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मोदी की पहली सफलता

जागरण मेहमान कोना
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Swapan Dasमुंबई में भाजपा कार्यकारिणी की बैठक के बाद नरेंद्र मोदी को अन्य नेताओं से एक कदम आगे देख रहे हैं स्वप्न दासगुप्ता


धारणाओं को तोड़ना हमेशा कठिन होता है-तब और भी जब इनका सामना नई सच्चाइयों से होता है। संप्रग सरकार की नीतिगत अपंगता एक असलियत है, जिसे स्वीकार भी कर लिया गया है। हालांकि अगर सरकार में अचानक ऊर्जा का संचार हो जाए और यह उद्देश्यपरक कामों में जुट जाए तब भी इसे लोगों की धारणाओं को तोड़ने में कुछ वक्त लगेगा। यह भी तब संभव है जब मीडिया लोगों की सोच को बदलने में सहयोग करे। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सौभाग्य से केवल सरकार ही इस मानसिकता के निशाने पर नहीं है। पिछले तीन साल से जहां संप्रग की साख तार-तार हुई है, वहीं प्रमुख विपक्षी दल भाजपा भी अपने घर को संभाल नहीं पा रही है। औरों से अलग दल से मतभेदों की पार्टी में रूपांतरण एक व्यंग्यचित्र मात्र नहीं है, बल्कि यह भाजपा के चरित्र का स्थायी भाव बन चुका है। यह अपनी जगह सही है कि मीडिया लकीर का फकीर है और सतही जानकारियों पर चलता है, फिर भी यह तथ्य अधिक नहीं चौंकाता कि पिछले सप्ताह भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की जो ब्रिगेड मुंबई में उतरी थी उसका उद्देश्य पूर्व निष्कर्षो पर मुहर लगवाना मात्र था। यह पहले ही तय हो चुका था कि टीवी पर दिलचस्प खबरें मुहैया कराने वाले गुटबाज भाजपा के साथ स्थायी गृहयुद्ध में भिड़े पड़े हैं।


परिणामस्वरूपजब संजय जोशी के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी-नितिन गडकरी खुलकर सामने आ गए और सम्मेलन के पहले ही दिन सौजन्यता के साथ इस मुद्दे को सुलझा लिया गया, तब बने-बनाए फॉर्मूले की तलाश के लिए पहले से तैयार पटकथा पर काम शुरू हो गया। आखिरकार, नीतिगत मुद्दे और रणनीतियां तय करने के लिए कुछ हद तक आपसी समझ की जरूरत पड़ती ही है और उत्तेजित रिपोर्टरों को इन्हें सुसंगत ढंग से प्रसारित करने में दिक्कत आती है। दूसरे दिन लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज द्वारा रैली के बहिष्कार की मसालेदार खबर छाई रही और नरेंद्र मोदी स्टार बनकर उभरे। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि भाजपा खुद के खिलाफ युद्धरत है। यह स्वयंसिद्ध है कि भाजपा के वरिष्ठ नेतृत्व में एकता नहीं है। वैसे भारत में कोई भी राष्ट्रीय पार्टी यहां तक कि माकपा में भी ऐसे शीर्ष कमांडर नहीं हैं जिनकी सोच समान हो। यह लोकतंत्र में सामान्य बात है और यह केवल भारत में ही होता है कि मीडिया उत्तर कोरिया मॉडल पर आधारित राजनीति को आदर्श के रूप में प्रस्तुत करता है। इन कारणों से ही मीडिया ने भाजपा के मुंबई सत्र में दोहरे महत्व की घटनाओं की अनदेखी कर दी। मीडिया दो अलग-अलग घटनाओं का संज्ञान लेने में विफल रहा, जिनसे पार्टी में बड़ा सुधार हो सकता था। पहली घटना यह रही कि भाजपा ने स्वीकार कर लिया कि दल को सर्वशक्तिशाली और प्रभावी केंद्र की आवश्यकता नहीं है। धीरे-धीरे भाजपा नेतृत्व ने स्वीकार कर लिया कि जब तक दमदार नेताओं वाले मजबूत प्रादेशिक दलों को स्वीकार नहीं कर लिया जाता और उन्हें संस्थागत स्वरूप नहीं दे दिया जाता तब तक पार्टी प्रगति नहीं कर सकती। लंबे समय बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी की वापसी हुई। इसी तरह दो अन्य महत्वपूर्ण घटनाएं भी हुईं।


