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गलत राह पर बढ़ते कदम

जागरण मेहमान कोना
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संसद में लगातार बढ़ रहे गतिरोध को समाज और संस्थानों में नैतिकता के गिरते स्तर से जोड़ रहे हैं कुलदीप नैयर


भारत दक्षिण एशिया का अकेला देश है जहां लोकतंत्र अपने परंपरागत रूप में बचा हुआ है। पाकिस्तान में इसका स्वरूप बिगड़ा हुआ है, क्योंकि अंतिम शब्द सेना का होता है। बांग्लादेश में विपक्ष के कभी न खत्म होने वाले बहिष्कार ने संसद की विश्वसनीयता कम कर दी है। श्रीलंका में दुविधा में पड़े विपक्ष ने लोकतंत्र के प्रतिनिधिक स्वरूप को प्रभावित कर रखा है। नेपाल को अभी लोकतंत्र के बुनियादी मानदंडों का सामना करने के लिए अपने को तैयार करना है।


दुर्भाग्य से भारत की राजनीतिक पार्टियां विश्वास करने लगी हैं कि संसद का काम रोकना ही सरकारी कानूनों या उसके कार्यो के विरोध का सबसे अच्छा तरीका है। कांग्रेस ने नब्बे के दशक के उत्तरा‌र्द्ध में और 2000 के दशक के पूर्वा‌र्द्ध में यही किया। भाजपा ने भी इसी तरीके को अपनाया हुआ है। कांग्रेस ने जो उस समय किया उसके लिए वह अब पछता रही है। भाजपा भी सत्ता में आएगी तो इसी तरह पछताएगी। लगता है कि संसद को चलने नहीं देना उनके राजनीतिक शब्दकोश का हिस्सा बन चुका है। दोनों सदन की कार्यवाही देश भर में देखी जाती है। इस तरह संसद में कामकाज नहीं चलने देने का असर पूरे देश पर होता है और आमतौर पर इसका असर नकारात्मक है। कुछ लोगों के मन में सवाल उठता है कि संसद की क्या उपयोगिता है और कुछ अमेरिका तथा फ्रांस की राष्ट्रपति प्रणाली को अपनाने का सुझाव देने लगते हैं। सबसे खराब नतीजा होता है पूरे देश में अनिश्चितता के भाव का फैल जाना।


मैं भारत के नीचे जाने के लिए नेताओं को बलि का बकरा नहीं बनाना चाहता। न्यायपालिका, सरकार और मीडिया के मुकाबले उन्हें ज्यादा जिम्मेदार मानना चाहिए। मुद्दा यह है कि एक ऐसा देश जो 1950 में संविधान स्वीकार करने के समय से लोकतांत्रिक तरीकों का पालन करता आ रहा है, अपने व्यवहार और भाषा में हिंसक होने लगा है। कृषि मंत्री शरद पवार को थप्पड़ मारना उतना ही अस्वीकार करने लायक है जितना गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर जूते फेंकना। दोनों ही हिंसक अभिव्यक्तियां हैं, जिसकी इजाजत न तो संविधान देता है और न ही देश की लोकनीति। लगता है कि ‘चमकता भारत’ अचानक धुंधलके में जाने लगा है। अर्थव्यवस्था लगातार मंदी दिखा रही है और व्यावहारिक रूप से शासन अस्तित्व में नहीं है। जल्द फैसले की बात तो दूर, कोई अधिकारी फैसला ही नहीं लेना चाहता। मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल इसे यह कहकर उचित ठहराना चाहते हैं कि अधिकारी डरे हुए हैं कि अगर फैसला गलत हो गया तो उनसे जवाब मांगा जाएगा। अधिकारियों को इस तरह की आशंका से मुक्त होना पड़ेगा, क्योंकि अगर फैसले के पीछे कोई गलत उद्देश्य नहीं है तो उन्हें दोष नहीं दिया जाएगा।


