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संविधान की आड़ में राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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pradeep Singhपिछले करीब एक दशक में गुजरात राजनीति, सांप्रदायिकता, विकास, केंद्र-राज्य संबंध और न जाने किन-किन विषयों की प्रयोगशाला बन गया है। यह राज्य भारतीय जनता पार्टी का ऐसा अभेद्य किला बन गया है जिसे ढहाने के लिए कांग्रेस नए-नए प्रयोग करती रहती है। लोकायुक्त की नियुक्ति कांग्रेस के इसी प्रयोग का हिस्सा है। कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि 2002 के गुजरात दंगों के बाद से उसने नरेंद्र मोदी पर जब भी हमला किया है वह और ताकतवर होकर उभरे हैं। राजभवन का इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करना कांग्रेस की पुरानी आदत है। राज्यपाल अगर चुनाव जिता सकते तो कांग्रेस किसी राज्य में कभी न हारती। लेकिन मौजूदा विवाद देश के दोनों राष्ट्रीय दलों की राजनीतिक शैली पर सवाल खड़े करता है। गुजरात में पिछले सात साल से कोई लोकायुक्त नहीं है। यह सुशासन का दावा करने वाली नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए कोई गर्व की बात तो नहीं ही हो सकती। नरेंद्र मोदी देश के उन थोड़े से मुख्यमंत्रियों में हैं जिन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं है। फिर उनके राज्य में लोकायुक्त क्यों नहीं है, यह न केवल मुख्यमंत्री बल्कि भारतीय जनता पार्टी को भी सोचना चाहिए। गुजरात के लोकायुक्त कानून के मुताबिक राज्य हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए नाम की सिफारिश करते हैं और राज्यपाल मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता से राय-मशविरा करने के बाद फैसला करते हैं।


मुख्य न्यायाधीश ने हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश आरए मेहता के नाम की सिफारिश की। राज्य सरकार ने इस नाम पर आपत्ति जताई। मोदी सरकार का कहना था कि मेहता राज्य सरकार के खिलाफ कई प्रदर्शनों में शिरकत कर चुके हैं। जो व्यक्ति पहले से ही राज्य सरकार के खिलाफ हो उससे निष्पक्षता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। मुख्य न्यायाधीश ने सरकार के इस एतराज को खारिज कर दिया। उसके बाद राज्यपाल कमला बेनीवाल ने एक दिन अचानक आरए मेहता की नियुक्ति की घोषणा कर दी। राज्य सरकार राज्यपाल की इस कार्रवाई को संविधान विरोधी बताते हुए इसके खिलाफ अदालत चली गई है। मंगलवार को भाजपा ने संसद के दोनों सदनों में इस मामले को उठाया और सदन की कार्यवाही नहीं चलने दी। इस मामले में दोनों पक्षों के अपने तर्क हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार गुजरात के लोकायुक्त कानून के प्रावधानों का हवाला देकर राज्यपाल के फैसले को सही बता रही है। उसका कहना है कि इस कानून में मुख्यमंत्री या मंत्रिपरिषद से मंत्रणा करने की कोई व्यवस्था नहीं है। भाजपा का तर्क है कि राज्यपाल कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने के लिए संवैधानिक रूप से बाध्य हैं। यह भी सच है कि राज्यपाल मौजूदा कानून के रहते 2003 तक (गुजरात में लोकायुक्त कानून 1986 में बना था) लोकायुक्त की नियुक्ति में मुख्यमंत्री से मशविरा करते रहे हैं। राज्यपाल, केंद्र सरकार और कांग्रेस एक ही पाले में खड़े हैं। कानून और संविधान के नजरिए से किसका पक्ष सही है और किसका गलत यह तो अब अदालत तय करेगी। लेकिन एक सवाल का जवाब तो केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी को देना पड़ेगा। संसद इस समय लोकपाल विधेयक का प्रारूप तय कर रही है। क्या उसमें ऐसी व्यवस्था होगी कि लोकपाल की नियुक्ति में प्रधानमंत्री या केंद्रीय मंत्रिपरिषद से कोई सलाह नहीं ली जाएगी। क्या ऐसे किसी प्रावधान की मांग को कांग्रेस पार्टी स्वीकार करेगी। क्या सरकार लोकपाल कानून में ऐसी व्यवस्था से सहमत होगी जो लोकपाल की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को दे।


