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म्यांमार से नाजुक रिश्ते

जागरण मेहमान कोना
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म्यांमार की विपक्षी नेता आंग सान सू की की भारत यात्रा उस दुविधा और धुंध को छांटने में मदद करेगी जो पिछले दो दशकों से द्विपक्षीय संबंधों पर छाए हुए हैं। म्यांमार से संबंध सुधारने में कई किंतु-परंतु लगे हुए हैं। म्यांमार के संबंध में हमें दो चीजों का विशेष ध्यान रखना जरूरी है। एक का संबंध हमारे अतीत से है और दूसरे का वर्तमान से। अतीत में म्यांमार (उन दिनों बर्मा) भारत का एक राज्य रहा है। अंग्रेजों ने उसे वृहत्तर ब्रिटिश भारत का हिस्सा बनाया था, लेकिन 1937 में अंग्रेजों ने ही उसे भारत से अलग देश के रूप में पहचान दी। इसलिए भारत का म्यांमार के साथ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध है, लेकिन उससे भी ज्यादा म्यांमार का भारत के लिए महत्व वर्तमान नजरिये से है। पिछले दो दशकों में जब पूरी दुनिया म्यांमार को फौजी शासन के चलते अलग-थलग करने में जुटा था, अकेला चीन ही था जो म्यांमार के सैनिक शासकों के साथ अपने संबंध बेहतर बना रहा था। यही नहीं दुनिया से म्यांमार के अलग-थलग पड़ जाने का चीन ने खूब फायदा उठाया। उसने अपने कारोबारी और राजनीतिक पक्ष को मजबूत किया ही, म्यांमार के साथ कई रणनीतिक समझौते करके भारत की सुरक्षा के लिए भी नई तरह की चिंताएं पैदा कीं। ऐसा नहीं है कि भारत इस सबसे अंजान था, लेकिन भारत के साथ गहरी दुविधा यह थी कि हम खुद लोकतंत्र हैं और सैद्धांतिक रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के समर्थक हैं।


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इसलिए म्यांमार के सैनिक शासकों को हमारा समर्थन देना अटपटा ही लगता। यहां तक कि हमारी इस संबंध में तटस्थता भी पूरी दुनिया को अखरी है। दरअसल, भारत के द्विपक्षीय हित म्यांमार के साथ सघन और दोस्ताना रिश्तों में है। लेकिन म्यांमार के फौजी शासकों ने 1988 में जिस तरीके से लोकतांत्रिक आंदोलनकारियों का दमन किया था, उसके बाद उनकी आलोचना न करना, उन्हें गलत न ठहराना, भारत के समूचे लोकतांत्रिक सिद्धांत का मखौल था। म्यांमार को लेकर भारत ने बहुत सधे हुए कदम बढ़ाए। आज भारत म्यांमार के लोकतांत्रिक आंदोलन का समर्थक होते हुए भी म्यांमार के विश्वस्त सहयोगियों में से बना हुआ है। म्यांमार से संबंध सुधारने का सिलसिला 1987 से ही शुरू हो गया था जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, लेकिन अगले ही साल म्यांमार की फौजी सत्ता ने लोकतंत्र समर्थकों का इतनी क्रूरता से दमन किया कि उसे आंख मूंदकर देखते रहना और कान बंद करके सुनते रहना, संभव नहीं था। भारत ने म्यांमार की जरूरी आलोचना की और जाहिर है म्यांमार भारत की बजाय चीन के ज्यादा नजदीक हो गया। 1989 के चुनाव में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (नेलीफाडे) जोरदार जीत के बाद म्यांमार के फौजी जुंट्रा ने सत्ता का हस्तांतरण नेलीफाडे की मुखिया आंग सान सू की को नहीं किया। उल्टे उन्हें गिरफ्तार करके नजरबंद कर लिया। जिस कारण पूरे म्यांमार में आंदोलनों का जबरदस्त सिलसिला नए सिरे से शुरू हो गया, जिसका रह-रहकर फौजी सत्ता दमन करती रही। मगर न तो लोकतांत्रिक समर्थक म्यांमार की सरकार को उखाड़ पाए और न ही म्यांमार की फौजी सत्ता लोकतंत्र समर्थकों को ही नेस्तनाबूद कर सकी।


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भारतीय लोकतंत्र के लिए यह एक जबरदस्त चुनौती थी कि एक तरफ लोकतंत्र का समर्थन भी करना था और दूसरी तरफ अपने राष्ट्रीय हित भी देखने थे। इसी वजह से नरसिम्हा राव, इंद्रकुमार गुजराल और बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने म्यांमार के साथ नए सिरे से संबंधों को मजबूत बनाने की कोशिश शुरू की। नए सिरे से भारत और म्यांमार के बीच रिश्ते मजबूत होने लगे। भारत और म्यांमार के बीच सांस्कृतिक संबंधों का जो ऐतिहासिक आधार है, उसके चलते भी भारत को इस संबंध में मदद मिली। फिर भारत म्यांमार के लिए आर्थिक दृष्टि से बहुत सुविधाजनक बाजार है।


लेखक लोकमित्र स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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Tags:Rajiv Gandhi, Congress, Myanmar, India, Burma, Politics, म्यांमार , ब्रिटिश,  भारत , डेमोक्रेसी , राजीव गांधी

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