अगर मुझे एक गिरावट की चर्चा करनी हो तो मैं कहूंगा कि राजनीतिक। ऐसा भी कह सकते हैं कि समाज के हर हिस्से ने नैतिकता छोड़ दी है। लोगों को अब यह अहसास नहीं रह गया है कि कुछ चीजें उन्हें नहीं करनी चाहिए। वही वजह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी अपना उद्देश्य पाने के लिए कुछ भी करती है और इसका उसे पछतावा नहीं होता। अगर यह शांतिपूर्ण तरीकों से संभव है तो ठीक है, अन्यथा जरूरत पड़े तो वे हिंसा का इस्तेमाल करने के लिए भी तैयार हैं। अब कोई लक्ष्मण रेखा नहीं रही और निचले स्तर पर उतरकर चोट करना न केवल आम हो गया है, बल्कि इसकी इजाजत है। अगर यह सड़न सिर्फ राजनीतिज्ञों तक सीमित होती तो राष्ट्र अपना संतुलन बरकरार रख लेता, लेकिन यहां तो हर गतिविधि प्रभावित है। मीडिया पर सवाल उठ रहे हैं। न्यायपालिका स्वतंत्रता को लेकर अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन प्रसिद्ध वकीलों और रिटायर्ड जजों का कहना है कि इसे आमतौर पर मैनेज किया जा सकता है। कुछ न्यायिक फैसले आपको आश्चर्य में डाल देते हैं और लगता है कि जो बाहर दिखाई दे रहा है, मामला उससे ज्यादा जटिल है। अवमानना कानूनों के डर से जजों की कोई आलोचना नहीं करता। इसलिए दिखावे का सम्मान बना रहता है।


नौकरशाही ऊपर और नीचे की सीढि़यों की वजह से इतनी बंटी हुई है कि दाएं हाथ को बाएं के बारे में पता नहीं होता। संयुक्त सचिव और उससे ऊपर बैठे अफसरों को मंत्रियों की इजाजत के बगैर कोई छू नहीं सकता। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया था कि एकल निर्देश के रिवाज पर रोक लगनी चाहिए, लेकिन संसद ने इसे जारी रखने का फैसला किया। इस बारे में जो नया कानून बना है उसके खिलाफ की गई अपील पर फैसले का इंतजार है। खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का उदाहरण ले लीजिए। मंत्रियों और नौकरशाहों ने मिलकर फैसला ले लिया कि क्या कदम उठाना है? उन्होंने इसका विवरण तैयार किया और सरकार के बाहर के किसी भी व्यक्ति से बिना राय लिए इसे भारत में लागू करने की घोषणा कर दी। इसकी घोषणा संसद के सत्र में रहते समय की गई, लेकिन सदन में नहीं, प्रेस-बयान के जरिए। उचित ही था कि सभी पार्टियां, यहां तक कि कांग्रेस के शासकीय सहयोगी भी, विरोध में उठ खड़े हुए। अगर सरकार ने यह तय कर लिया था कि कोई विरोध स्वीकार नहीं करना है तो सर्वदलीय बैठक पहले ही क्यों नहीं बुला ली गई? इससे सरकार की प्रतिष्ठा किस तरह कम हो जाती है कि महंगाई और काले धन से पहले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर चर्चा हो जाती?


कांग्रेस के एक वरिष्ठ मंत्री का कथन-‘भारत कहां जा रहा है’ निश्चित ही प्रासंगिक है, लेकिन विपक्ष से ज्यादा इस पार्टी की जिम्मेदारी बनती है, क्योंकि वह शासन कर रही है। यह मंत्री [कांग्रेस जिनका इस्तेमाल जटिल समस्याओं को हल करने के लिए करती है] यह भी मानेंगे कि शासन चलाने का एक ही रास्ता है-सहमति कायम करना। सत्ताधारी कांग्रेस को विपक्ष से अपनी दूरी कम करनी होगी। खासकर उस समय जब दक्षिणपंथी भाजपा और वामपंथी एक ही राय रखते हों। दोनों के साथ आने का मतलब है कि मनमोहन सिंह की नीतियों में कुछ खामी है। संभव है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों ने सरकार और विपक्ष को साथ आने से रोक दिया हो, लेकिन यह तो निश्चित है कि विधानसभा चुनाव के मुकाबले देश ज्यादा महत्वपूर्ण है। संसद का ठप होना पड़ोसी देशों के लिए कोई अच्छा उदाहरण पेश नहीं करता, क्योंकि वहां की लोकतांत्रिक प्रणालियां पहले से ही कठिनाई में हैं। लाहौर, ढाका, कोलंबो और काठमांडू की सड़कों पर चल रहा आम आदमी क्या महसूस करता होगा जब वह देखता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की हालत ऐसी होती जा रही है कि संसद काम तक नहीं कर पा रही है।


लेखक कुलदीप नैयर प्रख्यात स्तंभकार हैं


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