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मधेशी राज्य पर खामोशी क्यों

जागरण मेहमान कोना
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संकट के भंवर में फंसा नेपाल एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जो आने वाले समय में नेपाली राजनीति के भविष्य की दिशा तय करेगा। प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने राष्ट्रीय सरकार का पुनर्गठन करके पार्टियों के साथ हुए समझौते को पूरा किया। तय हुआ है कि प्रधानमंत्री भट्टराई संविधान बनते ही हस्तीफा दे देंगे और नेपाली कांग्रेस के नेतृत्व में संविधान सभा में संविधान पेश किया जाएगा। यह भी तय हुआ है कि एक साल के अंदर नेपाल में चुनावी प्रक्रिया को अंजाम दे दिया जाएगा। भले ही प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने माओवादी लड़ाकों को नेपाली सेना में शामिल करके एक बड़ी बाधा पार कर ली, लेकिन वास्तविकता यही है कि मधेशी प्रदेश का मुद्दा अब भी अनुत्तरित है। आगामी 27 मई को नेपाली कांग्रेस संविधान सभा में कैसा संविधान पेश करेगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल है। लेकिन यह तो निश्चित है कि संविधान पास कराने के लिए सांसदों की खरीद-फरोख्त की जरूरत होगी। दरअसल, नेपाली राजनीति संविधान सभा के चक्रव्यूह में कैद हो चुकी है। मिली-जुली राजनीति में सविधान सभा सभी पार्टियों के लिए मजबूरी है।

 

 नेपाल में नए संविधान की आहट

 

नेपाल में शांति-प्रक्रिया और संविधान सभा का समीकरण और अधिक उलझ गया है। नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों से प्रतिनिधित्व करते हुए संविधान सभा में पहुंचे नेपाल के 24 दल अब 31 दलों में विभाजित हो चुके हैं। सत्ताधारी माओवादी नेतृत्व वाली सरकार के अस्तित्व में आते ही विवादों ने जन्म लेना शुरू कर दिया है। पार्टी के बुजुर्ग नेता मोहन वैद्य किरण कुर्सी का सपना भंग होते ही विरोध की रणनीति पर उतर आए हैं। माले एवं नेपाली कांग्रेस उनके अडि़यल रवैये से शुरू से ही खफा हैं। नेपाल की सर्वोच्च अदालत ने संविधान सभा के कार्यकाल को बढ़ाए जाने के सभी कानूनी रास्ते बंद कर दिए हैं। सर्वोच्च अदालत ने सरकार की उस मांग को ठुकरा दिया, जिसे संसद की तरफ से सभा प्रमुख सुबास नेम्बांग ने पुनर्विचार के लिए दायर किया था। सुप्रीमकोर्ट के इस फैसले के बाद नेपाली राजनीतिक दलों के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं है। प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई के सिर पर कांटों भरा ताज है, जो आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें लहूलुहान कर रहा है।

 

माओवादी पार्टी के उपाध्यक्ष मोहन वैद्य ने शुरू में एकीकृत माओवादी एवं संयुक्त लोकतंत्रवादी मधेशी मोर्चा के साथ हुए चार सूत्रीय समझौते का स्वागत किया, लेकिन वह केवल दिखाने के लिए ही था। एकीकृत माओवादी और बाबूराम भट्टराई की सरकार के साथ हुए समझौते में ऐसा कुछ नहीं है, जिसे नेपाल की एकता, अखंडता के प्रतिकूल माना जाए। मोहन वैद्य किरण ने प्रधानमंत्री भट्टराई के विकल्प में जनजाति नेता राम बहादुर थापा बादल का नाम सुझाया, जो दो साल पहले ही असफल रक्षामंत्री साबित हो चुके हैं। माओवादी नेता एकजुट रहें या टुकड़ों में विभाजित हो जाएं, इस तमाशे को देखने की दिलचस्पी अब नेपाली जनता में नहीं बची। मात्र दो वर्ष के लिए गठित हुई संविधान सभा ने चार वर्ष का समय पार कर लिया। इसके बावजूद संविधान बनाने के कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। नेपाल के तमाम दलों में असहमति के बीच यदि कोई साझा दस्तावेज जारी भी कर दिया गया तो उसकी कितनी उम्र होगी, कहा नहीं जा सकता है।

 

प्रधानमंत्री भट्टराई का ग्राफ नीचे गिर रहा है। माओवादी पार्टी में अंतर्कलह है तो आंतरिक तनाव से मधेशी मोर्चा भी अछूता नहीं। 12 अप्रैल को लगभग 10 हजार माओवादी लड़ाकुओं ने अपने हथियार नेपाली सेना को सौंप दिए। इसके लिए माओवादी अध्यक्ष प्रचंड पर भी नेपाल के विभिन्न पार्टियों द्वारा समय-समय पर दबाव पड़ता रहा है। पार्टी अध्यक्ष ने शांति-प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए छावनियों को सरकार के नियंत्रण में दे दिया। प्रचंड के नेतृत्व में ही नेपाल में हथियार बंद क्रांति की शुरुआत हुई थी। अब उन्हीं के नेतृत्व में इसका पर्दा गिरा दिया गया है। सूत्रों की मानें तो माओवादी उपाध्यक्ष मोहन किरण वैद्य प्रचंड और भट्टराई के कट्टर विरोधी बन चुके हैं। उन्हीं के नेतृत्व में माओवादी छावनियों में मौजूद हथियारों को लूटने की योजना बना रहे थे। गुप्त बैठक करके मोहन किरण वैद्य ने क्रांति के दूसरे चरण के आरंभ का निर्देश तक दे डाला था। जनवादी संविधान की इच्छा रखने वाले वैद्य ने 21 अप्रैल से 15 मई तक नेपाल में बंद का ऐलान किया है। प्रधानमंत्री भट्टराई और प्रचंड का मोहन किरण वैद्य के साथ टकराव नेपाल में क्या रंग लाएगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल तो हथियार डाल चुके लड़ाकू मोआवादियों को सुरक्षा तंत्र में शामिल किया जा चुका है।

 

 लेखिका रुचि सिंह नेपाल मामलों की जानकार हैं

 

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