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नक्सलियों के आगे नतमस्तक सत्ता

जागरण मेहमान कोना
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छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार की कोशिशों के बाद आखिरकार माओवादियों को सुकमा जिले के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन को रिहा करना पड़ा, लेकिन इस पूरी कवायद में सरकार और प्रशासन को नाको चने चबाने पड़े। यहां सवाल यह है कि सरकार कब तक नक्सलियों से समझौते और उनकी मान-मनौव्वल जारी रखेगी। एक तरफ माओवादी हत्या, अपहरण जैसी बड़ी वारदातों को अंजाम देकर अपने मंसूबों को विस्तार देने में लगे हैं तो दूसरी ओर हम उनके आगे बार-बार घुटने टेक रहे हैं। ठीक है, नक्सलियों ने एलेक्स पॉल मेनन को कोई 12 दिन अपने कब्जे में रखने के बाद रिहा कर दिया, लेकिन मेनन की सुरक्षा में तैनात उन दो सुरक्षाकर्मियों अमजद खान और कृष्ण कुजूर का क्या, जिन्हें नक्सलियों ने गोलियों से भून दिया? इसी तरह मेनन को अगवा करने से पहले यानी 20 अप्रैल को नक्सलियों ने बीजापुर के जिलाधिकारी रजत कुमार के काफिले पर हमला कर दिया था। मेनन की तरह रजत कुमार भी ग्राम सूरज अभियान कार्यक्रम के तहत दूर दराज के गांवों के दौरे पर थे ताकि जनता से मिलकर उनकी समस्याओं का समाधान किया जा सके। बता दें कि सुकना जिले के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन 21 अप्रैल की शाम मंजीपारा गांव में ग्रामीणों से भेंट कर रहे थे। तभी ग्रामीणों के वेश में 15 नक्सली उनके पास आए और उनसे जंगल में एक स्थान का व्यक्तिगत मुआयना करने का आग्रह किया। मेनन उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए, लेकिन जब नक्सलियों ने मेनन को जबरन बाइक पर बिठाने का प्रयास किया तो अंगरक्षक अमजद खान और कृष्ण कुजूर ने हस्तक्षेप करने का प्रयास किया।


नक्सलियों के प्रति नजरिया बदलें


नक्सलियों ने उन्हें गोली मार दी। यह पहला मौका था, जब दंडकारण्य में नक्सलियों ने वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी को अपना निशाना बनाया। अब तक इस क्षेत्र में कांस्टेबलों के ही अपहरण होते थे। गौरतलब है कि माओवादियों द्वारा अपहरण की यह हाल फिलहाल में तीसरी सनसनीखेज घटना थी। कुछ सप्ताह पहले माओवादियों ने उड़ीसा में दो इतालवी नागरिकों और फिर बाद में बीजू जनता दल के एक विधायक का अपहरण कर लिया था। हालांकि विधायक समेत दोनों इतालवी नागरिकों को नक्सलियों ने रिहा कर दिया, लेकिन इसकी काफी कीमत हमें चुकानी पड़ी। पिछले साल माओवादियों ने मलकानगिरी जिले के जिला अधिकारी का अपहरण किया था। इन घटनाओं से मालूम होता है कि नक्सली महाराष्ट्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल के आदिवासी क्षेत्रों में जहां चाहें, वहां किसी भी वारदात को अंजाम दे सकते हैं। अपहरण के इस सिलसिले के बाद माओवादियों ने जेल में बंद अपने कॉडरों और समर्थकों की रिहाई की मांग की थी। उड़ीसा के मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने तो जेल में बंद अनेक माओवादियों की रिहाई के आदेश भी दे दिए। अपहरण का सिलसिला सवाल यह है कि अचानक माओवादियों ने अपहरण पर इतना जोर देना क्यों शुरू कर दिया है? विशेषज्ञों के अनुसार इसके कई कारण नजर आते हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि माओवादी अक्सर अपै्रल-मई में अपनी कांगे्रस का आयोजन करते हैं। यह कांगे्रस जंगलों में आयोजित की जाती है और इसमें लगभग सभी महत्वपूर्ण पदाधिकारी आगे की रणनीति बनाने के लिए एकत्र होते हैं। ऐसे मौके पर कांगे्रस को पुलिस प्रशासन की निगाह से बचाए रखने के लिए अपहरण और अन्य वारदातों को अंजाम दिया जाता है, ताकि प्रशासन इन वारदातों में उलझा रहे और कांगे्रस पर ध्यान न जाए। दूसरे शब्दों में कांगे्रस से ध्यान भटकाने के लिए अपहरण किए जा रहे हैं। एक अन्य कारण यह भी है कि अपहरण में ज्यादा कॉडरों का प्रयोग नहीं करना पड़ता। मसलन, माओवादी जब पुलिस स्टेशन या सुरक्षा बलों के काफिले पर हमला करते हैं तो ऐसा करने के लिए बड़ी संख्या में आदमी और हथियारों की जरूरत पड़ती है। ऐसे मौके पर माओवादियों को अपने नुकसान का भी खतरा ज्यादा रहता है। दूसरी ओर अपहरण को अंजाम देने में कम लोगों की जरूरत पड़ती है। सुकना के कलेक्टर का अपहरण करने में मात्र 15 नक्सलियों की जरूरत पड़ी। अपहरण पर माओवादी इसलिए भी जोर दे रहे हैं कि ऐसा करने से वे अपनी मांगों को मनवा सकते हैं।


