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कांग्रेस के महानतम नेताओं में से एक वल्लभ भाई पटेल की लौहपुरुष की छवि के साथ नरेंद्र मोदी द्वारा खुद को जोड़ने का प्रयास दिलचस्प है। इसके माध्यम से वह खुद को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करना चाहते हैं जो काम करना जानता है, मुश्किल हालात से उबरना जानता है और जो नतीजा देने की क्षमता रखता है। निश्चित तौर पर तीन बार के कार्यकाल के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री ने साबित कर दिखाया है कि वह एक योग्य व्यक्ति हैं। उन्होंने अहमदाबाद को चमका दिया है, गुजरात में शानदार ढांचागत सुविधाओं का जाल बिछा दिया है, वह भारतीय उद्योग जगत के चहेते हैं और करोड़ों भारतीयों के दिलो-दिमाग में भरोसा कायम करने में सफल रहे हैं। फिर नरेंद्र मोदी को ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की जरूरत क्यों पड़ रही है? पिछले माह एक रैली में उन्होंने कहा कि जवाहरलाल नेहरू सरदार पटेल के अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुए। यह सफेद झूठ है। इसके अलावा, तक्षशिला, चंद्रगुप्त मौर्य और सिकंदर के संबंध में भी उन्होंने गलत ऐतिहासिक तथ्य पेश किए। शायद मोदी बिहार के लोगों को मगध के प्राचीन साम्राज्य की महान विरासत पर बधाई देना चाहते थे। किंतु उन्होंने जो गलतबयानी की है वह माध्यमिक स्कूल की इतिहास की पुस्तक पढ़ने वाला छात्र भी आसानी से पकड़ लेगा। अतीत की तस्वीर पेश करते समय कुछ मुश्किल और प्रतिकूल तत्वों को तोड़मरोड़ कर पेश करने से मोदी वास्तव में दिलचस्प व्यक्ति बन जाते हैं।
निश्चित तौर पर नरेंद्र मोदी को नई दिल्ली के सिंहासन पर आसीन होने की महत्वाकांक्षा रखने का अधिकार है, किंतु क्या इससे उन्हें तथ्य और महत्वाकांक्षा में घालमेल करने का भी अधिकार मिल जाता है? मोदी ने इस तथ्य से इन्कार नहीं किया कि वह खुद को सरदार पटेल की छवि में देखना चाहते हैं। भारतीय रियासतों का बड़ी चतुराई से साम, दाम, दंड का इस्तेमाल करते हुए भारत में विलय करवाना हमारे राष्ट्र के इतिहास का अतुलनीय अध्याय है। दुर्भाग्य से मोदी जैसे लोग इस तथ्य को रेखांकित करते रहते हैं कि सरदार पटेल ने हैदराबाद के निजाम और जूनागढ़ के नवाब के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की, किंतु वे भूल जाते हैं कि पटेल और उनके सचिव वीपी मेनन ने त्रवणकोर, जोधपुर, भोपाल और कुछ अन्य रियासतों को आर्थिक प्रलोभन और बहला-फुसला कर भारत में विलय के लिए तैयार किया। जहां तक मोदी का सवाल है, 2002 के गुजरात दंगों के बाद से मुस्लिम राजनेताओं के प्रति उनका अविश्वास इस बात से जाहिर हो जाता है कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों में उन्होंने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया। नरेंद्र मोदी पटेल को हिंदुत्व की भावनाओं के महान अवतार के रूप में पेश करने और खुद को इस मशाल को जलाए रखने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, किंतु इसमें जरा भी सच्चई नहीं है। 30 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी की हत्या और 4 फरवरी, 1948 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर लगाया गया प्रतिबंध सर्वविदित है। इसकी चर्चा खासतौर पर इसलिए भी होती है, क्योंकि वल्लभभाई पटेल का मानना था कि हत्या में आरएसएस का कोई हाथ नहीं है। फिर भी उन्होंने इसे प्रतिबंधित किया। तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने महात्मा गांधी की हत्या पर दुख प्रकट किया, किंतु पटेल नहीं पसीजे। उन्होंने कहा कि पहले आरएसएस खुद में सुधार लाए, तभी प्रतिबंध हटाया जा सकता है। नेहरू की तरह पटेल भी इस मुद्दे पर स्पष्ट थे कि 1947 में भारत विभाजन के दौरान भड़के दंगों ने समाज में नफरत का जहर भर दिया है और यही महात्मा गांधी की हत्या का कारण बना। जुलाई 1948 में मंत्रिमंडल सहयोगी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उन्होंने लिखा कि आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राष्ट्र के अस्तित्व के लिए खतरा बनती जा रही हैं।
सितंबर 1948 में गोलवलकर को लिखे पत्र में उन्होंने कहा कि वे बदले की आग में जल रहे हैं और मुसलमानों पर हमले शुरू कर दिए गए हैं। गृह मंत्रलय द्वारा नवंबर 1948 में जारी नोट में लिखा है कि राज्य सरकारों से हासिल जानकारी के अनुसार आरएसएस से जुड़े लोगों की गतिविधियां राष्ट्रद्रोही लगती हैं। ये अकसर हिंसक और विध्वंसकारी हो जाती हैं। आरएसएस इतिहास के घातक दुष्परिणामों को फिर से दोहराने का माहौल बनाने में जुटा हुआ है। 1सवाल उठता है कि क्या पटेल नरेंद्र मोदी के हीरो हैं? और वे नेहरू के विरोधी नेता के रूप में पटेल को क्यों चुन रहे हैं, जबकि उनके पास श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जिन्होंने 1951 में नेहरू मंत्रिमंडल छोड़कर जनसंघ की शुरुआत की और गोलवलकर जैसे विकल्प उपलब्ध थे। इसका जवाब यह है कि मुखर्जी और गोलवलकर, दोनों ही हिंदुत्व के दक्षिणपंथी स्कूल से जुड़े हैं और इस प्रकार एकता व अखंडता से कहीं दूर चले जाते हैं। नरेंद्र मोदी अपनी उम्मीदवारी पर इसी एकता और अखंडता की मुहर लगाना चाहते हैं। सरदार सरोवर बांध के पास पटेल की प्रतिमा का स्टेच्यू ऑफ यूनिटी नामकरण इसीलिए किया गया है। पटेल कांग्रेस में सेंटर-राइट थे। वह हिंदू समुदाय के प्रति सेवाओं के लिए आरएसएस की तारीफ भी करते थे। 1स्वयंसेवक और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व में होने के कारण संभवत: नरेंद्र मोदी इतिहास पढ़ने के लिए समय नहीं निकाल पाए। किंतु जीवन के कुछ ऐसे तथ्य भी होते हैं जिनसे इन्कार नहीं किया जा सकता। वल्लभभाई पटेल ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया। प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में नरेंद्र मोदी का सीधा चुनाव आरएसएस द्वारा किया गया है। यह देखकर दिमाग चकरा जाता है कि जिस आरएसएस पर वल्लभभाई पटेल ने प्रतिबंध लगाया वही अब इस लौहपुरुष को अपने देवालय में स्थान देने को आतुर है।
इस आलेख की लेखिका ज्योति मल्होत्रा हैं
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