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आजादी के बाद से सात समंदर पार जाना भारतीयों की हसरत रही है, लेकिन भारत के मुक्त अर्थव्यवस्था में प्रवेश के बाद के विदेश जाने के ख्वाबों को मानो पंख लग गए। हालांकि यह सफर अब पहले जितना सुहाना नहींरहा है। मंदी की मार से पश्चिमी देशों की चाल बदल गई है। भारतीयों या अन्य एशियाई देशों के नागारिकों का वहां जाकर नौकरी करना और बसना अब पश्चिमी देशों को रास नहींआ रहा। पश्चिमी देशों के हालिया चुनाव बताते है कि भारतीय प्रतिभाओं के लिए पलक पांवड़े बिछाने वाले दलों को चुनाव में करारी हार झेलनी पड़ी। पश्चिमी देशों के मूल निवासियों को लग रहा है कि बाहरी देश के लोग उनके रोजगार छीन रहे हैं और मिलने वाले सामाजिक सुविधाओं में हिस्सा बांट रहे हैं। पश्चिमी देशों ने आव्रजन की नीति कठोर बनाना शुरू कर दिया है जिससे गैर यूरोपीय देशों के नागरिकों को वहां आकर नौकरी करने या बसने की राह बंद की जा सके। खासकर सीमित भौगोलिक क्षेत्र वाले यूरोपीय देशों में यह भावना चरम पर है। यही कारण है कि वहां अश्वेत आबादी और गैर ईसाइयत धर्र्मो के प्रति असहिष्णुता लगातार बढ़ती जा रही है। वहां दंगे भड़क रहे हैं या लोग सामूहिक नरसंहार को अंजाम दे रहे हैं। मंदी और बेरोजगारी की मार झेल रहे यूरोपीय देशों में संकीर्णता हावी होती जा रही है। ब्रिटेन इसका उदाहरण है। ब्रिटेन में कठोर आव्रजन नीति लाने का वादा कर कंजरवेटिव सरकार सत्ता में आई थी।
प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने सत्ता की खातिर लिबरल डेमोक्रेट के साथ गठबंधन के लिए भी आव्रजन नीति पर समझौता नहीं किया,। लेकिन अमेरिका के बाद ब्रिटेन द्वारा भी वीजा नियमों को कठोर बनाने का फैसला भारतीय प्रतिभाओं पर भारी पड़ेगा। नए नियम के मुताबिक ब्रिटेन में पांच साल तक काम करने वाले गैर यूरोपीय नागरिकों को भी वहां स्थायी निवास की सुविधा नहींमिलेगी। वहां स्थायी तौर पर बसने की गैर यूरोपीय देशों के लोगों की मंशा पर यह कुठाराघात होगा। कैमरन सरकार ने एक बेतुका नियम बनाया है जिसमें यह निश्चित कर दिया गया है कि शादी के बाद पत्नी को ब्रिटेन लाने के लिए पति की तनख्वाह का मानक तय कर दिया गया है। उससे कम वेतन वाले पुरुष पत्नी को ब्रिटेन लाने के हकदार नहीं होंगे। हर साल लाखों प्रतिभाशाली भारतीय अमेरिका और यूरोपीय देशों का रुख करते हैं और वहां रोजगार हासिल करते हैं। खासकर आइटी, चिकित्सा जैसे उच्च श्र्रेणी की नौकरियों में भारतीयों को बोलबाला है। इन देशों की आर्थिक हालत इतनी पतली है कि शिक्षा, चिकित्सा जैसी मूलभूत सेवाओं में सरकारी खर्च भी इन देशों को कम करना पड़ा है। स्थानीय श्वेत आबादी को लगा रहा है कि गैर यूरोपीय लोगों के साथ उन्हें सरकार द्वारा मिलने वाली तमाम सामाजिक सुविधाओं को बांटना पड़ रहा है। यही भावना आर्थिक मंदी से जूझ रहे अमेरिका और यूरोपीय देशों में उबाल मार रही है। अचरज नहीं है कि मंदी के मारे यूरोपीय देश उसी संरक्षणवाद की नीति पर उतर आए हैं जिसके खिलाफ हायतौबा मचाकर उन्होंने उदारवादी, मुक्त वैश्विक अर्थव्यवस्था का राग छेड़ा था।
