- 1877 Posts
- 341 Comments
भारतीय जनता पार्टी संभावनाओं का अंदाजा लगा रही है। उसे मालूम है कि चुनाव अभी दूर है, लेकिन वह पता करना चाहती है कि क्या हिंदुत्व वोटरों को स्वीकार्य होगा। गुजरात के मुस्लिम विरोधी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम उछाल कर भाजपा यह जानना चाहती है कि उनकी गैर-धर्मनिरपेक्ष छवि सामान्य हिंदू वोटरों को आकर्षित करेगी या नहीं। पार्टी अभी तक 2004 संसदीय चुनाव में मिली हार से उबर नहीं पाई है। उस चुनाव में भाजपा के सत्ता में आने में पूरी संभावना थी, लेकिन सांप्रदायिकता के दाग ने उसके मंसूबे पर पानी फेर दिया था। उसकी हिंदुत्व की छवि के कारण कांग्रेस को फिर से सत्ता मिल गई। भाजपा ने इस बार विकल्पों को खोल रखा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही इस मामले से जुड़ा हुआ है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में नरेंद्र मोदी का न सिर्फ स्वागत किया, बल्कि यह घोषणा भी की कि गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी में नरेंद्र मोदी का कद बढ़ाया जाएगा।
Read:के.आर. नारायणन- एक दलित का राष्ट्रपति बनना
इससे इस बात की एक बार फिर पुष्टि हो गई कि भाजपा पर वास्तविक नियंत्रण किसका है। हालांकि पार्टी नेताओं के अपमान को कम करने के लिए भागवत ने यह जरूर कहा कि प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का चयन करना पार्टी का काम है। ब्रिटेन ने हाल ही में कहा है कि वह मोदी के कामों का समर्थन नहीं करता, फिर भी वह उनके साथ रिश्ता बनाना चाहता है। ब्रिटेन के ऐसा कहने मात्र से लोगों की नजर में मोदी की छवि स्वच्छ नहीं हो जाएगी। ब्रिटेन ने अपने उच्चायुक्त जेम्स बिवन को मोदी के पास भेजकर पहल की है। जबकि पिछले एक दशक से वह मोदी के साथ अछूत वाला रिश्ता बनाए हुए था। आने वाले समय में अमेरिका या दूसरे देश भी इसका अनुसरण करेंगे। इसके बावजूद मुद्दे की बात यह है कि मोदी अभी भी भारत को स्वीकार्य नहीं हैं। मोदी ने पहचान के नाम पर गुजरात को झांसा दिया है। उन्होंने यह साबित करने की कोशिश की है कि गुजरात के लोग भारत के बाकी लोगों से अलग है।
अगर पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने ऐसा किया होता तो सारा देश उनके खिलाफ यह कहते हुए खड़ा हो जाता कि वे सिख अलगाववाद को उकसा रहे हैं। ऐसा लगता है कि गुजराती मोदी को फिर से चुन लेंगे। गुजराती पिछले करीब 15 सालों से देश को चुनौती देते आ रहे हैं कि संविधान के सिद्धांतों से बंधे राष्ट्र से ज्यादा महत्वपूर्ण राज्य सरकार है। गुजरातियों के लिए कानून के सामने सभी के बराबर होने और सरकार और राजनीति को अलग रखने की बात महज कागज पर रह गई है, क्योंकि उनके मुख्यमंत्री मोदी इन सिद्धांतों को ठेंगा दिखाने को उतारू रहे हैं। यह 2002 में साफ तौर पर दिखा था, जब करीब 2000 मुसलमानों को निर्दयतापूर्वक मार डाला गया था, क्योंकि उन्हें बराबरी का नहीं माना गया और धर्म और शासन में घालमेल करने का तरीका मोदी ने खोज निकाला। अगर 1984 के सिख विरोधी दंगे के दोषियों को सजा मिल गई होती तो गुजरात के हिंदू मुसलमानों की हत्या का दुस्साहस नहीं कर पाते।