पर्दे के पीछे से अचानक येद्दयुरप्पा की सांकेतिक उपस्थिति हुई तथा राजस्थान में वसंुधरा राजे के नेतृत्व का अनुमोदन हुआ। अगर भाजपा में एक किस्म के संघीय ढांचे को बढ़ावा दिया जाए तो इससे बिखराव की समस्या पर एक हद तक अंकुश लग सकता है। 2004 के बाद से यह स्पष्ट तौर पर नजर आने लगा कि राज्यों में गुटबाजी को हवा केंद्रीय नेतृत्व में कुछ लोगों की तरफ से मिल रही थी। ये गुट प्रादेशिक नेतृत्व के लिए भी समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। राष्ट्रीय स्तर के निर्णय लेने में प्रादेशिक नेताओं की बढ़ती भागीदारी से उन लोगों का दम घुट रहा है जो दिल्ली की शह पर इन नेताओं के खिलाफ मोर्चाबंदी किए रहते थे। अगर भाजपा पहले ही संघीय ढांचा अपना लेती तो कर्नाटक, राजस्थान और बिहार की समस्याएं विस्फोटक नहीं बनतीं। दूसरे, प्रादेशिक नेताओं के बढ़ते महत्व के मद्देनजर नरेंद्र मोदी क्षेत्रीय नेताओं में प्रमुखता पाने वालों में सबसे आगे निकल गए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री ऐसे तीसरे व्यक्ति हैं जिन्होंने पार्टी में इतनी प्रमुखता हासिल की है। उन्हें यह ताकत किसी औपचारिक प्रस्ताव या फिर दिग्गजों के अनौपचारिक आशीर्वाद की वजह से नहीं मिली है। यह तो जमीनी धरातल के दबाव के कारण उन्होंने खुद हासिल की है। मुंबई में पार्टी के राजनीतिक कार्यकर्ताओं की ओर से मोदी को मिली उत्साहजनक प्रतिक्रिया से स्पष्ट हो गया है कि उन्हीं में कार्यकर्ताओं में उत्साह और ऊर्जा का संचार करने की क्षमता है।


राजनीतिक सीढ़ी के शीर्ष पर पहुंचने की संभावित यात्रा में उन्होंने पहली बड़ी बाधा पार कर ली है। व्यावहारिक रूप से उन्हें भाजपा के तमाम प्रमुख हिस्सेदारों का अनुमोदन मिल गया है। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि मुंबई ने 2014 के चुनाव में मोदी की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की प्रस्तावना बना दी है। इस मुद्दे पर कोई भी औपचारिक फैसला दिसंबर में होने वाले गुजरात विधानसभा चुनावों के नतीजों, समर्थक दलों से सलाह-मशविरे और राजनीतिक घटनाओं के प्रवाह पर निर्भर करेगा। स्मरण रहे कि 1996 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे दिग्गज नेता को प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में चुनाव से महज आठ महीने पहले ही चुना गया था। फिलहाल, चाहे अच्छे के लिए हुआ हो या बुरे के लिए, भाजपा में नए नेता और राजनीतिक ढांचे का उदय एक महत्वपूर्ण कदम है, न कि वे मसालेदार खोज-खबरें जिन्हें उजागर करने में मीडिया दिलोजान से जुटा था। मैं यह सोचकर हैरान हूं कि 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन को आज का मीडिया किस तरह कवर करता। क्या वह राष्ट्रवाद के नए प्रतीक के तौर पर गांधी के उदय को मुद्दा बनाता या फिर वह तिलकवादियों और सीआर दास के समर्थकों की नाराजगी और खीझ को उछालता।


लेखक स्वप्न दासगुप्ता वरिष्ठ स्तंभकार हैं

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