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एनसीटीसी पर आपत्ति का औचित्य

जागरण मेहमान कोना
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Awdhesh Kumarआतंकवाद निरोधी केंद्र या एनसीटीसी को लेकर मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन रिकॉर्ड पर अटकी हुई सुइयां बनकर रह गई। तमाम स्वर वही थे, जो हम पिछले कुछ महीनों से सुन रहे हैं। ज्यादातर गैर कांगे्रसी मुख्यमंत्री या उनके प्रतिनिधि इसे संघीय ढांचे पर चोट और राज्यों पर केंद्र का दबदबा बढ़ाने का हथियार साबित करते रहे तो केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम एवं गृह सचिव आरके सिंह आतंकवादी खतरों को देखते हुए इसे अत्यावश्यक बता रहे हैं। इनमें बीच का रास्ता कहां है! अपने भाषण में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह स्पष्टीकरण भी काम नहीं आया कि यह केंद्र बनाम राज्यों के बीच का मसला नहीं है और उनका इरादा राज्यों के अधिकारों में हस्तक्षेप करने का नहीं है। एनसीटीसी को स्वीकारने की उनकी अपील भी बेकार गई। कुल मिलाकर मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन से चिदंबरम द्वारा प्रकट की गई यह उम्मीद पूरी नहीं हुई कि गृह मंत्रालय की ओर से भेजे गए स्पष्टीकरण के बाद मुख्यमंत्रियों की आशंकाएं और शिकायतें दूर हो जाएंगी। जाहिर है, एनसीटीसी की गाड़ी करीब ढाई महीने पहले जहां थी, वहीं है। मुख्यमंत्रियों का अडि़यल रवैया आखिर मुख्यमंत्रियों का रवैया ऐसा क्यों था कि अगर केंद्र एनसीटीसी पर आगे बढ़ी तो बैठक में सलाह मशविरा की बजाय हंगामा हो जाएगा? पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बैठक के एक दिन पहले ही प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद कहा कि केंद्र अपनी मर्जी से आगे बढ़ेगा तो वह इसे रोकने के लिए पूरी ताकत झोंक देंगी। सम्मेलन में उन्होंने केंद्र के रवैये को विश्वास घटाने वाला बता दिया।


एनसीटीसी का औचित्य


बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे राज्यों की संप्रभुता पर हमला बता दिया। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने इसकी पूरी समीक्षा की मांग की। एनसीटीसी के बहाने उनका पूरा हमला गृहमंत्री पर था। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और जयललिता तो मुख्यमंत्रियों का समूह ही इसलिए गठित करने पर आमादा थीं ताकि केंद्र की कोशिशों पर पानी फिर जाए। मोदी ने जो पांच सवाल उठाए, वे वस्तुत: केंद्र को आतंकवाद के मामले पर कठघरे में खड़ा करने वाला था। कुल मिलाकर इन मुख्यमंत्रियों का मत यह है कि एनसीटीसी की योजना सरकार समेट ले और इसकी जगह दूसरी व्यवस्था खड़ी करे। बड़ी विचित्र स्थिति है। एक ओर केंद्र पर राज्यों की संप्रभुता पर हमला करने, कानून और व्यवस्था की उसकी संवैधानिक जिम्मेवारी में हस्तक्षेप करने का आरोप लग रहा है, वहीं यह भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री राज्यों को विश्वास में लेकर जो विश्वसनीयता का संकट है, उसे दूर करने की कोशिश करें। बीच का रास्ता निकालने की बात भी हो रही है। यह कैसे संभव है? एकाध बिंदु पर असहमति हो तो उसे दूर किया भी जा सकता है। जैसे, उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने संयुक्त अभियान की बात की या छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कार्रवाइयों की प्रक्रियाओं को बदलने की मांग की। यह नहीं भूलिए कि इनमें ज्यादातर मांगें एनसीटीसी में संशोधन के लिए नहीं, इसका अंत करने के लिए थीं।


राज्य सरकारों का बेसुरा राग


एनसीटीसी में तलाशी, जब्ती, गिरफ्तारी आदि प्रावधानों पर जो आपत्तियां उठाई जा रही हैं, उनमें दुरुपयोग की आशंकाएं हो सकती हैं, पर ऐसा तो राज्यों की पुलिस द्वारा भी होता है। इससे कानूनी व्यवस्था का अंत नहीं हो सकता है। वस्तुत: यदि संपूर्ण रूप से एनसीटीसी पर ही आपत्ति हो तो फिर बीच का रास्ता कहां से निकलेगा? तो एनसीटीसी का होगा क्या? दूसरे देशों से सीख लें गत 3 फरवरी को केंद्र सरकार ने जब एनसीटीसी को स्वीकृति दी तो कायदे से इसे 1 मार्च से सक्रिय हो जाना था। अपनी योजना से तीन साल देरी से तो यह आया ही था। मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन का एक सच यह भी है कि कुछ मुख्यमंत्रियों ने इसका समर्थन किया है, कुछ ने संशोधन के कई सुझाव दिए हैं। इससे ऐसा लग सकता है कि केंद्र प्रयास करे तो थोड़े फेरबदल के साथ एनसीटीसी अस्तित्व में आ सकता है। पर यह न भूलें कि गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने इसका ऐसा तीखा विरोध किया है कि इसका आविर्भाव कठिन लगता है। आतंकवाद से ग्रस्त दुनिया के किसी देश में आतंकवाद रोधी केंद्र पर इतना भयानक अंतर्विरोध नहीं दिखा। अमेरिका में यह बना और कार्य कर रहा है। वहां केंद्रीय एजेंसी और राज्य एजेंसी में टकराव नहीं होता। यूरोप के देशों में नहीं होता। हमारे यहां ऐसा कैसे हो जाएगा? आतंकवाद से संघर्ष केंद्र और राज्यों की संयुक्त जिम्मेवारी है। वक्त की जरूरत है एनसीटीसी आतंकवादी कोई भौगोलिक सीमा देखकर हमला नहीं करते। क्या कोई राज्य यह कह सकता है कि आतंकवाद से संघर्ष में उसे केंद्र का साथ नहीं चाहिए? खुफिया सूचनाएं ज्यादातर केंद्र ही देती है और बड़ा हमला होने के बाद केद्रीय बलों को ऑपरेशन करना पड़ता है।


