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नक्सलवाद का नासूर

जागरण मेहमान कोना
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नक्सलवाद आंतरिक सुरक्षा के लिए आतंकवाद से भी बडे़ खतरे के रूप में उभरा है और सामाजिक आतंकवाद का नया खौफ पैदा कर रहा है। इसकी एक झलक हाल ही में छत्तीसगढ के सुकमा जिले के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन के अपहरण और कुछ दिन पूर्व ओडिसा में बीजद के विधायक झीना हिक्का सहित दो इटालियन नागरिकों के अपहरण की घटनाओं में देखने को मिली है। सुकमा के कलेक्टर के अपहरण से एक दिन पहले नक्सलियों ने बीजापुर के कलेक्टर के काफिले को विस्फोट से उड़ाने की कोशिश की थी। सोची-समझी रणनीति के तहत किए गए इन हमलों ने सरकार को घुटने टेकने को मजबूर किया है। नक्सलियों ने सुकमा के कलेक्टर के बदले कुछ कट्टर नक्सलियों की रिहाई की शर्त रखी है जिस पर राज्य सरकार ने विचार शुरू कर दिया है। इससे पहले ओडिसा की सरकार ने भी नक्सलियों की शर्त मानी थी। सरकार के इस आत्मसमर्पण के लिए खुद सरकार की जनविरोधी नीतियां ही जिम्मेदार हैं। जनतंत्र की मौलिक परिभाषा-जनता का, जनता के द्वारा और जनता के लिए शासन की विफलता ने यह स्थिति पैदा की है। इसी से नक्सलवाद के फलने-फूलने का वैचारिक आधार तैयार हुआ है। जल, जंगल, जमीन की लड़ाई को सरकार ने अपनी पूंजीपरस्त नीतियों से नई जमीन प्रदान की है। लड़ाई की यह नई जमीन सवरंगीण विकास के नारे की विफलता के कारण तैयार हुई है, लेकिन इससे नक्सलवाद के राज्यविरोधी चरित्र को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता।


नक्सलवाद ने भारतीय राज्यसत्ता के खिलाफ आंतरिक युद्ध की जो पृष्ठभूमि तैयार की उसे आंतरिक सुरक्षा के संदर्भ में किसी भी दुश्मन देश के आक्रमण से कम कर नहीं आंका जा सकता। भारतीय राज्यसत्ता का चरित्र कितना लोककल्याणकारी है इससे सहमति और असहमति हो सकती है, लेकिन किसी आधुनिक राज्य के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की यह कार्रवाई ना ही सिर्फ निंदनीय है बल्कि समाज विरोधी भी है। सशस्त्र विद्रोह के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन और राजनीतिक परिवर्तन की यह समझ सामाजिक आंदोलनों की अहमियत को भी सिरे से नकारती है। इस मायने में यह समाज की उन प्रवृतियों के विरुद्ध काम करती है जो राज्यसत्ता में अपनी भूमिका को विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों से सुनिश्चित करता है। नक्सलवादी जल, जंगल, जमीन की वाजिब लड़ाई के नाम पर आदिवासियों को देश के विकास की मुख्यधारा से काटने की साजिश रच रहे हैं। इसमें संदेह नहीं कि आदिवासियों की लड़ाई के नाम पर नक्सली भोले-भाले आदिवासियों को अपना हथियार बना रहे हैं। विकास की मुख्यधारा से जुड़ने के बाद नक्सलियों के दुर्ग उनके हाथों से निकल जाएंगे और उनका आधार खिसक जाएगा। विकास की योजनाओं से लाभान्वित आदिवासी समाज को गुमराह करना नक्सलियों के लिए मुश्किल होगा। सड़क और आधारभूत संरचना जैसे विकास के कार्यक्रमों को बढ़ाने वाले सुकमा के कलेक्टर का अपहरण इसी विचारधारा के कारण किया गया है।


नक्सली हिंसा ने बड़े पैमाने पर ग्रामीण समाज को आतंकित किया है। लेवी के नाम पर बेगुनाहों को प्रताडि़त करना और आतंक के बल पर भय का माहौल कायम करना नक्सलियों की पहचान बन चुका है। भारत में नक्सलवाद भटकाव का शिकार हो गया है। शायद इससे बेहतर यह कहना होगा कि भारत की परिस्थितियों में नक्सलवाद जैसा अतिवादी दर्शन कभी सफल हो ही नहीं सकता। जिस माओवादी राजनीतिक दर्शन को उसके उद्भव स्थल चीन में ही खारिज कर दिया गया हो, उस दर्शन को लेकर भारत के जंगलों में नक्सलियों द्वारा उपेक्षा के शिकार आदिवासियों को न्याय दिलाने की लड़ाई सही दिशा में उठाया गया कदम कभी नहीं था।


लेखक तारेंद्र किशोर स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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