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एन नारायणमूर्ति जिस कद और मुकाम पर पहुंच चुके हैं, उसे देखते हुए उन्हें कोई हल्के में लेने का साहस नहीं कर सकता। हमारे आइटी सेक्टर को बुलंदियों पर ले जाने में उनकी भूमिका के बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं है। भारत का कॉरपोरेट संसार और बाकी देश उनका समान रूप से आदर करता है। वे जब किसी मुद्दे पर टिप्पणी करते हैं तो उसे सुना जाता है, उसे खारिज नहीं किया जा सकता है। जाहिर है, नारायणमूर्ति ने आइआइटी में दाखिला लेने वाले छात्रों की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा करके एक बड़ी बहस का रास्ता साफ कर दिया है। नारायणमूर्ति पर संभवत: पहला जवाबी हमला उपन्यासकार और खुद आइआइटी के छात्र रहे चेतन भगत ने किया है। मूर्ति मूर्तिभंजक तो हैं। उन्हें धारा के विरोध तैरना भला लगता है। इसीलिए वह इंफोसिस सरीखी कंपनी को खड़ा कर सके। नारायण मूर्ति से पहले आइआइटी पर टिप्पणी करने का साहस जुटाया था कपिल सिब्बल ने।
मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल ने इस बात को लेकर चिंता जताई थी कि आइआइटी से उच्चकोटि का अनुसंधान सामने नहीं आ रहा है। सिब्बल साहब ने कहा था कि जिस प्रकार से अमेरिका के नामचीन शिक्षण संस्थान एमआइटी, मेस्साच्युसेट्स से बेहतरीन अनुसंधान सामने आ रहा है, उसका साफतौर पर अभाव हमारे यहां दिखाई दे रहा है। दुर्भाग्यवश अनुसंधान की क्वालिटी को लेकर हुई टिप्पणी पर बात आगे नहीं बढ़ी। बढ़ती तो परत दर परत खुलकर सामने आ जाता कि आइआइटी में किस स्तर की रिसर्च हो रही है। अगर गुजरे जमाने के पन्नों को पलटें तो मालूम चल जाएगा कि देश में विज्ञान की शिक्षा को प्रोत्साहन देने के इरादे से एमआइटी की तर्ज पर भारत में भी शिक्षण संस्थान खोलने का प्रयास देश की आजादी से पहले ही शुरू हो गया था। इस बात पर किसी तरह के मतभेद का सवाल ही नहीं था कि देश को हर क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने के लिए विज्ञान की शिक्षा को गति तो देनी ही होगी। एमआइटी के नक्शे कदम पर भारत में भी विज्ञान की उच्च शिक्षा देने के इरादे से पहली आइआइटी, खड़गपुर में 1950 में शुरू हुई। उसके बाद अन्य शहरों में आइआइटी स्थापित हुई। खुद मूर्ति आइआइटी, कानपुर के छात्र रहे हैं। हमारी संसद ने 15 सितंबर, 1956 को इसे राष्ट्रीय महत्व के शिक्षण संस्थान का भी दर्जा दे दिया है। जाहिर है, आइआइटी को लेकर सरकारों का रवैया बहुत सकारात्मरक बना रहा।
हालांकि नारायणमूर्ति और सिब्बल की आइआइटी को लेकर टिप्पणियां अलग-अलग मुद्दों पर की गई, लेकिन इतना तो निर्विवाद है कि आइआइटी में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। नारायणमूर्ति मानते हैं कि आइआइटी में दाखिले की समूची प्रक्रिया गड़बड़ है, जिसके चलते कुल जमा 20 फीसदी विद्यार्थियों को छोड़कर बाकी छात्र-छात्राएं किसी भी लिहाज से विश्वस्तरीय नहीं होते। बारास्ता कोचिंग क्लासेज के बच्चे आइआइटी में चले जाते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि आइआइटी में जो अब बड़े पैमाने पर विद्यार्थी आ रहे हैं, उनकी अंग्रेजी की समझदारी भी कोई बहुत बेहतर नहीं होती। इससे भी ब्रांड आइआइटी को नुकसान हो रहा है। पर उनसे भी यह सवाल पूछने का मन कर रहा है कि क्या जर्मन, फ्रांस, चीन जैसे देशों में अनुसंधान अंग्रेजी में हो रहा है? कुछ सवाल और, अगर इस देश के गरीब-गुरबा परिवारों से संबंध रखने वाले मेधावी बच्चे आइआइटी में जाएं तो उन्हें परेशानी क्यों हो रही है? क्या उन्हें इसलिए आइआइटी में दाखिला न मिले, क्योंकि वे अंग्रेजी ठीक तरह से लिख-बोल नहीं पाते? उनके कद के इंसान की तरफ से इस तरह की बात करने से मन को क्लेश पहुंचा है। उन सभी का खासतौर पर जो मूर्ति को अपना आदर्श मानते हैं।
चेतन भगत मूर्ति को ट्विटर के जरिये कहते हैं, मूर्ति को आइआइटी को लेकर ऐसी बात करने से बचना चाहिए था। उन्हें इस तथ्य की अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि उनकी अपनी कंपनी इंफोसिस को बुलंदियों पर पहुंचाने में आइआइटी के छात्रों की खास भूमिका रही है। नारायणमूर्ति के सवालों और आपत्तियों से लगता है कि उनकी चाहत है कि अब आइआइटी में वे ही दाखिला लें, जो अंग्रेजी बोलने-लिखने में समर्थ हों। और चलते-चलते नारायणमूर्ति से भी पूछा जाना चाहिए कि वे या इस देश की तमाम आइटी कंपनियां बिल गेट्स की माइक्रोसॉफ्ट के विडोंज जैसे प्रोडक्ट या लैरी पेज व सेरगेई ब्रिम की तरफ से शुरू किए गए गूगल जैसे सर्च इंजन क्यों नहीं तैयार कर सकीं? क्या मुख्य रूप से अमेरिकी कंपनियों के लिए आउटसोर्सिग करना ही पर्याप्त है?
लेखक विवेक शुक्ला स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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