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नक्सलियों की छटपटाहट

जागरण मेहमान कोना
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नक्सली समस्या पूरे देश के लिए एक गंभीर समस्या है। अधिकांश राज्य इससे ग्रस्त हैं। नक्सलवाद अब तक न कितनी जानें लील चुका है। फिर भी पिछले वर्ष की तुलना में नक्सली हमलों की दर इस वर्ष कम हुई है। ऐसा इसलिए हुआ है कि नक्सलियों में आपसी फूट बढ़ने लगी है और उन्हें संभालने वाला ऐसा कोई नेता नहीं बचा, जिसमें पूरे तंत्र के संचालन की क्षमता हो। नक्सलियों की पकड़ अब ढीली पड़ने लगी है। संभवत: नक्सली हमले में हुई कमी इसी बात का संकेत देती है। कहा जाता है कि नक्सलियों को आम जनता का भी मौन समर्थन प्राप्त है। पर जबसे नक्सलियों ने पुलिस वालों को नृशंसता के साथ मारना शुरू किया, तो इनका सर्वत्र विरोध शुरू हो गया। पिछले दो वर्षो में शीर्ष के दो नक्सली नेता आजाद और किशनजी मारे गए हैं। नक्सल आंदोलन के लिए यह भारी झटका है।


तेलंगाना क्षेत्र के निजामाबाद, अदिलाबाद, खम्मम, मेडक, नालगोंडा, मोहब्बत नगर जैसे कई इलाके हैं, जहां नक्सलियों ने कई भूमिहीन किसानों को जमीनों का बंटवारा किया था। किशनजी केंद्रीय कमेटी के सदस्य थे और मोबाइल के माध्यक्ष से साक्षात्कार देते थे। उनके न रहने और कई नेताओं के जेल में होने से नक्सलियों के बीच नेतृत्व को लेकर जो शून्य पैदा हो गया है, उससे निपटना अब मुश्किल दिखाई दे रहा है। राज्यसभा में गृह राज्य मंत्री जितेंद्र प्रसाद ने बताया कि देश में नक्सली हिंसा में कमी आई है। पिछले वर्ष देश में 1925 नक्सली हिंसा हुई थी, इस वर्ष यह घटकर 1468 हो गई है। झारखंड अभी भी नक्सली हिंसा में सबसे ऊपर है। पिछले वर्ष नक्सली हिंसा में 207 लोग मारे गए, जबकि इस वर्ष कुल 49 लोग मारे गए। छत्तीसगढ़ में 2010 में 538 घटनाएं हुई थीं, इस वर्ष अभी तक केवल 384 घटनाएं हुई हैं। इसी तरह उड़ीसा में गत वर्ष 187 और इस वर्ष 169 वारदातों को नक्सलियों ने अंजाम दिया। अन्य राज्य भले ही संतुष्ट हों, पर झारखंड पुलिस इन आंकड़ों को नकारते हुए कहती है कि नक्सली हिंसा में कमी नहीं आई है।


नक्सली अब कई गुटों में विभाजित हो गए हैं। इन गुटों की हिंसा की कार्रवाई को इन आंकड़ों में शामिल नहीं किया गया है। किशनजी के मारे जाने के बाद कई लोग नक्सलियों के समर्थन में सामने आ गए थे। इन सभी का यही मानना था कि किशनजी का एनकाउंटर किया गया है। लेकिन पुलिस ने इस बात का खंडन करते हुए कहा है कि ऐसी बात नहीं, किशनजी पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में मारे गए हैं। दूसरी ओर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वाली पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इसे साधारण मुठभेड़ मानती हैं। किशनजी की मौत के बाद गृहमंत्री चिदंबरम ने नक्सलियों से अपने हथियार छोड़ने और वार्ता के लिए तैयार होने का अनुरोध किया था। इस दिशा में पहले भी प्रयास हो चुके थे। मई 2004 में नक्सलियों ने भी सक्रियता दिखाई थी।


आंध्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाईएस चंद्रशेखर रेड्डी के साथ नक्सलियों ने वार्ता का दौर शुरू किया था, किंतु नक्सलियों द्वारा तीन लाख एकड़ जमीन नियमित करने की मांग के कारण वार्ता विफल रही थी। जनवरी 2005 में सरकार ने ही नक्सलियों के साथ हुए युद्ध विराम को तोड़ दिया था। इस तरह से देखा जाए तो नक्सलियों के हौसले अब पस्त होने लगे हैं। पस्त हौसलों के साथ की जाने वाली लड़ाई कभी-कभी मानवता की सीमाएं पार करने लगती हैं। पहले जो नक्सलियों का समर्थन करते थे, वही अब उनकी अवहेलना करने लगे हैं। सच भी है, इंसान ही जब इंसान से पशु जैसा व्यवहार करे और उसी पाशविकता के साथ उसके साथ अत्याचार करे, तो मानवता का रोना स्वाभाविक है। नक्सली दिशाहीन होने लगे हैं। इसी दिशाहीनता में उनके द्वारा नृशंस कार्रवाई की जा रही है। लोगों में उनके प्रति द्वेष भी बढ़ा है। ऐसे में नक्सलवाद या तो अधिक आक्रामक हो सकता है, या फिर पूरी तरह से खत्म हो सकता है।


लेखक डॉ. महेश परिमल स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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