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क्या म्यांमार में लौटेगा लोकतंत्र

जागरण मेहमान कोना
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लगभग दो दशक तक नजरबंद रहने के बाद 66 वर्षीय नोबेल शांति पुरस्कार विजेता आंग सांग सू की म्यांमार की संसद में प्रवेश करेंगी। गौरतलब है कि पिछले पांच दशक से म्यांमार में सेना ही शासक बनी हुई है। इसलिए यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या आंग सांग सू की की जीत से इस देश में लोकतंत्र की बहाली का मार्ग प्रशस्त होगा? बीते 1 अपै्रल को म्यांमार में 664 सीटों वाली संसद की खाली पड़ी 45 सीटों के लिए उपचुनाव हुआ। हालांकि इन सभी सीटों पर सू की के समर्थक जीत भी हासिल कर लेते तो भी नई सरकार में सत्ता संतुलन में कोई परिवर्तन नहीं आता। वैसे म्यांमार की सरकार सिविलियन है, लेकिन यह स्थिति केवल नाम के लिए है, क्योंकि सरकार का नियंत्रण रिटायर्ड जनरलों के हाथ में है। सू की और अन्य विपक्षी उम्मीदवारों का सरकार में कोई दखल या असर नहीं होगा, लेकिन सू की के सांसद बनने से जनता में उम्मीद की एक नई किरण दौड़ी है। आवाम को लगता है कि सू की के सांसद बनने से राष्ट्रीय आम सहमति की प्रक्रिया आरंभ हो जाएगी और जनता को कठोर सैन्य शासन से कुछ राहत अवश्य मिलेगी। यही कारण है कि सू की जीत पर जनता में जबरदस्त जोश और उत्साह दिखाई दे रहा है। इसमें शक नहीं है कि नजरबंद रहने पर भी सू की म्यांमार में सैन्य दमन के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरणा का स्त्रोत रहीं। अब वह अपने देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की कगार पर हैं, लेकिन उन्हें अपने इस प्रयास में अनेक अपरिचित चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। सू की को न केवल निचले सदन में ऐसे लोगों से घिरा रहना पड़ेगा, जिनमें से अधिकतर उनके विरोधी हैं, बल्कि सुधारवादी राष्ट्रपति थीन सीन से भी अपने संबंधों को विकसित करना होगा।


साथ ही उन्हें उस आवाम की उम्मीदों पर भी खरा उतरना होगा, जो परिवर्तन के लिए बेचैन है और दशकों से अकेलेपन, गरीबी और खराब सैन्य शासन को बर्दाश्त कर रहा है। इस बात का अनुमान लगाया जा रहा है कि सू की को सेना समर्थित सरकार में कोई भूमिका दी जाएगी। हालांकि उन्होंने मंत्री पद लेने से इनकार कर दिया है, क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें संसद में अपनी सीट छोड़नी पड़ेगी। पत्रकारों से बात करते हुए सू की ने कहा था, संसद छोड़ने का मेरा कोई इरादा नहीं है, क्योंकि इसमें प्रवेश करने के लिए मैंने बहुत कठिन मेहनत की है। लेकिन इसी के साथ उन्होंने ऐसे संकेत भी दिए हैं कि वह म्यांमार के देसज टकराव को सुलझाने के लिए अपनी सेवाएं प्रदान कर सकती हैं। उनके अनुसार, मैं उनमें से एक होना चाहती हूं, जो इस देश को एक करने का प्रयास कर रहे हैं..। इस तरह से कि सभी देसज समुदाय आपस में शांति और खुशी के साथ मिलकर रहें। दरअसल, आवाम की उम्मीदों को राजनीतिक हकीकत में बदलना एक बड़ी चुनौती है। म्यांमार जैसे गरीब देश में ऐसा करने का अर्थ है लोगों को इतना सक्षम बनाना कि उन्हें रोटी मिलने लगे। वे अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने लगें और अपने स्वास्थ की देखभाल कर सकें। जाहिर है, यह असंभव नहीं तो कठिन काम अवश्य है। मात्र 17 माह पहले तक सू की नजरबंद थीं और उनकी पार्टी पर प्रतिबंध था। उन्होंने जो तेजी से बंदी से सांसद होने तक का सफर तय किया है, वह राष्ट्रपति थीन सीन की सुधार प्रक्रिया पर साहसिक सहमति का नतीजा है।


