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आत्मघाती राह पर अहंकारी सत्ता कहते हैं कि राजनीति बड़ी निष्ठुर होती है। इस सचाई को मनमोहन सिंह से बेहतर कौन समझ सकता है। निकले थे कहां जाने के लिए पहुंचेगे कहां मालूम नहीं..। भारत में आर्थिक सुधारों के मसीहा, काजल की कोठरी में बेधड़क चलने वाला एक अर्थशास्त्री राजनेता जिसकी चादर से दाग का कोई नाता नहीं था। राजनीति में मनमोहन सिंह की करीब दो दशक की कमाई ढाई साल में भारत के शेयर बाजार की पूंजी की तरह जीवन के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है। मनमोहन सिंह ने अपने निजी फायदे के लिए कुछ नहीं किया, पर सवाल है कि किसके लिए और किसके कहने पर किया। वह ऐसी सरकार के मुखिया हैं जिसके किए का जिम्मा लेने को कोई तैयार नहीं है। उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी हो, सहयोगी दल, विपक्षी दल, कारपोरेट जगत या आम जनता-जो जब चाहता है सरकार से नाता तोड़ या जोड़ लेता है।
दो इंजन [सोनिया-मनमोहन] वाली यह ट्रेन पांच साल अपनी पटरी पर सरपट चलती रही। पहले कार्यकाल में इसे चलाने में वामपंथी दलों की अहम भूमिका रही। उनका सरकार से नाता टूटा और सरकार जैसे अपना रास्ता ही भूल गई। केंद्र सरकार किस मुद्दे पर कब क्या रुख अपनाएगी, इसके बारे में तार्किक रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं है। सरकार जैसे आंख पर पट्टी बांधकर चल रही है। वह पहले अन्ना हजारे और उनके साथियों की उपेक्षा करती है और फिर उनसे बात करने के लिए पांच मंत्रियों की टीम बनाती है। फिर अचानक बातचीत टूट जाती है। रामदेव अचानक सरकार की आखों का तारा बन जाते हैं। सरकार को लगता है कि अन्ना से निपटने के लिए एक हथियार मिल गया है। रामदेव अन्ना के साथ जाने का संकेत देते हैं तो आधी रात को आंसू गैस के गोले और लाठियों से उनके लोगों का स्वागत होता है।
ऐसा लगता है कि मनमोहन सिंह और उनके साथी मंत्री शासन की कला ही भूल गए हैं। जनतंत्र में किसी भी सरकार के हित में होता है कि वह जनता की भावनाओं के प्रति संवेदवनशील रहे। जनता जब किसी दल या दलों के गठबंधन को सत्ता सौंपती है तो इस अपेक्षा के साथ कि सरकार सर्वजन हिताय की नीति पर चलेगी। इसमें सरकार में शामिल किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के अहंकार के लिए कोई जगह नहीं होती। जनता सत्तारूढ़ लोगों की गलतियां माफ करने के लिए तैयार रहती है, पर वह अपने नेताओं के अहंकार को स्वीकार नहीं करती।
अहंकार सबसे पहले विवेक हर लेता है। पिछले एक साल से संसद में जो कुछ हो रहा है उसमें विपक्ष की गलतियों से ज्यादा बड़ी भूमिका सरकार के अहंकार की है। स्पेक्ट्रम घोटाले पर जेपीसी की मांग हो या किसी विशेष प्रावधान के तहत सदन में चर्चा का मामला, सरकार पहले अड़ी फिर झुकी। संवाद संसदीय जनतंत्र का सबसे अहम तत्व है। मनमोहन सिंह की सरकार का शायद संवाद में यकीन नहीं है। सरकार की संवादहीनता और अहंकार का सबसे ताजा उदाहरण खुदरा क्षेत्र में सीधे विदेशी निवेश का मामला है। मनमोहन सिंह ने इस मुद्दे पर अपनी ही कैबिनेट के मतभेद को नजरअंदाज किया। अपने सहयोगी दलों को विश्वास में लेने की जरूरत नहीं समझी। विपक्ष के साथ संवाद को यह सरकार गैर जरूरी मानती है। नतीजा यह हुआ कि सरकार की किरकिरी हुई। सरकार नीतिगत फैसले नहीं ले रही। महंगाई बढ़ रही है, विकास दर घट रही है और रुपया डालर के मुकाबले लगातार कमजोर हो रहा है। रिजर्व बैंक पहले ब्याज दर बढ़ाता गया ताकि महंगाई पर काबू पाया जा सके। रिजर्व बैंक के कदम के समर्थन में सरकार ने कोई कारगर कदम नहीं उठाया। रिजर्व बैक के कदमों का महंगाई पर तो असर हुआ नहीं, बल्कि विकास दर जरूर घट गई। अब मंदी का खतरा मुंह बाए खड़ा है। कारपोरेट जगत बार-बार सरकार को जगाने की कोशिश कर रहा है, पर मनमोहन सिंह और उनके साथियों के पास सरकार की अकर्मण्यता और नाकामी के जवाब में दो तर्क हैं। एक गठबंधन धर्म की मजबूरी के चलते सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। दूसरा तर्क है कि विपक्ष के रवैये के कारण सरकार कुछ नहीं कर पा रही। सरकार अपनी सारी नाकामियों का ठीकरा सहयोगी दलों और विपक्ष पर फोड़ रही है। विपक्ष और सरकार के बीच संवाद से क्या हो सकता है, इसका सबसे ताजा उदाहरण पेंशन बिल है। वित्त मंत्री ने दोनों सदनों में भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से बात की और सरकार को पेंशन बिल पास कराने में कोई दिक्कत नहीं हुई। संप्रग-2 में एक के बाद एक घोटाले सामने आते जा रहे हैं और सरकार जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई है। कांग्रेस और सहयोगी दलों को मतदाताओं ने पहले से ज्यादा सीटें देकर सत्ता में भेजा था। सरकार कैसे चलाएं, यह किसी को नहीं बताया जाता। जनता की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरने वाली सरकार को मतदाता बाहर का रास्ता दिखा देता है। अन्ना हजारे को जितने बड़े पैमाने पर जन समर्थन मिल रहा है उसे लोगों का क्षणिक उबाल मानकर टकराव का रास्ता कांग्रेस के लिए घातक साबित हो सकता है।
लोकपाल का मामला हो या भ्रष्टाचार विरोधी दूसरे कानूनों और उपायों का- सरकार आम जनमानस के खिलाफ खड़ी नजर आ रही है। कांग्रेस में इस मुद्दे पर थोड़ी दुविधा नजर आ रही थी, पर बुधवार को कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में लोकपाल के मुद्दे पर सोनिया गांधी के रुख ने पाले खींच दिए हैं। सरकार और पार्टी ने तय कर लिया है कि संवाद नहीं अब रण होगा। दरअसल सरकार और अन्ना हजारे के साथियों की सोच में एक बुनियादी अंतर है। सरकार के रवैये से लगता है कि वह मान चुकी है कि विकास और भ्रष्टाचार साथ-साथ चलते हैं। अन्ना के साथियों का कहना है कि भ्रष्टाचार के बिना भी विकास संभव है। सरकार कोशिश तो करे।
लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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