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सुधार के साहसिक विचार

जागरण मेहमान कोना
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A Surya Prakashराजनीतिक सुधार के लिए पी ए संगमा के कुछ सुझावों पर अमल की जरूरत जता रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

पूर्व लोकसभा स्पीकर पी. ए. संगमा ने पिछले सप्ताह मौजूदा परिप्रेक्ष्य में कुछ बेहद अहम मुद्दे नए सिरे से उठाए। ये मुद्दे शासन के बढ़ते संकट, राष्ट्रीय दलों का घटता प्रभाव, संस्थानों का क्षय, गठबंधन राजनीति की विघटनकारी प्रवृत्ति और प्रधानमंत्री पद की गरिमा में गिरावट से संबंधित हैं। इनमें से कुछ मुद्दे इस सप्ताह प्रकाशित उनकी पुस्तक ए लाइफ इन पालिटिक्स में वर्णित हैं। ये सब मुद्दे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। संप्रग और राजग के प्रमुख घटक यानी देश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल दिनोंदिन कमजोर होते जा रहे हैं। अब उन पर गठबंधन के अंदर और बाहर, दोनों ओर से क्षेत्रीय दलों का दबाव बढ़ता जा रहा है। इससे गठबंधनों में अस्थिरता बढ़ रही है और शासन का संकट खड़ा हो रहा है। केंद्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन 2004-09 के दौरान देश पर शासन करने वाले मजबूत गठबंधन की छाया मात्र ही रह गया है। आज प्रधानमंत्री के पास वह शक्ति और अधिसत्ता नहीं है जो कुछ साल पहले हुआ करती थी। संगमा कुछ नुस्खे सुझाते हैं, जिनके इस्तेमाल से बिगड़ते सामाजिक और राजनीतिक वातावरण में सुधार आ सकता है। जिन मुद्दों पर संगमा जोर दे रहे हैं उनमें प्रधानमंत्री पद का कमजोर होना प्रमुख है।


संगमा का स्पष्ट मत है कि प्रधानमंत्री लोकसभा का सदस्य होना चाहिए। वह राज्यसभा के सदस्य के प्रधानमंत्री बनने के पक्ष में नहीं हैं, क्योंकि ऐसा होने पर उनके पद की शक्ति कम हो जाती है और वह या तो पार्टी के नेता के अधीन हो जाते हैं या फिर उस गठबंधन के जिसने मिलकर उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में चुना है। संगमा का कहना है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में संघीय मंत्रिमंडल तब तक काम कर सकता है जब तक इसे लोकसभा में बहुमत हासिल है। इसलिए लोकसभा के सदस्य को ही प्रधानमंत्री बनाना उचित है। वह सवाल उठाते हैं कि क्या ऐसा प्रधानमंत्री अटपटा नहीं लगता जो लोकसभा में अपनी सरकार की तरफ से वोट भी न डाल सके। अपनी पुस्तक की प्रस्तावना में संगमा संस्थानों के क्षय के मुद्दे पर विमर्श करते हैं। वह कहते हैं, हमारे संस्थानों में क्षय हो रहा है। मैं खासतौर पर प्रधानमंत्री पद को लेकर चिंतित हूं। मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री का संविधानेतर सुपर अधिसत्ता के अधीन होना खतरनाक संकेत है। हमें प्रधानमंत्री को सीधे जनता द्वारा चुने जाने की संभावना पर भी विचार करना चाहिए। 1.2 अरब आबादी वाले भारत में एक प्रधानमंत्री चुनने की भरपूर क्षमता है। संगमा का कहना है कि पिछले 16 वर्षो के दौरान ऐसे अनेक अवसर आए जब लोकसभा एक प्रधानमंत्री चुनने में विफल रही। 1996 में एक मुख्यमंत्री देवगौड़ा को इस पद पर चुना गया।


