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शांति से अक्सर अनचाही आत्म-तुष्टि पनपती है, जिससे अस्पष्ट और निर्जीव बहस छिड़ जाती है। जम्मू-कश्मीर में सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) को हटाने के बारे में मौजूदा राजनीतिक बहस, ऐसी ही एक अंधी-सी बहस है। लगता है कुछ संकीर्ण सोच वाले राजनीतिक तत्व हैं, जो राज्य के शांति बैंक यानी सशस्त्र सेनाओं से छुटकारा पाकर अपने वोट बैंक का विस्तार करना चाहते हैं। इस निरर्थक कवायद में वे घुसपैठियों, आतंकवादियों और उग्रवादियों से भरे इलाकों में शांति और स्थिरता पैदा करने के बारे में अपने अज्ञान को प्रदर्शित करते हैं। जम्मू-कश्मीर में स्थायित्व, शांति और समृद्घि भारतीय सेना की मौजूदगी की ही देन है। इससे पहले अफस्पा पर बारीकी से गौर करें, हम अपने निकटतम पड़ोसी पाकिस्तान में आतंकवाद-विरोधी कानूनों और सेना के अधिकारों के बारे में विचार करते हैं। जिसे कुछ अलगाववादी तत्व आदर्श मानते हैं और जिससे वे प्रेरणा लेते हैं।
नए कानून (जून 2011) में एक्शन इन एड ऑफ सिविल पावर के तहत पाक आर्मी को दिए गए कुछ अधिकार तो किसी भी दूसरे कानून के मुकाबले (हमारे अफस्पा से भी) बड़े ही कठोर हैं। वे किसी भी व्यक्ति को 120 दिन तक हिरासत में रख सकते हैं। कबाइली इलाके में किसी भी व्यक्ति को अनिश्चित काल के लिए जेल में डाल सकते हैं। आतंकवाद के किसी भी आरोपी या आतंकवादियों के साथ साठगांठ करने के लिए किसी भी व्यक्ति को मौत की सजा या आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती है। किसी व्यक्ति का दोष सिद्ध करने के लिए किसी भी सैन्य अधिकारी की गवाही काफी होती है। इसकी तुलना में अफस्पा की पृष्ठभूमि और इसके कानूनी पहलू क्या हैं? इसमें खास क्या है? जब राज्य के सभी बल स्थिति को नियंत्रण में लाने में नाकाम हो जाते हैं, उग्रवाद और आतंकवाद विरोधी ऑपरेशनों में काम करने के लिए सशस्त्र सेनाओं को कुछ विशेष अधिकारों और संरक्षण के लिए समर्थ कानूनों की जरूरत होती है।
शत्रुतापूर्ण माहौल में उग्रवादियों के खिलाफ रोकथाम के अभियान चलाने के लिए सशस्त्र सेनाओं को विशेष आवश्यक अधिकार, कानूनी समर्थन और संरक्षण प्रदान करने के वास्ते संसद ने 11 सितंबर 1958 को सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम यानी अफस्पा पारित किया था। इन दिनों, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा के 40 थानों, अरुणाचल प्रदेश के तिराप और चांगलांग जिलों में अफस्पा-1958 लागू है। बाद में संसद ने सशस्त्र सेना (जम्मू-कश्मीर) विशेषाधिकार अधिनियम 1990 पारित किया और उसे 5 जुलाई 1990 से लागू किया। शुरू में सरकार ने राजौरी और पुंछ जिलों में नियंत्रण रेखा के 20 किलोमीटर के भीतर के इलाकों और अनंतनाग, बारामूला, कुपवाड़ा, पुलवामा, श्रीनगर, आदि जिलों को अशांत क्षेत्र घोषित किया। बाद में जम्मू, कठुआ, उधमपुर, पुंछ, राजौरी और डोडा जिलों को अशांत क्षेत्र घोषित किया और अगस्त 2001 में अफस्पा को वहां लगा दिया। सशस्त्र सेनाओं द्वारा व्यापक अधिकार हासिल कर लिए जाने को रोकने के लिए अफस्पा में पर्याप्त रोकथाम और सुरक्षा उपाय किए गए हैं। प्रावधानों के उल्लंघन पर कानूनी कार्रवाई का प्रावधान है। करें और न करें में कम से कम बल का प्रयोग, व्यक्तियों की गिरफ्तारी, तलाशी, उचित चेतावनी के बाद गोली चलाने और दोषियों के खिलाफ सेना अधिनियम 1950 के तहत तत्काल अनुशासनात्मक कार्रवाई शामिल है। संरक्षण का प्रावधान केवल उन्हीं व्यक्तियों के लिए है, जो अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वाह नेकनीयती से करते हैं।
2011 में जम्मू-कश्मीर में जो अपेक्षाकृत शांति दिखाई दे रही है, वह राज्य सरकार और सुरक्षा बलों के बीच दुश्मन ताकतों के खिलाफ संयुक्त रणनीति बनाने और उसे लागू करने में उत्कृष्ट तालमेल की वजह से है। राज्य में मौजूदा सुरक्षा स्थिति को देखते हुए अफस्पा के प्रावधानों में ढील देना उचित नहीं होगा। एक तो पाकिस्तान की सोच में कोई बदलाव नहीं आया है और न ही जम्मू-कश्मीर में परोक्ष युद्ध रोकने का उसका कोई इरादा है। दूसरे, पुलिस और सीपीओ के साथ मिलकर चलाए गए सेना के रोकथाम अभियानों से हिंसा में कमी और घुसपैठ की घटनाओं में गिरावट आई है। बाहर से शांतिपूर्ण नजर आने का मतलब यह नहीं है कि शांति लौट आई है। हो सकता है कि अलगाववादियों के साथ मिलकर सामान्य स्थिति दर्शाने और अफस्पा को रद्द करने तथा सेना हटाने की मांग की यह पाक रणनीति हो।
लेखक योगेंद्र बाली स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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