एनसीटीसी में खुफिया, विश्लेषण, कार्रवाई, छानबीन और कानूनी प्रक्रिया चलाने वाली एजेंसियों का एक साथ समन्वय होगा। आतंकवाद के विरुद्ध एक ऐसी शीर्ष समन्वित संस्था की आवश्यकता पूरा देश महसूस कर रहा था। एनसीटीसी उस आवश्यकता की पूर्ति करने वाला है। जाहिर है, आतंकवाद के खतरे में हर क्षण जीने वाले हमारे देश को एनसीटीसी चाहिए, किंतु हम यह न भूलें कि हमारे देश में आतंकवाद विरोधी कदम हमेशा तीखे राजनीतिक विभाजन का शिकार होते रहे हैं। 10 वर्ष पहले जब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने पोटा बनाने का निर्णय किया तो कांग्रेस, वामपंथी दल, सपा आदि ने उसका इतना कड़ा विरोध किया कि सरकार को संयुक्त अधिवेशन बुलाकर बहुमत से उसे पारित कराना पड़ा। संप्रग सरकार ने सत्ता में आते ही पोटा को समाप्त करने का कदम उठाया। लगातार आतंकवादी हमलों के बाद यह साफ होता रहा कि सरकार का यह कदम बिल्कुल गैर वाजिब था, लेकिन इस पर पुनर्विचार का कोई संकेत नहीं था। यह तो 26 नवंबर 2008 के मुंबई हमले के बाद सरकार पर बढ़े जन दबाव का परिणाम था कि इसे गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक अधिनियम में संशोधन कर उसे पोटा के अनुरूप बनाना पड़ा। जिस तरह संप्रग ने पोटा के साथ किया, वैसा ही भाजपा, राजग और अन्य क्षेत्रीय दल इस समय एनसीटीसी पर कर रहे हैं। मोदी ने यदि पोटा वापस लाने की मांग कर दी तो उसका आधार उपलब्ध है, लेकिन यह आत्मघाती राजनीतिक प्रतिस्पर्धा है। आतंकवाद से संघर्ष संबंधी व्यवस्था को राजनीतिक मंसूबों के बूट से रौंदना खतरनाक परिणामों वाला हो सकता है। इसका अंत कर बीते ताहि बिसार दे की कहावत को चरितार्थ करते हुए देश की सुरक्षा के लिए जो आवश्यक है, वैसा आपसी विमर्श के द्वारा किया जाना समय की मांग है।


केंद्र एवं राज्य दोनों समय की इस मांग को समझें। हम मानते हैं कि आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष के नाम पर पुलिस लौह घेरा नहीं बनना चाहिए। केंद्रीय गृह मंत्रालय का स्वरूप सेना की कमान और नियंत्रण प्रणाली की तरह नहीं हो सकता। लेकिन आतंकवाद के बहुराज्यीय और सीमा पार स्वरूप को देखते हुए इसमें केंद्र की भूमिका सर्वोपरि होना लाजिमी है। राज्यों का शासन चलाने वाले क्षेत्रीय क्षत्रप संघवाद या केंद्र-राज्य संबंधों या राज्यों के अधिकारों की गलत व्याख्या न करें। वे राज्य के मालिक या राजा नहीं हैं और न स्थायी रूप से शासन में रहने वाले हैं। जनता ने उन्हें निर्वाचित किया है तो केंद्र सरकार को भी। केंद्र भी राज्य के प्रति उतना ही जिम्मेवार है। हमारे संविधान ने केंद्र और राज्य को बिल्कुल अलग करने वाले प्रावधान नहीं दिए हैं। राज्यों का अस्तित्व भारत देश के अंदर ही है। केंद्र सरकार भी अपने रुख में थोड़ी नरमी लाए। अगर वह तलाशी, जब्ती और गिरफ्तारी वाले प्रावधान में संशोधन कर दे तो इन्हें मान जाना चाहिए। अगर ऐसा ये नहीं करते तो फिर आने वाला समय इन्हें माफ नहीं करेगा।


लेखक अवधेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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