राष्ट्रीय दलों को सबक


1997 में ऊपरी सदन से गुजराल की नियुक्ति हुई और 2004 से राज्यसभा के सदस्य मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री हैं। पी. संगमा इस मुद्दे को इतनी गंभारता से ले रहे हैं कि वह इसके लिए संविधान में संशोधन तक की वकालत कर रहे हैं। जहां तक अविश्वास प्रस्ताव का सवाल है, संगमा का सुझाव है कि हमें अविश्वास प्रस्ताव के रचनात्मक जर्मन मॉडल को आत्मसात करना चाहिए। इससे तात्पर्य है कि लोकसभा एक प्रधानमंत्री के खिलाफ तभी फैसला दे सकती है जब उसका उत्तराधिकारी सामने हो। इस मॉडल के तहत संसद तभी सरकार के मुखिया के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पारित कर सकती है जब वह लोकसभा में बहुमत के आधार पर उसके उत्तराधिकारी का चुनाव कर ले। इसके बाद राष्ट्रपति से नए उत्तराधिकारी की नियुक्ति के संबंध में आग्रह करे। गठबंधन राजनीति के संबंध में संगमा का मानना है कि एक गठबंधन सरकार की कार्यकारी कुशलता मुख्यत: इस पहलू पर निर्भर करती है कि क्या गठबंधन ने परस्पर सहयोग का तंत्र खड़ा कर लिया है। इसी के बल पर टकरावों को टाला जा सकता है। उनका कहना है कि बहुदलीय व्यवस्था में गठबंधन आज की जरूरत बन गए हैं। वर्तमान 15वीं लोकसभा में 40 दलों की उपस्थिति है।


वर्तमान संप्रग-2 गठबंधन में 11 दल शामिल हैं और नौ पार्टियां बाहर से समर्थन दे रही हैं। यह गठबंधन चलाना बहुत मुश्किल काम है। इस संबंध में प्रभावी सुधार लागू करने के लिए सरकार को खासी माथापच्ची करनी होगी। संगमा का कहना है कि गठबंधन के साझीदारों का अपना क्षेत्रीय, स्थानीय और विचारधारात्मक एजेंडा होता है, जो अक्सर गठबंधन कार्यक्रम से टकराने लगता है। सरकार अपनी हताशा और लाचारी को गठबंधन की मजबूरियों के पर्दे के पीछे छिपाने की कोशिश करती है और गठबंधन के साझेदार सरकार द्वारा गठबंधन धर्म न निभाने की शिकायत करते हैं। गठबंधन की सफलता उस सिद्धांत पर निर्भर करती है, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अंतरविरोधों के प्रबंधन के रूप में परिभाषित किया था। हाल में पांच राज्यों के चुनाव परिणामों के बाद क्षेत्रीय दल कुछ और मजबूत होकर उभरे हैं। खासकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और भाजपा के पैर जिस तरह उखड़े उससे क्षेत्रीय दलों को राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत बनाने में मदद मिली है। क्षेत्रीय दल जिस तरह उभरे हैं उससे शासन में अड़चनें उत्पन्न हुई हैं और ब्लैकमेलिंग की राजनीति को बढ़ावा मिला है। इस स्थिति से कैसे निपटा जाए? संगमा कहते हैं कि इस विचार को आगे बढ़ाने की जरूरत है कि केवल राष्ट्रीय दलों को ही संसदीय चुनावों में भाग लेने का अधिकार हो। उनका इस बारे में विचार और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि मौजूदा परिस्थितियों में राष्ट्रीय दलों को क्या करना चाहिए? आज की सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व का अभाव है।


भारत के पास वर्तमान समय कोई स्वीकार्य राष्ट्रीय नेता नहीं है और दोनों राष्ट्रीय दल पतन की राह पर अग्रसर हैं। राष्ट्रीय संदर्भ में देखें तो कांग्रेस और भाजपा की दुर्दशा चिंता का विषय है। संगमा उम्मीद करते हैं कि ये दोनों दल मजबूत होंगे। इस दौरान एक अस्थायी समाधान यह हो सकता है कि कांग्रेस और भाजपा सत्ता की साझेदारी पर सहमत हों और एक राष्ट्रीय सरकार का गठन करें। संगमा दो अन्य मुद्दों पर ध्यान देते हैं जो आपस में जुड़े हैं। इनमें पहला है सबसे अधिक मत पाने वाले को विजेता घोषित करने का नियम और सबके लिए मतदान अनिवार्य करने की जरूरत। निर्वाचन की जो प्रणाली है उसकी अपनी खामियां हैं। दलों और प्रत्याशियों की अधिकता तथा कम मतदान के कारण ऐसा प्रत्याशी भी जीत सकता है जिसकी जमानत तक जब्त हो गई हो। इस पद्धति पर नए सिरे से निगाह डालने की जरूरत है। अनिवार्य मतदान इस समस्या का समाधान कर सकता है, लेकिन इसके साथ ही मतदाताओं को सभी उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए।


लेखक ए. सूर्यप्रकाश वरिष्ठ स्तंभकार हैं


दरकते गठबंधन


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