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नेपाल में पिछले रविवार 28 अगस्त को नेपाली संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) उम्मीदवार बाबूराम भट्टराई 35वें प्रधानमंत्री के रूप में जबर्दस्त जीत हासिल की। उन्होंने नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार रामचंद्र पौडल को करारी शिकस्त दी। 57 वर्षीय माओवादी नेता बाबूराम भट्टराई नेपाल में तीन साल के अंतराल में चौथे प्रधानमंत्री बने हैं। गौरतलब है कि मतदान से पहले उनकी पार्टी को पांच क्षेत्रीय पार्टियों के एक गठबंधन का समर्थन हासिल हो गया था। उनके समर्थन जिन पार्टियों ने अहम भूमिका निभाई, उनमें तराई इलाके वाली पांच पार्टियों वाला मधेसी मोर्चा शामिल हैं। इसके अलावा एक छोटी वामपंथी पार्टी, जनमोर्चा ने भी भट्टराई के पक्ष में वोटिंग की। इस पार्टी के पांच सांसद हैं। इस तरह भट्टराई की जीत सुनिश्चित हुई। जहां तक बाबू राम भट्टराई की बात है तो वे छात्र जीवन से ही काफी कुशाग्र बुद्धि के रहे हैं। भट्टराई ने नई दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय से 1986 में पीएचडी की थी और उससे पहले चंडीगढ़ के पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री ली थी।
उनकी इसी काबिलियत के चलते नेपाल समेत पूरी दुनिया में यह कहा जा रहा है कि क्या बाबू राम भट्टराई नेपाल में एक मजबूत सरकार का सपना पूरा कर पाएंगे? हालांकि उन्होंने यह जरूर कहा है कि उनकी नई सरकार की चार प्राथमिकताएं हैं- मसलन सभी पार्टियों व पक्षों का समर्थन हासिल करने के प्रयास किए जाएंगे और 45 दिनों में शांति प्रक्रिया पूरी हो जाएगी। वहीं संविधान का मसौदा विभिन्न पक्षों की आम सहमति के बाद जारी किया जाएगा। सरकार की कार्यक्षमता आगे बढ़ाने के साथ-साथ सरकार की छवि सुधारी जाएगी। अर्थव्यवस्था और सामाजिक सुधार पर भी जोर दिया जाएगा। उधर चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने बाबूराम भट्टराई को बधाई देते हुए कहा कि चीन और नेपाल मित्र पड़ोसी देश हैं। दोनों देशों के लोगों के बीच दोस्ती भी काफी पुरानी है। चीनी प्रधानमंत्री ने उम्मीद जताई कि दोनों देश मैत्रीपूर्ण संबंधों, आपसी लाभ और सहयोग को और मजबूत करने के लिए एक साथ प्रयास करेंगे। इससे चीन-नेपाल के बीच व्यापक सहयोग व साझेदारी पूरी तरह से स्थायी और स्थिर रूप से विकसित होगी। लेकिन यहां सबसे बड़ा सवाल यह है कि बेटी-रोटी कि परंपराओं से जुड़े भारत के प्रति नेपाल की नई हुकूमत की क्या सोच है? वर्ष 2007 में जब नेपाल में तत्कालीन राजा ज्ञानेंद्र वीर विक्रम शाह के खिलाफ नेपाल की जनता सड़कों पर उतर आई थी, उस वक्त शाही परिवार ने वक्त की नब्ज समझते हुए अपनी हठधर्मिता का त्याग कर जनभावना को समझा और नेपाल में लोकतंत्र की नई इबारत लिखी गई। उस वक्त नेपाल में राजशाही के खिलाफ जिस तरह का जनज्वार देखने को मिला, उससे फौरी तौर पर यह समझा गया कि वाकई नेपाल एक नए युग कि ओर करवट ले रहा है। वर्षो तक भूमिगत रहकर अपना संगठन चलाने वाले पुष्प कमल दहल ने जब प्रधानमंत्री कि शपथ ली तो उस वक्त यह समझा गया कि वे नेपाल को नई राह कि ओर ले जाएंगे।
भारत के लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह बात यह रही कि प्रधानमंत्री बनते ही माओवादी नेता प्रचंड ने परंपरागत भारत यात्रा को नजरअंदाज कर चीन की यात्रा की। हिंदुस्तान के सियासी हलके में प्रचंड के इस कदम की काफी आलोचना हुई। यही नहीं, नेपाल के कई राजनेताओं ने इसे गलत करार दिया। इस बाबत आखिरकार प्रचंड को इस बात की सफाई देनी पड़ी कि उनकी चीन यात्रा को भारत विरोधी न समझा जाए। बहरहाल, जब बतौर प्रधानमंत्री प्रचंड नई दिल्ली आए तो उन्होंने मीडिया के सामने इस बात की तस्दीक करते हुए कहा की भारत ओर नेपाल के बीच सनातन रिश्ता है, जिसे चाहकर भी खारिज नहीं किया जा सकता। खैर, जनाब प्रचंड भारत-नेपाल रिश्तों के जानिब कई ऐसे अनुत्तरित सवाल छोड़ गए, जो आज भी न सिर्फ भारत बल्कि नेपाल के नेताओं को भी अचंभे में डालती है। कुल मिलाकर नेपाल की गैर वामपंथी पार्टी इस बात को बखूबी समझती है कि नए नेपाल का हित बगैर भारत के सहयोग के बिना मुमकिन नहीं। काश, यही बात नेपाल में मौजूद साम्यवादी भी समझें तो बेहतर है। बहरहाल, लंबे समय से चल रहे राजनीतिक असमंजस के बाद नेपाल में बाबूराम भट्टराई की जो सरकार बनी है, उससे न सिर्फ वहां की जनता, बल्कि नई दिल्ली की सरकार भी खास उम्मीद पाले हुए है। दरअसल, भारत की सबसे बड़ी चाहत है कि नेपाल में एक मजबूत और टिकाऊ सरकार बने, माओवादी चाहे जो भी सोचें, लेकिन नई दिल्ली की सोच यही है।
रंजन हैं
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