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दरक रहा है बचा-खुचा आधार

जागरण मेहमान कोना
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Umesh Charurvediछत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पॉल मेनन के अगवा प्रकरण ने नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकारी मशीनरी की लाचारगी की पोल तो खोली ही है, लेकिन एक नया संकेत भी दिया है। नक्सलियों ने मध्यस्थता के लिए शुरुआती दौर में जिन लोगों के नाम सुझाए थे, उनमें से दो अहम शख्सियत ने मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकराने में देर नहीं लगाई। सुप्रीम कोर्ट के वकील और अन्ना हजारे की कोर टीम के अहम सदस्य प्रशांत भूषण की ख्याति वामपंथी विचारों के लिए भी रही है, लेकिन उन्होंने इस बार न सिर्फ मध्यस्थता का प्रस्ताव ठुकरा दिया, बल्कि किसी सिविल अधिकारी को बंधक बनाने की नक्सली रणनीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं। नक्सलियों ने आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मनीष कुंजम का भी नाम मध्यस्थों के लिए सुझाया था, लेकिन उन्होंने भी सिर्फ एलेक्स पॉल मेनन के लिए दवाएं ले जाने का मानवीय रास्ता ही अख्तियार किया। उन्होंने भी मध्यस्थता में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई।


नक्सलवाद का नासूर


नक्सली भले ही जंगलों से अपनी रणनीति को अंजाम देते रहे हों, अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारतीय राज सत्ता के प्रतीक पुलिस वालों और सुरक्षा बलों का खून बहाते रहे हों। इस पर सरकारी मशीनरी और आम नागरिक को भले ही ऐतराज रहा हो, लेकिन वामपंथ के इस अतिवादी प्रतीक और विचार को भारतीय शहरी मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से का समर्थन रहा है। यह समर्थन ही भारतीय नक्सलवाद को वैचारिक आधार और एक हद तक सामाजिक मान्यता मुहैया कराता रहा है। यही वजह है कि जब भी कोई सरकार ग्रीन हंट जैसा कार्यक्रम चलाने का ऐलान करती रही है, इलाहाबाद और पटना से लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर तक विरोध प्रदर्शनों की झड़ी लग जाती है। भारतीय लोकतांत्रिक धारा का प्रतिकार करने वाली नक्सलवादी ताकतों का वैचारिक आधार चीन के क्रांतिकारी नेता माओत्से तुंग के विचार हैं। माओ ने कहा था कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है। माओ के इस विचार ने एक तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सीमाएं तय कर दी थीं। यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि भारतीय नक्सली भी माओ से वैचारिक प्राणवायु हासिल करते हैं, उसी वैचारिक खाद-पानी से सहारे भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्ति्रया और राजसत्ता को अपने तरीकों से नकारते हैं। लेकिन जब उन्हें समर्थन का खाद पानी चाहिए होता है तो उसे भारत का वह शहरी समाज मुहैया कराता है, जिसे भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया कुछ किंतु और परंतु के साथ स्वीकार्य हैं। 2010 की गर्मियों में घात लगाकर जब नक्सलियों ने बस्तर के जंगलों में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को मार गिराया था, तब उनके खिलाफ सैनिक कार्रवाई की मांग उठी थी।


नागरिक समाज के एक बड़े तबके के साथ ही राजनीति और प्रशासन के एक वर्ग ने नक्सलियों के खिलाफ सैनिक कार्रवाई की पुरजोर वकालत की थी, लेकिन तब सेना ने ही ऐसी कार्रवाई के औचित्य पर सवाल उठाए थे। दरअसल, तब सेना को यह डर था कि उसका जो इकबाल भारतीय समाज के बीच है, उस पर सवाल उठने शुरू हो जाएंगे। सेना की आशंका की वजह भी नक्सलवाद के शहरी मध्यवर्ग के समर्थक ही थे। दिलचस्प यह है कि तब नक्सलियों के एक वर्ग ने अति उत्साह में यह चेतावनी भी दे दी थी कि अगर उनकी मांगें नहीं मानी गई तो उनकी कार्रवाई की जद में शहरी इलाके भी होंगे। तब उन्हें वैचारिक आधार मुहैया कराने वाले रणनीतिकारों ने नक्सलियों को चेताया भी था कि अगर वे शहरी समाज में कार्रवाई शुरू करेंगे तो उनके खात्मे की घड़ी नजदीक होगी। बहरहाल, यह शक ही है कि अब नक्सलियों को लेकर शहरी मध्यवर्ग के एक बड़े तबके का समर्थन कमजोर हो रहा है।


प्रशांत भूषण और मनीष कुंजम का नकार भी इसका ही प्रतीक है। देर-सवेर नक्सलवाद को मिलता रहा यह शहरी समर्थन और छिजेगा। माओवादियों के चंगुल से रिहा हुए सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन भले ही इस वक्त अपनी नौकरी की वजह से राजसत्ता के प्रतिनिधि हों, लेकिन अव्वल तो वे भी शहरी मध्यवर्ग का ही हिस्सा हैं। जाहिर है कि उनके अपहरण से शहरी मध्यवर्ग को झटका लगा है। बहरहाल, नक्सली समस्या से जूझने के लिए तमाम तरह के प्रशासनिक फैसले होते रहेंगे। लेकिन भारतीय समाज पर नजर रखने वाले लोगों को नक्सलवादी गतिविधियों को लेकर शहरी मध्यवर्ग का यह बदलाव चौंकाऊं नजर आ सकता है।


लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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