 तक 16,162 स्तर तक पहुंच गया। उसी तरह से रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर होता हुआ 11 जुलाई 2011 को 44.37 रुपये प्रति डॉलर के स्तर से 23 सितंबर 2011 को 49.67 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया। निवेशकों को लाखों करोड़ रुपये का नुकसान अभी तक हो चुका है और इस वजह से देश के बाजारों में भारी आशंका का माहौल बना हुआ है। हालांकि मांग में कुछ घट-बढ़ के अपवाद को छोड़ दिया जाए तो देश की अर्थव्यवस्था में किसी भी कमजोरी का कोई संकेत नहीं है। इस वर्ष भी जीडीपी की वृद्धि दर 7.5 से 8.0 के बीच रहने का अनुमान है। विशेषज्ञों के बीच भी इस बात में कोई संशय नहीं है कि देश के शेयर बाजारों और रुपये में आई गिरावट अंतरराष्ट्रीय कारणों से है। बढ़ते कर्ज और देनदारियों को चुकाने की मुश्किल के चलते अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई गिरावट और ग्रीस सरकार द्वारा अपने ऋण की अदायगी में संभावित कोताही एवं यूरोप के अन्य देशों की बढ़ती मुश्किलें हमारे देश के शेयर बाजारों पर असर डाल रही हैं और साथ ही रुपया भी कमजोर हो रहा है।
अमेरिका-यूरोप का आर्थिक संकट पिछले लगभग चार सालों से अमेरिका और यूरोपीय देश आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। जब 1930 के दशक की भयंकर मंदी के बाद पहली बार पूंजीवादी विकसित देषों पर एक और मंदी की मार पड़ी, तो ऐसा माना जा रहा था कि अमेरिका और यूरोप के देष अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर स्वयं को मंदी से उबार पाने में सफल हो जाएंगे। इन देशों ने अपनी आर्थिक ताकत के आधार पर खरबों डॉलर के आर्थिक पैकेज देकर इस मंदी पर विजय पाने का प्रयास भी किया। अमेरिका और यूरोप की सरकारों के आर्थिक पैकेजों के चलते शुरुआत में ये अर्थव्यवस्थाएं मंदी से कुछ उबरती दिखाई दीं और वहां बेरोजगारी में थोड़ी-बहुत कमी भी दिखाई दी। वित्तीय संस्थानों में भी कुछ सुधार दिखाई दिया, लेकिन पिछले कुछ माह से मंदी का दानव फिर से सिर उठाने लगा है। दुनिया के जाने-माने आर्थिक मामलों के जानकार अमेरिका में इस मंदी के गहराने की भविष्यवाणी कर रहे हैं। उनका मानना है कि यह मंदी पिछली मंदी से भी अधिक भयंकर हो सकती है।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नोरियल रोबिनी और रोबर्ट शिलर ने भविष्यवाणी की है कि अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्था में भारी गिरावट आ सकती है। उधर, रोजर्स होल्डिंग्स के संस्थापक जिम रोजर्स का मानना है कि अमेरिका की आर्थिक रेटिंग में भारी कमी हो सकती है। विशेषज्ञों की आशंकाएं अर्थशास्ति्रयों का मानना है कि वर्ष 2011-12 या 2013 में संभावित यह मंदी पहले से कहीं ज्यादा भयंकर होगी, क्योंकि तीन वर्ष पहले आई मंदी से निपटने के लिए अमेरिका ने अपने तरकश के सभी तीर इस्तेमाल कर लिए हैं। करेंसी छापने और पैसा खर्च करने से लेकर तमाम मौद्रिक और राजकोषीय उपाय अपनाए जा चुके हैं। आने वाले समय में संभावित मंदी से निपटने के लिए अमेरिका के पास बहुत उपाय नहीं बचेंगे। ताजा आंकड़ों के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी स्टैंडर्ड एंड पुअर्स द्वारा अमेरिका की साख की रेटिंग की गई है। हालांकि यह स्वभाविक ही है, लेकिन इससे अमेरिकी नीति-निर्माताओं की मुश्किलें बढ़ने वाली हैं। ओबामा प्रशासन अमेरिकी अर्थव्यवस्था का एक सुनहरा चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास कर ही रहा था कि रेटिंग की इस गिरावट ने उनकी किरकिरी कर दी है। रेटिंग की इस कमी के चलते अमेरिका को उपाय करने होंगे और ब्याज दर भी बढ़ानी होगी। इससे पहले से ही मंदी की चपेट में अर्थव्यवस्था पर भारी असर पड़ सकता है।
