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मंशा तो है, पर मशीनरी सही नहीं

जागरण मेहमान कोना
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सोनिया गांधी की अगुवाई वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद और रंगराजन समिति के सिफारिशों के आधार पर खाद्य मंत्रालय द्वारा तैयार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक अगर संसद में पारित हो भी जाता है तो उसे अमलीजामा पहनाना आसान नहीं होगा। मानवीय दृष्टिकोण से यह योजना सरकार द्वारा चलाई जा रही अभी तक की सभी जनहित योजनाओं में अव्वल साबित हो सकती है। बशर्ते इसका क्रियान्वयन ईमानदारी पूर्वक किया जाए। सरकार द्वारा जो खाका खींचा गया है, उसके मुताबिक प्रत्येक परिवार को हर माह तकरीबन 25 से 35 किलो अनाज बेहद कम कीमत पर उपलब्ध कराया जाएगा। इस योजना को मानवीय पहलू से देखें तो भुखमरी से जूझ रहे भारत के लिए यह वरदान साबित हो सकती है, लेकिन इसकी सार्थकता तब दिखेगी, जब अन्न का दाना जरूरतमंदों की पेट तक पहुंच सकेगा। अन्य योजनाओं की तरह कहीं इसमें भी लूटपाट करने वाले सेंध लगा दिए तो इस योजना का भी बाजा बजना तय है।


वर्तमान तंत्र की विफलताओं को देखते हुए संदेह उपजना स्वाभाविक है। इसलिए कि जिन 75 फीसदी जरूरतमंद लोगों तक अनाज की उपलब्धता को सरकार साकार करना चाहती है, उसको परवान चढ़ाने के लिए फिलहाल उसके पास कोई रोडमैप या विकसित तंत्र उपलब्ध नहीं है। मजबूरन उसे सड़ी-गली सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर ही अपनी निर्भरता बनानी होगी, जो आज की तारीख में भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा अड्डा बन चुकी है। सरकार को इस स्वप्नदर्शी योजना को लागू करने में एक-दो नहीं, अनगिनत दुश्वारियों का सामना करना पड़ सकता है। मसलन, सबसे पहले इस योजना पर होने वाले खर्च की ही बात करें तो सब्सिडी से पिंड छुड़ाना चाह रही सरकार को सालाना एक लाख करोड़ से अधिक की धनराशि जुटानी पड़ेगी, जो उसके माथे पर बल डालने के लिए पर्याप्त है। लेकिन उससे भी बड़ी चिंता अनाज के खरीद, भंडारण और उसके वितरण से जुड़ा हुआ है।


सरकार को हर साल तकरीबन 500 लाख टन से अधिक अनाज का इंतजाम करना पड़ेगा। चाहे देश में सूखा पड़े या बाढ़ आए। ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इतने बड़े पैमाने पर सरकार अनाज की खरीद कैसे करेगी। आमतौर पर सरकारें अनाज की खरीद सरकारी क्रयकेंद्रों के माध्यम से करती है, लेकिन आज की तारीख में सरकारी क्रयकेंद्र किसानों के शोषण के अड्डे बन चुके हैं। यहां किसान और सरकार के बीच बिचौलियों की भूमिका महत्वपूर्ण बन चुकी है। बिचौलिए किसानों से अनाज को औने-पौने दामों में खरीदकर भारी मुनाफे के साथ सरकार के हाथ बेच रहे हैं। मान भी लें कि सरकार लूटपाट के बीच अनाजों की खरीद कर ले जाती है तो क्या भरोसा कि वह समुचित रख-रखाव करने में कामयाब ही होगी।


अनाज का भंडारण सरकार के लिए एक जटिल समस्या है। केंद्र और राज्य एजेंसियों के पास पर्याप्त अनाज भंडारण क्षमता का बेहद अभाव है। भारतीय खाद्य निगम के आंकड़ों पर ही भरोसा करें तो प्रत्येक वर्ष निगम के गोदामों में हजारों टन गेहूं, चावल और धान इस हद तक खराब हो जाते हैं कि वे जारी करने लायक नहीं रह जाते हैं। पंजाब और हरियाणा जैसे अन्न के मामले में आत्मनिर्भर राज्यों के पास भी उचित भंडारण की व्यवस्था नहीं है। पिछले साल के आंकड़ों पर ध्यान दें तो इन एजेंसियों के पास 54,260 टन और 1574 टन गेहूं इस हद तक सड़-गल गया कि उसे जारी नहीं किया जा सका। केंद्र और राज्य सरकारें भंडारण क्षमता बढ़ाने की बात तो कर रही हैं, लेकिन वह सिर्फ कागजों पर घोड़े दौड़ा रही हैं। जमीनी स्तर पर कोई काम नहीं हो रहा है। एक अनुमान के मुताबिक 2009-10 में 10,420 टन क्षमता वाले एफसीआइ गोदामों के निर्माण का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन आज तक इस लक्ष्य को साधा नहीं जा सका है।


अगर मानसून सत्र में सरकार राष्ट्रीय खाद्य योजना विधेयक को संसद से पारित करा ले जाती है तो क्या वह इस स्थिति में होगी कि तत्क्षण देश की 75 फीसदी जनता को अनाज उपलब्ध करा सके? संभव ही नहीं है। सच्चाई यह है कि सरकार के गोदामों में जो बफर स्टॉक है, वह पर्याप्त नहीं है और ऊपर से सड़ा गला है। सरकार को खाद्य सुरक्षा योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए सबसे पहले पर्याप्त मात्रा में अन्न की खरीद, उसके रख-रखाव का समुचित प्रबंध और साथ ही पारदर्शी वितरण की व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी। तभी जाकर अंतिम पांत के अंतिम व्यक्ति को योजना का लाभ मिल सकेगा।


लेखिका रीता सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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