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मास्को में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच बैठक एक ऐसे समय में हो रही है जब दोनों देश अपनी घरेलू समस्याओं के साथ-साथ क्षेत्रीय और वैश्विक उथल-पुथल के माहौल से भी प्रभावित हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इसी सप्ताह बीजिंग दौरे पर भी होंगे जहां वह चीन के नए नेतृत्व से मुखातिब होंगे। मास्को हमेशा भारत के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण रहा है और नेहरू युग इसका प्रमाण है। इस दौरान भारत और रूस के बीच मजबूत संबंधों की नींव पड़ी। यह कहने में कुछ भी गलत नहीं कि दिल्ली की गुटनिरपेक्ष छवि के कारण पचास और साठ के दशक में मास्को का झुकाव भारत की तरफ बढ़ा। दोनों देशों के बीच यह संबंध तब और मजबूत हुए जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत-रूस मैत्री सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए। यह समय दोनों देशों के लिए द्विपक्षीय संबंध की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ। मास्को के साथ भारत की बढ़ी सहभागिता का परिणाम यह हुआ कि 1971 में पाकिस्तान पर भारत को शानदार सैन्य विजय हासिल हुई और बांग्लादेश का जन्म हुआ। हालांकि यह भी एक सच है कि इसी कालखंड में गलत सलाह मिलने के कारण 1979 में सोवियत संघ अफगानिस्तान में दाखिल हुआ जिस कारण दक्षिण एशिया में अशांति की शुरुआत हुई। इससे समूचे क्षेत्र में तनाव बढ़ा और युद्ध की परिस्थितियां पैदा हुईं। दुर्भाग्य से इन्हीं परिस्थितियों में एक दशक बाद सोवियत संघ अंतत: विखंडित हो गया। सोवियत संघ के विखंडन के पश्चात भी रूस और भारत के बीच सुरक्षा और सामरिक सहयोग का बंधन मजबूत बना रहा।
इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक परमाणु और अंतरिक्ष के क्षेत्र में परस्पर सहभागिता के रूप में देखा जा सकता है। इसी तरह रूस ने भारत को परमाणुचालित पनडुब्बियां मुहैया कराईं। इस क्रम में 1988 में रूस से मिली पहली आइएनएस पनडुब्बी और स्क्वाड्रन लीडर राकेश शर्मा की अंतरिक्ष यात्र महत्वपूर्ण हैं। 1दिसंबर 1991 में एक नाटकीय घटनाक्रम में एक विश्व शक्ति सोवियत संघ का बिखराव हो गया और बोरिस येल्तसिन के नेतृत्व में कम क्षेत्रफल वाले रूस का अस्तित्व सामने आया। भारत में आर्थिक सुधारों को सफलतापूर्वक नई दिशा देने वाले पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने एक ऐसे समय जब मास्को शीत युद्ध खत्म होने के बाद भू-राजनीतिक सुनामी के दौर से गुजर रहा था तब उन्होंने दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को बनाए रखा और इसमें कोई कमजोरी नहीं आने दी। नई व्यवस्था में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंधों को वापस पटरी पर लाने में कुछ समय लगा और इसमें राष्ट्रपति पुतिन की अहम भूमिका रही। शीत युद्ध खत्म होने के तत्काल बाद मास्को घरेलू समस्याओं में उलझ गया था। इन हालात में उसे यह भी देखना था कि रूस यूरोप के प्रति अपनी प्राथमिकताओं और वचनबद्धता पर ध्यान दे अथवा अपने परंपरागत सहयोगियों के साथ संबंधों को मजबूत बनाए। कुछ समय के लिए मास्को ने भारत पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, लेकिन रूस में नेतृत्व परिवर्तन होने के बाद जब पुतिन राष्ट्रपति बने