गुजरात के दोषियों को अब तक सजा नहीं मिली है। कुछ मामले लंबित हैं, जिनमें मोदी के नाम का उल्लेख है। ऐसे में मोदी को भारत के अगले प्रधानमंत्री के रूप में पेश करना, देश को शर्म के गर्त में ढकेलने जैसा है। हत्या, दुष्कर्म और लूटपाट पर अपनी आंखें बंद कर लेने पर भी कोई पार्टी मोदी के नाम पर कैसे सोच सकती है? भाजपा को एक ऐसी जगह से चोट पहुंची है, जिसका उसे अंदेशा नहीं था। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर फर्जी फर्मों के मालिक होने का आरोप लगा है। गडकरी ने महाराष्ट्र का लोक निर्माण मंत्री रहते हुए इन फर्मो को पैसा बनाने के लिए बनाया था। आरोप इतने गंभीर हैं कि संघ सूत्रों ने भी कहा है कि इससे भाजपा की छवि बुरी तरह धूमिल हुई है। कांग्रेस को नया अवसर मिल गया है और उसने जांच का ऐलान भी कर दिया है। जो भी हो, अब भाजपा संसद में गरजने की स्थिति में नहीं रहेगी, जैसा कि पिछले सत्र में गरज रही थी। इसकी साफ होने की छवि को गहरा धक्का लगा है।
पार्टी को अगले चुनाव में गडकरी प्रकरण का दंश झेलना पड़ेगा। इसलिए भाजपा को खुद को सिर्फ इस आकलन तक सीमित नहीं करना होगा कि मोदी का नाम उछालने से उनके पक्ष में हवा बह रही है या नहीं। और भी कई मुद्दे हैं, जिनका विपक्ष इस्तेमाल करेगा। भ्रष्टाचार अब तक कांग्रेस से जुड़ा मुद्दा था, लेकिन इसका जवाब उसे जिस पार्टी को देना था, वही अब कठघरे में है। वोटरों को भरमाने के लिए एक के खिलाफ दूसरे घोटाले उछाले जाते रहेंगे। जहां तक हिंदुत्व का सवाल है, तो अपनी तमाम विफलताओं और कमजोरियों के बावजूद भारत एक ऐसा देश है जिसे समन्वय और सहिष्णुता की अपनी भावनाओं पर गर्व है। दुर्भाग्यवश सांप्रदायिक दंगे आज भी होते हैं। हालांकि वे उस पैमाने पर नहीं होते, जिस पैमाने पर पिछली सदी में होते थे, लेकिन देश इतना संवेदनशील है कि वह सिर्फ धर्म बेचने वालों को वापस आने का मौका नहीं दे सकता। पिछले छह दशकों में भारत पूरी तरह से एक लोकतांत्रिक बहुलवादी देश बन चुका है। बाकी जो कुछ भी शर्मनाक हुआ हो, लेकिन यह तो तय है कि देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं, धार्मिक नारे इसे उखाड़ नहीं सकते।
अस्थिर नहीं कर सकते। यह घिसी-पिटी बात लग सकती है, लेकिन हकीकत है कि बहुलवाद के बगैर कोई लोकतंत्र नहीं हो सकता। अफसोस की बात है कि भाजपा अब तक इस बुनियादी बात को नहीं समझ पाई है। भाजपा को याद रखना चाहिए कि जब केंद्र की सत्ता उसके हाथों में आई थी, तो उसे अपने सांप्रदायिक दांतों को तोड़ना पड़ा था और दूसरी बातों के अलावा कश्मीर को विशेष दर्जा देने के सवाल पर तथा अयोध्या में विध्वंस से पहले जिस जगह विवादित ढांचा था, वहां मंदिर नहीं बनाने का भरोसा दिलाना पड़ा था। वास्तव में, मोदी को खुद प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी उम्मीदवारी वापस ले लेनी चाहिए क्योंकि वह पद की गरिमा और भाजपा की जीत की संभावनाओं को कम कर रहे हैं। अगर वह खेद प्रकट करें और मुसलमानों को जो नुकसान पहुंचाया है उसकी भरपाई कर दें, तो वह बदले हुए मोदी कहे जाएंगे। तब जाकर कहीं उनके और उनकी पार्टी के लिए कोई गुंजाइश बनेगी।
लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
Read:क्या यह “मोदीवाद” की जीत है
Read Comments