नक्सलवाद का नासूर


उड़ीसा में इतालवी नागरिकों को रिहा कराने के लिए मुख्यमंत्री बीजू पटनायक ने 27 माओवादियों को जेल से रिहा किया। इसके अलावा माओवादियों का मानना रहा है कि अपहरण के जरिये वे अपनी समस्याओं को आसानी से जनता तक पहुंचा सकते हैं। शोषितों की यह कैसी जंग सवाल यह है कि माओवादियों की समस्या क्या है? जहां एक राय यह है कि अपहरण और हत्या में लिप्त माओवादी केवल आतंकी हैं। इसलिए वह अपने आप में एक समस्या हैं। एक दूसरी राय यह भी है कि माओवादी वास्तव में शोषितों के हक की लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि विख्यात मा‌र्क्सवादी चिंतक तारिक अली का कहना है कि माओवादी भारत राज्य की नाकामी का नतीजा हैं। आदिवासियों के पास कुछ नहीं है। न शिक्षा, न चिकित्सा सेवाएं। तारिक अली बताते हैं, मुझे एक घटना बहुत ही विश्वसनीय सूत्र ने बताई। जब कांगे्रस फिर से सत्ता में लौटी तो उसने आंध्र प्रदेश में माओवादी नेताओं से बात करने के लिए कुछ नौकरशाहों को भेजा कि वे मालूम करें कि माओवादियों की मांगे क्या हैं? उन बूढे़ माओवादियों के हाथों में भारतीय संविधान की कॉपी और 1947 से अब तक कांगे्रस के चुनावी घोषणा पत्रों की प्रतियां थीं। माओवादियों ने इन प्रतियों को नौकरशाहों के सामने रखते हुए कहा कि संविधान और अपने घोषणा पत्रों को लागू कर दीजिए। बस, यही हमारी मांगे हैं। सवाल यह है कि इस मांग का क्या जवाब दिया जाए? तारिक अली के अनुसार, इस मांग का कोई जवाब नहीं है। सिवाय इसके कि संविधान को ईमानदारी से लागू किया जाए, ताकि आदिवासी भी देश की मुख्यधारा का हिस्सा बन सकें और उन्हें भी सामान्य सुविधाएं मिल सकें।


तारिक अली की इस विश्वसनीय जानकारी को मात्र व्यंग्य समझकर टाला नहीं जा सकता। आदिवासी क्षेत्रों में आज भी ऐसे गांव मौजूद हैं, जिनके बारे में केंद्र या राज्य सरकारों को कुछ भी नहीं मालूम है। इन गांवों में नामरहित आदिवासी रहते हैं, जिन्होंने कभी बिजली, स्कूल, अस्पताल और मशीन के बारे में नहीं सुना है। ये आदिवासी इसी सोच को लेकर जन्म लेते और मरते हैं कि माओवादी ही सरकार हैं। माओवादी इनके लिए चावल लाते हैं और वे ही इनकी रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करते हैं। बोडीगुड्डा एक ऐसा ही गांव है, जो महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में फैले घने जंगलों के बीच में है। करीब 6000 वर्ग किलोमीटर में फैले इस घने जंगल में ऐसे अनेक गांव हैं, जिन्हें आजादी के बाद से आज तक खोजा ही नहीं जा सका है। बोडीगुड्डा भी पिछले महीने उस समय सामने आया, जब माओवादियों को घेरने के लिए गूगल अर्थ की मदद से सुरक्षाकर्मी अबूझमांड के जंगलों में पहुंचे। पहले तो उन्हें यह गांव नक्सलियों का कैंप लग रहा था, लेकिन वहां जाने के बाद मालूम पड़ा कि बोडीगुड्डा तो ऐसा गांव है, जो भारत सरकार के नक्शे में ही नहीं है। इसलिए माओवाद कोई सरल समस्या नहीं है।


लेखक शाहिद ए चौधरी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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