तो अक्टूबर 2000 में अपनी भारत यात्र के दौरान उन्होंने भारत-रूस सामरिक मैत्री के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। रूस के साथ हुए इस नए समझौते से शीत युद्ध के बाद पुन: मास्को और नई दिल्ली के संबंध मजबूत हुए और द्विपक्षीय संबंधों का पूरा आयाम ही बदल गया। दिसंबर 2010 में दोनों देशों के संबंधों में तब और मजबूती आई जब भारत और रूस ने विशिष्ट सामरिक सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए। भारत और रूस की कई देशों के साथ सामरिक संधियां हैं, लेकिन यह एकमात्र द्विपक्षीय संधि है जो दोनों देशों के बीच परस्पर आदान-प्रदान वाले विशिष्ट सहयोग पर आधारित है।
कुछ आलोचक यह सवाल उठा सकते हैं कि वर्तमान राजनीतिक चुनौतियों के संदर्भ में क्या मनमोहन सिंह और पुतिन की बैठक सार्थक होगी? वर्तमान बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में भारत और रूस अपने लिए समान राजनीतिक और सामरिक जमीन को तलाशने की कोशिश करेंगे जिसमें मास्को और नई दिल्ली के बीच संबंधों का तानाबाना मुख्य निर्धारक भूमिका निभा सकता है। नए समीकरणों में रूस, भारत और चीन के बीच त्रिकोणीय संबंध भी कम महत्वपूर्ण नहीं होंगे। चीन के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों के अलावा यूरोप, जापान तथा अमेरिका के साथ रिश्ते भी क्षेत्रीय स्थिरता और समृद्धि को प्रभावित करेंगे। स्पष्ट है कि भारत और रूस के बीच राजनीतिक और सुरक्षा संबंधों में मजबूती लाने के पर्याप्त आधार हैं। इसी कड़ी में सैन्य सामग्री की आपूर्ति की दृष्टि से भी रूस भारत के लिए महत्वपूर्ण बना रहेगा। यह सही है कि भारत पश्चिमी देशों, विशेषकर अमेरिका और फ्रांस पर सैन्य हथियारों की आपूर्ति के लिए निर्भरता बढ़ा रहा है, लेकिन भारत की 70 फीसद सैन्य आवश्यकताओं की आपूर्ति रूस से होती है।
भारत की सामरिक सैन्य क्षमताओं में वृद्धि रूस की परमाणु पनडुब्बियों के सहयोग से पूरी हो रही हैं। यह सही है कि विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य को लेकर नई दिल्ली को निराशा हुई है, लेकिन यह भारत के लिए एक मूल्यवान सीख भी है। भारत के लिए ऊर्जा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है और इस क्रम में रूसी परमाणु रिएक्टरों की आपूर्ति को लेकर मनमोहन सिंह की यात्र काफी महत्वपूर्ण होगी। रूस से हाइड्रोकार्बन का आयात एक बड़ा मसला है, लेकिन यह कैसे संभव हो, यह एक बड़ी चुनौती है। 1एक तथ्य यह भी है कि दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। अमेरिका और चीन की तुलना में यह व्यापार बहुत कम है, जिसे करीब 60 अरब डॉलर तक पहुंचाया जा सकता है। 2010 के समझौते के मुताबिक यदि मास्को और नई दिल्ली अपने संबंधों को नई ऊंचाई पर ले जाना चाहते हैं तो दोनों देशों को वर्तमान व्यापार को अधिक संतुलित बनाना होगा। ऊर्जा, फार्मा और आइटी के क्षेत्र में काफी संभावनाएं हैं। व्यापार के अलावा पश्चिम एशिया और पाकिस्तान-अफगानिस्तान की स्थितियों पर ध्यान देना होगा। ईरान के ताजा हालात के मद्देनजर भी दोनों देशों के लिए एक अवसर है। कुल मिलाकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मास्को यात्र से ही बीजिंग वार्ता की दिशा तय होगी।
इस आलेख के लेखक सी. उदयभाष्कर हैं
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