रोजगार, व्यवसाय और आर्थिक तरक्की में यूरोपीय देश जब पिछड़ने लगे तो उन्होंने मुखौटा उतार फेंकना शुरू किया है। आउटसोर्रि्सग यानी ठेके पर काम कराने की व्यवस्था से जब भारत और अन्य एशियाई देशों में रोजगार का पलायन होने लगा तो इन विकसित देशों ने मनमाने नियम लगाकर नौकरियां बाहर जाने से रोकने की ठान ली है। पिछले साल अमेरिका ने भी यही किया। इसके लिए कामगार वीजा पर शुल्क ढाई सौ गुना तक बढ़ा दिया गया और आउटसोर्रि्सग करने वाली कंपनियों को कर में छूट न देने का एलान किया गया। इसका सीधा नुकसान भारतीय आइटी कंपनियों को हुआ। इतना ही नहीं ओबामा प्रशासन ने आव्रजन नीति के तहत ऐसे नियम बनाए हैं जिससे भारत से जुड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को स्वदेश से युवाओं की भर्ती करने से रोका जा सके। इसके लिए एच1बी वीजा, एल1 वीजा जैसे कार्र्डो के आधार पर अमेरिका में नौकरी पाने के प्रावधानों में सख्ती कर दी गई है। ग्लोबल विलेज की अवधारणा पर मुक्त अर्थव्यवस्था की वकालत की हवा निकलने के बाद पश्चिमी देशों का इस तरह से पैर खींचना हास्यास्पद और गैर प्रतिस्पर्द्धी कदम है। इस मामले में भारत सरकार की चुप्पी भी अफसोसजनक है। आउटसोर्रि्सग पर प्रतिबंध लगने और दूसरे अन्य संरक्षणवादी कदमों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सरकार द्वारा आवाज न उठाया जाना न तो युवाओं के हित में है और न ही राष्ट्रहित में है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत के विशाल बाजार का भरपूर दोहन कर रही हैं, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि मुक्त अर्थव्यवस्था के जिन क्षेत्रों में भारत को बढ़त मिली है वहां पश्चिमी देश बंदिशें थोप रहे हैं। हमारे युवा विदेशों में नौकरी के अवसर खोते जा रहे हैं। देश में भी रोजगाार के अवसर कुछ बेहतर नहींहैं। विकसित देश की ओर से रिटेल क्षेत्र, बैंकिंग, बीमा में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का जबरदस्त दबाव भारत पर है। मगर ये देश अपनी ही पोटली खोलने को तैयार नहीं हैं। अगर उच्च तकनीक, विशेषज्ञता और इनोवेशन से लैस पश्चिमी देश हमारे बाजार का दोहन करने को लालायित हैं तो प्रतिभावान और सक्षम भारतीय या अन्य एशियाई देशों के युवकों को वैश्विक नेतृत्व से क्यों रोका जा रहा है? आव्रजन में कठोर नियमों से तमाम आइटी कंपनियों का व्यापार प्रभावित हो रहा है। हजारों युवक कई वर्र्षो से एच1बी और अन्य स्तर के वीजा पाने की लाइन में लगे हैं, लेकिन अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों ने इस पर सख्ती बरतना शुरू कर दिया है। विडंबना यह है कि अमेरिका और अन्य देशों में काम करने वाली भारतीय आइटी कंपनियां अपने देश से युवाओं की भर्ती के लिए स्वतंत्र नहीहैं। जबकि विदेशों में भारतीय नागरिकों को वहां के स्थानीय युवकों की तुलना में काफी कम वेतन मिलता है।
अमेरिका या यूरोपीय देशों के नागरिकों के मुकाबले भारतीयों को मिलने वाले सामाजिक लाभ भी काफी कम हैं। अब समय आ गया है जबकि भारत अमेरिका और यूरोपीय देशों से गिव एंड टेक के आधार पर व्यापारिक समझौता करे। अगर भारत को हथियार, राडार, अंतरिक्ष और उच्च प्रौद्योगिकी से लैस अन्य क्षेत्रों में निर्यातक देश के नियम और शर्र्तो को मानना पड़ता है तो आइटी सेक्टर, मेडिकल और लाभ देने वाले दूसरे अन्य क्षेत्रों में भारत अपनी शर्र्ते क्यों नहींमनवा सकता। यह सच है कि आज के पूंजीप्रधान युग में मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देश का ही डंका बज रहा है। अर्थव्यवस्था ही विदेश नीति तय कर रही है। यही कारण है कि अमेरिका भी चीन के आगे नतमस्तक है। मगर समझौतावादी रुख अपनाने से भारत का भला नहीं होगा। हमें संयुक्त राष्ट्र समेत अन्य वैश्विक मंचों पर पश्चिमी देशों के संरंक्षणवादी रवैये का पुरजोर विरोध करना होगा। इसके लिए गैर यूरोपीय देशों को भी एकजुटता दिखानी होगी जैसी उन्होंने कार्बन उत्सर्जन के मामले में दिखाई है।
इस आलेख के लेखक अमरीश कुमार त्रिवेदी हैं
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