जाहिर है कि कांग्रेस ऐसी किसी व्यवस्था के लिए तैयार नहीं होगी। पार्टी और उसकी सरकार को पता है कि एक चुनी हुई सरकार के रहते हुए उसकी उपेक्षा करके राज्य में इस तरह की नियुक्ति का देश के संघीय ढांचे पर क्या असर पड़ेगा। इसके बावजूद अगर वह ऐसा कर रही है तो सिर्फ इसलिए कि राजनीतिक रूप से उसे फायदेमंद नजर आता है। दरअसल नियम-कानून, संविधान और परंपरा तो बहाना हैं। कांग्रेस और केंद्र सरकार के कुछ मंत्री नरेंद्र मोदी को घेरना चाहते हैं। कांग्रेस कभी सोनिया गांधी से उन्हें मौत का सौदागर कहलवाती है तो कभी राहुल गांधी को उनके मुकाबले उतारती है। राज्य में इतने बड़े सांप्रदायिक दंगे के बावजूद गुजरात की जनता मोदी के खिलाफ कुछ सुनने को तैयार ही नहीं है। भाजपा और संघ परिवार में मोदी विरोधियों की मदद करके और भाजपा से निकले शंकर सिंह वाघेला को मोदी के मुकाबले पार्टी की कमान सौंपकर भी आजमा चुकी है। राजनीति के मैदान में सारे उपाय करके कांग्रेस देख चुकी है। कोई उपाय काम नहीं कर रहा। इसीलिए केंद्र सरकार ने राज्यपाल कमला बेनीवाल के कंधे का इस्तेमाल किया है। कांग्रेस द्वारा राज्यपालों के राजनीतिक इस्तेमाल का रामलाल ठाकुर, बूटा सिंह, हंसराज भारद्वाज और अब कमला बेनीवाल तक लंबा इतिहास है। कांग्रेस के हर हमले को नरेंद्र मोदी एक अवसर में बदल देते हैं और उसका मुकाबला चुनौती समझकर करते हैं। अब तक वह ऐसा हर मुकाबला जीतते रहे हैं। मोदी अदालत के फैसले का इंतजार करने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने युद्ध की घोषणा कर दी है।


भाजपा की राज्य इकाई ने पूरे प्रदेश में राज्यपाल को वापस बुलाने के लिए आंदोलन का ऐलान कर दिया है। राज्य सरकार विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाने जा रही है। गुजरात विधानसभा के इतिहास में यह पहला मौका होगा जब राज्यपाल के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव आएगा। मोदी के खिलाफ एक आरोप भाजपा के पूर्व नेता राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के मुखिया गोविंदाचार्य ने लगाया है। उनका आरोप है कि नरेंद्र मोदी सत्ता का केंद्रीयकरण कर रहे हैं। यह ऐसा आरोप है जिससे भाजपा के बहुत से नेता सहमत होंगे पर सार्वजनिक रूप से कोई बोलने को तैयार नहीं है। क्या गुजरात में पिछले सात साल से कोई लोकायुक्त इसीलिए नहीं है कि मुख्यमंत्री नहीं चाहते कि उनकी सत्ता को चुनौती देने वाली कोई संस्था हो। पार्टी और संघ परिवार में तो उन्हें निर्देश देने की स्थिति में कोई नहीं है। राज्यपाल कमला बेनीवाल के इस कदम के पीछे केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी खड़ी है और नरेंद्र मोदी जो करने जा रहे हैं उसके साथ भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व। इस टकराव को रोकने के लिए किसी ओर से कोई पहल होती नहीं दिख रही है। मोदी यह लड़ाई हार गए तो कांग्रेस के लिए यह बड़ी मनोवैज्ञानिक विजय होगी। लेकिन और यह लेकिन बहुत बड़ा है, मोदी जीत गए तो? क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार है?


लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं


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