22 सितंबर 2011 को अमेरिकी सरकार द्वारा अपने लघुकालीन ऋणों को दीर्घकालीन ऋणों में बदलने की कवायद में जब वैश्विक बाजारों में लिक्विडिटी प्रभावित होने की आशंका हुई तो दुनिया के शेयर बाजारों में रिकॉर्ड गिरावट आई, जिसके चलते भारत के शेयर बाजार भी औंधे मुंह जा गिरे। दूसरी ओर ग्रीस सरकार द्वारा अपने कर्ज को चुकाने के लिए अपने एक हवाई अड्डे को ही बेचने और ऋणदाताओं द्वारा ग्रीस सरकार के खर्चे पर लगाम लगाने की शर्तो आदि की खबरों ने दुनिया के बाजारों को बैचेन किया है। ऐसी स्थिति में भारत सहित दुनिया के दूसरे देशों में घबराहट का बढ़ना स्वाभाविक है, लेकिन हमें पूरी स्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा कि क्या दीर्घकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था भी वैश्विक मंदी से प्रभावित होगी? डॉलर-रुपये का पेच वर्ष 2007-08 में भी ऐसी स्थिति बनी थी, शेयर बाजार औंधे मुंह गिरे थे। रुपया भी गंभीर रूप से कमजोर हुआ था, लेकिन उस साल भी भारत की आर्थिक वृद्धि की दर 7 प्रतिशत रही थी और आने वाले सालों में यह 8 प्रतिशत को भी पार कर गई थी। रुपया पहले 51 रुपये तक गिरकर फिर मजबूत होता हुआ 44 रुपये प्रति डॉलर तक पहुंच गया था। ऐसा इसलिए हुआ कि वैश्विक मंदी के चलते हमारे निर्यात थोड़े बहुत घटे, लेकिन हमारे आयातों में भी कमी आई। विदेशी मांग की कमी की भरपाई देसी मांग ने कर दी।
देश की अर्थव्यवस्था निरंतर आगे बढ़ती रही, जबकि विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाएं 2 प्रतिशत की दर से नीचे जा रही थी। भारत के लिए चुनौती हमें समझना होगा कि सेंसेक्स अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर नहीं है। कभी सेंसेक्स 3 प्रतिशत नीचे जाता है तो अगले कुछ दिनों में फिर से 3-4 प्रतिशत ऊपर चला जाता है। ऐसे में यह नहीं समझना चाहिए कि अर्थव्यवस्था 3 प्रतिशत घट गई या 3-4 प्रतिशत बढ़ गई। सेंसेक्स का ऊपर-नीचे जाना विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा मजबूरी में देश से विदेशी मुद्रा का बर्हिप्रवाह करना है। जब विदेशी संस्थागत निवेशकों के लिए दुनिया के दूसरे शेयर बाजारों में संकट आता है तो वे भारत के शेयर बाजारों से अपना पैसा निकाल बाहर भेजते हैं। ऐसे में शेयर बाजार तो गिरता ही है, रुपये का मूल्य भी गिर जाता है। ऐसे में जब वे दुनिया के दूसरे बाजारों से पैसा निकालकर दोबारा भारत में ले आते हैं तो शेयर बाजार फिर से सुधर जाता है। यह सही है कि रुपये का मूल्य गिरने के कारण देश में आयातित वस्तुएं महंगी होंगी और महंगाई बढ़ेगी, लेकिन यह बहुत दिन नहीं चलेगा। रोजमर्रा के शेयर बाजारों के उतार-चढ़ाव से आशंकित होने की बजाए नीति निर्माताओं को विदेशी व्यापार एवं निवेश पर अपनी नीतियों में सुधार करना होगा। आयातों पर अपनी निर्भरता कम और निर्यात संवर्द्धन के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। विदेशी संस्थागत निवेशक जो कभी भी भारत से अपना पैसा निकालकर विदेशों को स्थानांतरित कर देते है, उन पर न्यूनतम तीन वर्ष का लॉक इन पीरियड का प्रावधान करना होगा और उनके मुनाफे पर ऊंची दर पर टैक्स भी लगाने होंगे।
लेखक अश्विनी महाजन आर्थिक मामलों के जानकार हैं
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