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अन्ना के रंग में क्यों रंग गई नई पीढ़ी

जागरण मेहमान कोना
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Umeshअन्ना के आंदोलन के विविध आयाम हैं। देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमानस को खड़ा करने के अलावा अन्ना के आंदोलन ने एक और सीख दी है कि साख वाला व्यक्ति अगर अगुआई करे तो उसके साथ नई पीढ़ी भी जुड़ने को और अनुशासित रहने को तैयार है, जिन लोगों ने 1990 में पूरे उत्तर भारत में फैले आरक्षण विरोधी आंदोलन को देखा है, उन्हें पता है कि उस समय क्रोध और क्षोभ से भरे नौजवानों ने राष्ट्रीय और निजी संपत्ति को कितना नुकसान पहुंचाया था। तब आंदोलनकारी युवाओं की एक ही कोशिश होती थी कि कब मौका मिले और अपना गुस्सा सरकारी संपत्ति पर निकालें। यह सच है कि तब ये आंदोलन स्वत:स्फूर्त थे। उनका कोई नेतृत्व नहीं था, लेकिन उस समय युवाओं में गुस्सा था। उस समय आंदोलन में सक्रिय रहे लोग आज जिंदगी के तमाम मोर्चो पर काफी आगे निकल चुके हैं। राजनीति में कई लोगों ने अपनी पहचान बना ली है या फिर वे भारतीय राजनीति को दिशा देने की स्थिति में हैं। आज वे वकील हैं, पत्रकार हैं, अधिकारी हैं और वे मानते हैं कि अन्ना के आंदोलन ने देश को अनुशासन का नया पाठ पढ़ाया है और निश्चित तौर पर नई पीढ़ी में यह अनुशासन खासतौर पर दिख भी रहा है। यहां ध्यान देने की बात यह है कि नब्बे में आंदोलनरत पीढ़ी उदारवाद के दौर की पीढ़ी नहीं थी। उनमें से ज्यादातर का जन्म 1967 में शुरू हुए गठबंधन सरकारों के दौर से लेकर जयप्रकाश नारायण के आंदोलन के बीच हुआ था। उस दौर में कांग्रेस के रोमानी आदर्शवादी सपने से देश का मोहभंग हो रहा था।


स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्य ध्वस्त हो रहे थे। लोहिया की अगुआई में देश का नौजवान नया पाठ पढ़ रहा था। स्वतंत्रता आंदोलन के क्षरित हो रहे मूल्यों के बावजूद लोहिया ने भी नए तरह के आदर्शवाद का पाठ पढ़ाया था। कहना न होगा कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू किए जाने के बाद जिस वर्ग में गुस्सा था उस पर भी लोहियावादी आदर्शवाद का असर था। इसके बावजूद 1990 में खासतौर पर उत्तर भारत में सार्वजनिक संपत्ति का जबर्दस्त नुकसान हुआ। ध्यान देने की बात यह है कि अपने आंदोलन की अगुआई कर रहे अन्ना ही सिर्फ पुरानी और स्वतंत्रता आंदोलन के दौर की पीढ़ी के हैं। उनकी टीम के ज्यादातर लोग या तो कांग्रेस के रोमानी आदर्शवाद के क्षरण के दौर में पैदा हुए हैं या जयप्रकाश आंदोलन के दौर में, लेकिन उनका सबसे ज्यादा साथ निभा रहा वह युवा है, जो उदारीकरण के दौर में पैदा हुआ है। उदारीकरण के दौर में पैदा युवाओं से पिछली पीढ़ी को शिकायत रही है कि वह अनुशासनहीन है, उसके लिए जिंदगी के मूल्यों का कोई मतलब नहीं है और उसे लगता है कि आज की पीढ़ी में भोग की ही भावना है। गांवों से लेकर महानगरों तक की सड़कों, पार्को और खेत-खलिहानों में आए-दिन होने वाली घटनाओं ने नई पीढ़ी को इस नई अवधारणा को बनाने में मदद दी है, लेकिन अन्ना के आंदोलन ने इसे बदलकर रख दिया है। उसी उदारवाद के दौर की खाओ-पियो-मौज करो के जीवन दर्शन के साथ पली-बढ़ी पीढ़ी का अन्ना के आंदोलन में अनुशासन और सेवाभाव देखकर हैरत होती है।


आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान मंडल कमीशन के पक्ष में माहौल बनाने के आंदोलन में शामिल रहे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र नेता विनोद सिंह भी मानते हैं कि उदारवाद के दौर में पैदा पीढ़ी ने खुद को लेकर बनी सामाजिक अवधारणा को झुठला दिया है। विनोद सिंह ने अन्ना के आंदोलन की ही तर्ज पर एक दौर में स्वच्छ भारत और स्वच्छ राजनीति को लेकर राजघाट से लेकर जयप्रकाश नारायण के गांव तक नौजवानों की साइकिल यात्रा करने की एक साल पहले योजना बनाई थी, लेकिन जिस कांग्रेस में वे सक्रिय हैं, वहां उसे मंजूरी नहीं मिली। शायद तब कांग्रेस को लगा होगा कि भ्रष्टाचार को कौन पूछता है, लेकिन अन्ना के आंदोलन ने साबित कर दिया है कि नई पीढ़ी भी भ्रष्टाचार को लेकर बेहद चिंतित है। दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में रैलियों के दौरान लूटपाट की घटनाएं होती रही हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपने छात्र जीवन के दौरान मैंने कई ऐसी घटनाएं देखी हैं, जब लोग रैलियों का सहारा अपना निजी बदला चुकाने के लिए लेते थे। रैलियों के बाद गंदगी की भरमार रहती थी, लेकिन अन्ना के आंदोलन ने इस मिथक को भी तोड़ दिया है। वैसे महाराष्ट्र में एक परंपरा रही है कि वहां रैलियों के बाद गंदगी कम से कम दिखती है।


2002 में रत्नागिरी जिले के एक दौरे में मैंने देखा कि करीब एक लाख लोगों की रैली खत्म होने के बाद भी रैली वाले मैदान में कोई गंदगी नहीं थी। अन्ना अपने आंदोलन के साथ दिल्ली में महाराष्ट्र की वही परंपरा लेकर आए हैं। हैरत इस बात की है कि गंदगी को देखकर नाक-भौं सिकोड़ने वाली नई पीढ़ी खुद आज गंदगी साफ करते हुए दिख रही है। दिल्ली में अब तक अन्ना की अगुआई में जितनी भी रैलियां हुई हैं, उनमें सागर जैसी गहराई और नदी जैसा प्रवाह दिखा है। बरसाती नदियों की तरह अनुशासनहीनता नजर नहीं आई है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? दिल्ली हाईकोर्ट में प्रैक्टिस कर रहे कुछ वकीलों की मानें तो यह सब अन्ना का प्रताप है। हालांकि अन्ना खुद इसका श्रेय नहीं लेते, बल्कि किसी भाग्यवादी की भांति ईश्वर को इसका श्रेय देते हैं। दिलचस्प बात यह है कि भाग्यवाद से ज्यादा कर्म पर भरोसा करने वाली नई पीढ़ी इसी अन्ना पर भरोसा कर रही है। दरअसल अन्ना की ताकत उनकी सादगी और निजी जीवन का निष्कलंक होना है। सिर्फ भारत ही नहीं, उन उदारवादी और उपभोक्तावादी समाजों में भी लोग अपने नेताओं को पाक-साफ और चरित्रवान देखना चाहते हैं जहां के समाज में भोग कोई मुद्दा नहीं रहा। हैरत भी इसी को लेकर हो रही है कि भारतीय समाज की भोगवादी नई पीढ़ी भी अन्ना के अनुशासन में खुद को खुद-ब-खुद बंधा पा रही है। अन्ना कहते हैं कि त्याग करो तो नई पीढ़ी त्याग करने के लिए तैयार है।


गांधी ने अपने आंदोलन के जरिये सिर्फ राजनीति को ही बदलने की कोशिश नहीं की थी, बल्कि उन्होंने समाज में आमूल बदलाव के कई मोर्चो पर कामयाब कोशिश की थी। 74 साल के बूढ़े अन्ना हजारे आज वही काम कर रहे है। अन्ना ने यह मिथक भी तोड़ा है कि सामाजिक कर्म में सफल होने के लिए महानगरीय होना जरूरी है। उदारवाद ने अपने देश को भाषाई गुलामी का नया संदेश दिया है, जिसे अख्तियार करना नई पीढ़ी के लिए न सिर्फ कैरियर, बल्कि सामाजिक रसूख की बात हो गई थी, लेकिन अन्ना तो कायदे से हिंदी भी नहीं बोल पाते। फिर भी उनकी आवाज अंग्रेजीभाषी नई पीढ़ी न सिर्फ सुन रही है, बल्कि उस पर अमल भी कर रही है। इससे साफ है कि नई पीढ़ी को ऐसा हर व्यक्ति पसंद है, जो अपने अंतर्मन से सही बात बोलता है। भले ही उसकी भाषा उदारवाद की प्रतीक अंग्रेजी न हो। जो काम लोहिया का उग्र अंग्रेजी हटाओ आंदोलन नहीं कर पाया, उसे अन्ना की सादगी से भरी ओजस्वी अपील ने कर दिखाया है। तो क्या यह मान लिया जाए कि देश में नए इतिहास की शुरुआत हो रही है और देश अन्ना के दिखाए राह पर ही आगे बढ़ेगा, क्योंकि उनका साथ भविष्य की सबसे ज्यादा संख्या वाली नई पीढ़ी दे रही है। लोहिया और जयप्रकाश के आंदोलनों से ऐसी ही उम्मीद पाली गई थी, लेकिन मौका मिलते ही उस पीढ़ी ने अपने मूल्य भुला दिए। इसलिए अन्ना समर्थकों की नई पीढ़ी को लेकर भी फिलहाल मुकम्मल आकलन कर पाना संभव नहीं।


लेखक उमेश चतुर्वेदी स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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