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एक साल पहले की बात है। भारतीय क्रिकेट के एक युवा सुपरस्टार से एक पत्रकार ने एक सवाल पूछ लिया था, देश के नागरिक के तौर पर अन्ना के भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन के बारे में क्या सोचते हैं..? देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी मुहिम से आप जुड़ना पसंद करेंगे..? यह सवाल पूरा हो पाता, उससे पहले ही सुपरस्टार के चेहरे की मुस्कान गायब हो चुकी थी, और उन्होंने दनदनाते हुए कहा कि मेरा काम क्रिकेट खेलना है और मैं बस वही करना चाहता हूं। मैं किसी राजनीति में नहीं पड़ना चाहता। हम सबका हीरो बतौर नागरिक भी देश के अंदर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कोई कमेंट नहीं देना चाहता था। यह सवाल किसी संपादक टाइप पत्रकार ने पूछा होता तो सुर्खियों में जरूर आता, लेकिन यह सवाल दूर-दराज के एक स्टि्रंगर का था। लिहाजा, बात आई-गई हो गई। सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा में मनोनीत किए जाने के बाद साल भर पहले का वाकया याद आ रहा है। मैं बार-बार यही सोच रहा हूं कि सचिन के बनिस्पत वह युवा क्रिकेटर कहीं ज्यादा समझदार तो नहीं निकला या फिर सचिन तेंदुलकर बड़े क्रिकेटर की तरह ही कहीं ज्यादा बड़े समझदार हैं। इन दोनों बातों में कोई सामनता तो नहीं है और दोनों मामलों की अलग-अलग व्याख्या संभव है, लेकिन जरा सोचिए कि अगर सचिन तेंदुलकर ने राज्यसभा के मनोनयन का प्रस्ताव यही कहकर अस्वीकार किया होता कि मेरा काम बस क्रिकेट खेलना है और मैं बस वहीं करना चाहता हूं तो उनका कद बड़ा होता या छोटा हो जाता।
आप इस सवाल का जवाब नहीं तलाश पा रहे हों तो देश भर में हो रहे तमाम ऑनलाइन पोलिंग पर नजर डाल सकते हैं। अमूमन हर पोल यही बता रहा है कि देश की ज्यादातर जनता को सचिन का सांसद बनना रास नहीं आ रहा है। लेकिन अपने देश में आम जनता की फिक्र कितने लोगों को है। वैसे भी किसी दूसरे का सम्मानित किया जाना आम लोगों को पचता नहीं है। बावजूद इसके एक सवाल यह जरूर बनता है कि क्या सचिन तेंदुलकर को राज्यसभा का मनोनयन स्वीकार करना चाहिए? इतना ही बड़ा सवाल यह भी है कि क्या सदस्यता स्वीकार किए जाने के बाद सचिन राज्यसभा के लिए समय निकाल पाएंगे और भारत में खेल-कूद की सुविधाओं को बेहतर बनाने के लिए सरकार के सामने नियमित तौर पर कुछ सुझाव रखा करेंगे? ऐसे सवालों के जवाब निकट भविष्य में मिलेंगे, लेकिन अभी से ही यह आशंका होने लगी है कि सचिन इन पैमानों पर नाकाम न हो जाएं। अपने क्रिकेट कॅरियर में सचिन जिस मुकाम पर पहुंच चुके हैं, वहां उनके लिए खुद को साबित करने या फिर कुछ और हासिल करने के कोई मायने नहीं हैं। ऐसे में वे निश्चित तौर पर भारत के हर बड़े सम्मान के हकदार हैं। लेकिन इन सबके बावजूद सचिन का राज्यसभा का सासंद बनना चौंकाता है, क्योंकि बीते 22 साल का उनका क्रिकेट कॅरियर यह बताता है कि उनका ध्यान हमेशा क्रिकेट पर ही केंद्रित रहा।
क्रिकेट से इतर मुद्दों पर उन्होंने हमेशा कुछ भी बोलने में संयम दिखाया है। राजनीति में भी उनकी दिलचस्पी नहीं के बराबर दिखी है। लीडर वाले गुणों में भी वो कमतर ही दिखे हैं। बतौर टीम इंडिया के कप्तान वे सफल नहीं रहे। ऐसे में बड़ा सवाल यही है कि क्या सचिन क्रिकेट, बाजार के बाद राजनीति की नाव को भी संभाल पाएंगे। हालांकि सचिन तेंदुलकर के साथी क्रिकेटर रहे संजय मांजरेकर के मुताबिक सचिन राज्यसभा में जाने के लिए वक्त निकाल पाएंगे, यह भी संभव नहीं दिखता। ऐसे में यह आशंका बेजा नहीं है कि सचिन तेंदुलकर बस कांग्रेस पार्टी की छवि चमकाने के एजेंडे में इस्तेमाल हो गए हैं। सवाल तो केंद्र सरकार की मंशा पर भी उठ रहे हैं। अगर उसे खेल जगत के दिग्गजों में से ही किसी को चुनना था तो इस भूमिका के लिए सचिन ही सबसे लायक हैं? मिल्खा सिंह और प्रकाश पादुकोण से लेकर भारत को पहली बार विश्वकप दिलाने वाले कपिल देव और सुनील गावस्कर तक के नामों पर विचार क्यों नहीं किया गया। हालांकि तर्क तो यह भी हो सकता है कि सचिन तेंदुलकर के राज्यसभा में आने से नई शुरुआत होगी, लेकिन न तो सचिन का इतिहास और न ही मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था यह भरोसा दिला पाती है कि सचिन राज्यसभा के सांसद के तौर पर धमाकेदार पारी खेल पाएंगे। वे राज्यसभा में बस शोभा बढ़ाने के लिए ही होंगे। ऐसे में तो बेहतर तो यही होता कि सचिन विनम्रता पूर्वक सरकार के प्रस्ताव को ठुकरा देते। इससे उनकी छवि और उनका कद दोनों बढ़ता।
लेखक प्रदीप कुमार टीवी पत्रकार हैं
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