हालांकि वह इस प्रक्रिया की आलोचक भी हैं। दिलचस्प बात यह है कि यह काम सू की ने उस नैतिक अधिकार से समझौता किए बगैर किया है, जो संपूर्ण म्यांमार में उन्हें प्राप्त है। सू की का जन्म 19 जून 1945 को रंगून (अब यौंग) में जनरल आंग सांग के घर में हुआ था, जो म्यांमार की आजादी के निर्विवाद हीरो थे। लेकिन म्यांमार (तब बर्मा) की आजादी से मात्र छह माह पहले जुलाई 1947 में जनरल सांग की हत्या कर दी गई। बहरहाल, 1960 में सू की नई दिल्ली में राजनीति शास्त्र का अध्ययन करने के लिए आ गई, क्योंकि उनकी मां को भारत में म्यांमार का राजदूत नियुक्त कर दिया गया था। सू की ने 1972 में ब्रिटेन के प्रोफेसर माइकल ऐरिस से विवाह किया और उनके दो पुत्र एलेक्जेंडर और किम पैदा हुए। अपै्रल 1988 में वह वापस यौंग आ गई ताकि अपनी बीमार मां की देखभाल कर सकें। अगस्त 1988 में हुआ यह कि लोकतंत्र के लिए प्रदर्शन करने वालों पर सुरक्षाबलों ने गोलियां चलाई, जिसमें सैंकड़ों लोग मारे गए। अपने देशवासियों को इंसाफ दिलाने के लिए सू की ने सितंबर 1988 में राजनीतिक पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोके्रसी का गठन किया, लेकिन 1989 में जुंटा ने मार्शल लॉ की घोषणा कर दी और सू की को नजरबंद कर दिया। हालांकि 1990 में उनकी पार्टी ने आम चुनावों में जीत दर्ज की, लेकिन सेना ने नतीजों को मानने से इनकार कर दिया। अपने संघर्ष के लिए सू की को 1991 में शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया। सू की की गतिविधियों पर पाबंदी लगाते हुए सेना ने 1995 में उन्हें नजरबंदी से मुक्त कर दिया। सेना का खौफ इतना ज्यादा था कि 1999 में जब सू की के पति का निधन हुआ तो उन्होंने अंतिम संस्कार के लिए इंग्लैंड जाने से इनकार कर दिया, क्योंकि उन्हें शक था कि सेना उन्हें वापस म्यांमार में घुसने नहीं देगी।


जनता के लिए उनके समर्पण का नतीजा यह निकला कि 2000-02 में उन्हें फिर नजरबंद कर दिया गया। जब मई 2003 में उनकी पार्टी और सेना के बीच संघर्ष हुआ तो उन्हें फिर जेल में डाल दिया गया। हालांकि सितंबर 2003 में इलाज के लिए सू की को घर लौटने दिया गया, लेकिन प्रभावी नजरबंदी के साथ। मई 2007 में उनकी नजरबंदी एक वर्ष के लिए और बढ़ा दी गई। सितंबर 2007 में सू की को 2003 के बाद पहली बार जनता के सामने आने दिया गया और वह प्रदर्शनकारी बौद्ध भिक्षुओं से मिलीं, लेकिन मई 2008 में उनकी नजरबंदी एक वर्ष के लिए और बढ़ा दी गई। मई 2009 में जब एक अमेरिकी झील पार कर उनके कंपाउंड तक पहंुच गया तो सू की पर नजरबंदी नियमों को तोड़ने की धाराएं लगाई गई। नतीजतन अगस्त 2009 में सू की को 18 माह की नजरबंदी की सजा सुनाई गई। नवंबर 2010 में सू की को नजरबंदी से मुक्त किया गया, लेकिन उस साल गड़बड़ी के आरोपों के तहत जुंटा समर्थक पार्टी ने चुनावों में जबरदस्त विजय हासिल की। यह चुनाव 20 वर्ष में पहली बार हुए थे। बावजूद इसके सू की की ख्याति बढ़ती गई और 2011 में उन पर बनी हॉलीवुड फिल्म द लेडी रिलीज हुई। इस फिल्म में सू की की भूमिका मलेशिया की अभिनेत्री मिशेल यीह ने निभाई है। अपै्रल 2012 में सू की ने पहली बार संसद के लिए चुनाव लड़ा। इस संघर्ष गाथा से स्पष्ट है कि अपने देश को सैनिक शासन से मुक्त कराने और लोकतंत्रा बहाल करने के लिए सू की ने अपना सब कुछ समर्पित कर दिया है। अब वह ऐसे मुकाम पर ,हैं जहां उन्हें बहुत सोच-समझकर कदम रखना है ताकि दशकों का संघर्ष बेकार न चला जाए। हालांकि अमेरिका म्यांमार में सुधार प्रयासों का समर्थन कर रहा है, लेकिन जंुटा पर पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय दबाव डालने की आवश्यकता है ताकि म्यांमार की जनता लोकतंत्र में सांस लेते हुए आर्थिक प्रगति के पथ पर आ जाए।


लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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