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राष्ट्रीय सुरक्षा का जायजा

जागरण मेहमान कोना
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उच्च रक्षा प्रबंधन में विभिन्न कमियों को दूर करने का समय आ गया है। नए सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह ने सेना की बागडोर संभाल ली है और अब हमें भविष्य की राष्ट्रीय चुनौतियों का जायजा लेना है। इनमें से कुछ चुनौतियां थल सेना से जुड़ी हैं जबकि अधिकांश सेना के तीनों अंगों तथा हमारे शीर्ष सुरक्षा प्रतिष्ठान से संबंध रखती हैं। सबसे पहले सेना में बदलाव की प्रक्रिया की रफ्तार बढ़ाने की जरूरत है। सेना से परे हमारे उच्च रक्षा प्रबंधन को बदलना बहुत जरूरी हो गया है। अगर रक्षा मंत्रालय को 21वीं सदी में राष्ट्रीय रक्षा की जरूरतों के साथ कदम मिला कर चलना है तो उसमें पर्याप्त संख्या में पेशेवर लाने होंगे। कई समितियों ने बार-बार रक्षा मंत्रालय को सेना मुख्यालयों में मिलाने की सिफारिश की है, उस पर तत्काल ध्यान देना जरूरी है। मौजूदा ढांचे में समेकन के प्रयास केवल इस रक्षा मंत्रालय के समेकित मुख्यालय का नाम देने तक ही सीमित रहे हैं। मंत्रालय के उच्चतम स्तर पर सेना के अधिकारियों को लाने की जरूरत है, ताकि रक्षा मंत्री को पेशेवर सलाह सुनिश्चित हो सके। सैन्य अधिकारी परियोजनाओं के क्रियान्वयन में तेजी ला सकेंगे और कार्यशैली में ऐसा परिवर्तन ला सकेंगे कि परियोजनाएं समय से पूरी हो सकें। चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) प्रणाली और संयुक्त सेना कमान, ऐसे क्षेत्र हैं जहां हम अभी भी मीलों पीछे हैं।


अंडमान और निकोबार सामरिक कमान को छोड़कर हम अपनी भौगोलिक कमानों को संयुक्त सेना संस्थानों में नहीं बदल पाए हैं। इस प्रकार का परिवर्तन शीर्ष स्तर से आएगा, जिसके लिए सीडीएस की नियुक्ति सबसे पहली जरूरत होगी। इसके बाद थियेटर कमान का नंबर आएगा। हालांकि कहा जा सकता है कि हमारी सीमित भू-राजनीतिक संलिप्तता को देखते हुए थियेटर कमान व्यवस्था जरूरी नहीं होगी, फिर भी एक असरदार क्षेत्रीय ताकत बनने के लिए इस दिशा में आगे बढ़ना जरूरी होगा। और फिर सेना के तीनों अंगों के संयुक्त अभियानों की शुरुआत को देखते हुए संयुक्त थियेटर कमान व्यवस्था को अपनाना बहुत जरूरी है। सीडीएस अवधारणा के खिलाफ खुद सेनाओं में आपत्तियां हैं, लेकिन इस प्रकार का विरोध हमारे देश में कोई नई बात नहीं है। सरकार को इस बदलाव की दिशा में तेजी लानी होगी। रक्षा खरीद प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और सरल बनाना होगा।


जनरल वी के सिंह के लीक हुए पत्र में उपकरणों की जबरदस्त कमी, वायु सेनाओं की लड़ाकू स्क्वैड्रनों की कमी और नौसेना के लिए खरीद प्रक्रिया की ओर रक्षामंत्री का ध्यान खींचा गया है, लेकिन इनमें से किसे प्राथमिकता दी जाए, यह तय करने में दिक्कत आ सकती है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन और सेनाओं के बीच संपर्क को अधिक कारगर बनाना जरूरी है, जिसके लिए दोनों को उभरती युद्धक सोच के साथ तालमेल रखते हुए अनुसंधान क्षेत्रों को सामरिक स्वरूप देना होगा। सार्वजनिक रक्षा क्षेत्र प्रतिष्ठानों को भी विश्व स्तर के उपकरण बनाना शुरू करना होगा। दशकों से ये प्रतिष्ठान काम कर रहे हैं और अब उन्हें ठोस परिणाम देने होंगे। हमारे देश में सार्वजनिक जीवन के लगभग सभी पहलुओं में जवाबदेही की कमी है। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में एक स्तर तक गतिशीलता जरूरी है और कंपनी क्षेत्र से पेशेवर प्रबंधन को लाने के साथ-साथ अधिक स्वायत्तता की भी जरूरत है। रक्षा उपकरणों के निर्माण में निजी क्षेत्र की भागीदारी की भारी जरूरत महसूस की जा रही है। इसके लिए निर्माताओं के चयन में सरकार की ओर से मदद की जरूरत होगी। और फिर इन निजी निर्माताओं तथा सार्वजनिक रक्षा क्षेत्र प्रतिष्ठानों को अपने अनुसंधान और विकास प्रयासों को जारी रखने के लिए अपने उत्पादों को विदेशों में बेचने की भी अनुमति देनी होगी।


लेखक एसके चटर्जी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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