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क्रिकेट और आतंक

जागरण मेहमान कोना
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Pradeep Singh

पाकिस्तान के साथ क्रिकेट संबंध बहाल करने पर सवाल उठा रहे हैं प्रदीप सिंह

पाकिस्तान की क्रिकेट टीम भारत के दौरे पर आएगी, इस खबर से देश के लोगों के मन में एक सवाल उठ रहा है कि हमने जब पाकिस्तान के साथ द्विपक्षीय क्रिकेट श्रंृखला बंद करने का फैसला किया था तब से अब में क्या बदल गया है? क्या पाकिस्तान मुंबई के आतंकवादी हमलों के दोषियों को सजा देने के लिए तैयार हो गया है? क्या पाकिस्तान में बैठे लश्करे-तैयबा के कमांडर जकीउर रहमान लखवी जैसे लोगों को वह भारत को सौंपने को तैयार हो गया है? क्या पाकिस्तान ने अबू जुंदाल के बयान के बाद मान लिया है कि मुंबई पर आतंकवादी हमले में आइएसआइ और पाकिस्तानी सेना के लोग शामिल थे? क्या पाकिस्तान ने अपने यहां आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर बंद कर दिए हैं? ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ है। या भारत सरकार ने मान लिया है कि पाकिस्तान से इन मुद्दों पर कोई भी उम्मीद करना निरर्थक है और आतंकवाद और क्रिकेट दोनों के साथ-साथ चलने में कोई हर्ज नहीं है। भारत में एक वर्ग है जो मानता है कि कुछ भी हो पाकिस्तान के साथ बातचीत चलती रहनी चाहिए। भारत सरकार की भी यही राय है। दरअसल, पिछले 64 सालों से भारत यही तो कर रहा है। हर धोखे और हमले के कुछ दिन बाद हम फिर बातचीत की मेज पर पहुंच जाते हैं। कश्मीर का एक-तिहाई हिस्सा चला गया, 1965 और 1971 का युद्ध हुआ, कारगिल हुआ, देश की संसद पर हमला हुआ, मुंबई पर हमला हुआ। हमने देश में मोमबत्ती जुलूस निकाला और उसके बाद पाकिस्तान के साथ विश्वास बहाली के नियमित कर्मकांड में जुट गए।


फिर सवालों में पाक


भारत और पाकिस्तान आपस में क्रिकेट खेलें भला इससे क्यों इनकार होना चाहिए। क्रिकेट के जरिये दोनों देशों के संबंध सुधारने का सपना हम 1978 से देख रहे हैं। क्रिकेट कूटनीति में यकीन करने वाले मानते हैं कि इससे दोनों मुल्कों के लोगों में आपसी भाईचारा बढ़ेगा और तनाव कम होगा। क्रिकेट देखेंगे तो क्रिकेट की बात करेंगे। ऐसा कहने वाले शायद यह भी मानकर चलते हैं कि भारत पाकिस्तान की समस्या का एक बड़ा कारण दोनों देशों के अवाम के बीच भाईचारे और आपसी विश्वास की कमी है। इस धारणा को दोनों देशों के लोगों ने हर उपलब्ध मौके पर झुठलाया है। जाहिर है कि मर्ज कहीं और है और इलाज कहीं और हो रहा है। भारत और पाकिस्तान की समस्या दोनों देशों के अवाम नहीं है। राजनीतिक दल और नेता भी नहीं है। समस्या पाकिस्तान की सेना और उसकी खुफिया एजेंसी आइएसआइ है। मुश्किल यह है कि आइएसआइ और पाकिस्तान की सेना क्रिकेट नहीं खेलतीं। वे जो खेल खेलते हैं वही दोनों देशों की मूल समस्या है। वे चाहते हैं कि दोनों देशों के लोग क्रिकेट में मशगूल रहें ताकि उन्हें अगले हमले की तैयारी के लिए, आतंकवादियों के प्रशिक्षण के लिए और उन्हें भारत में भेजने के लिए शांति का वातावरण मिले। यह निष्कर्ष किसी आशंका या अविश्वास पर नहीं छह दशकों के अनुभव पर आधारित है। जब हमने द्विपक्षीय क्रिकेट श्रंृखला बंद की थी तो एक ही मुद्दा था कि क्रिकेट और आतंकवाद साथ-साथ कैसे चल सकता है। इस सवाल को उठाने वाले युद्धोन्मादी मान लिए जाते हैं। पूछा जाता है कि युद्ध से भी तो समस्या हल नहीं हुई। युद्ध का माहौल बनने से किसका फायदा होगा। सही है कि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है। समस्याएं अंतत: आपसी बातचीत से ही हल होती हैं। यह एक ऐसी वास्तविकता है जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता, लेकिन बिना शर्त बातचीत के लिए भी कुछ ऐसी शतर्ें होती हैं जो बातचीत को सार्थक बनाने के लिए जरूरी होती हैं।


बुनियादी शर्त होती है कि दोनों पक्ष समस्या के हल के लिए इच्छुक हों। बातचीत से निकलने वाले हल में दोनों को अपना हित नजर आता हो। क्या पाकिस्तान इस बुनियादी जरूरत को पूरा करता है? मुंबई पर आतंकवादी हमले के कुछ दिन बाद हमने पाकिस्तान से बातचीत शुरू कर दी। कुछ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के दबाव में और ज्यादा इस वजह से कि हमारे पास बातचीत के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उम्मीद थी कि पाकिस्तान दुनिया को दिखाने के लिए ही सही मुंबई हमले के षड्यंत्रकारियों को सजा दिलाने की कोशिश करेगा। पाकिस्तान की मजबूरी यह है कि वह अगर ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे मानना पड़ेगा कि उसकी सेना और आइएसआइ भारत में आतंकवाद के लिए जिम्मेदार हैं। भारत में जिन लोगों को उम्मीद थी कि मुंबई हमले के बाद पाकिस्तान अब इस तरह के किसी और हमले के बारे में नहीं सोचेगा, उन्हें अबू जुंदाल उर्फ सईद जबीउद्दीन अंसारी की गिरफ्तारी और सुरक्षा एजेंसियों को उसने जो कुछ बताया है, उससे धक्का लगा होगा। अबू जुंदाल के मुताबिक मुंबई से भी बड़े हमले की तैयारी चल रही है। मंगलवार को पाकिस्तान की एक आतंकवाद विरोधी अदालत ने लखवी और अन्य सात आरोपियों के खिलाफ पाकिस्तान के न्यायिक आयोग की रिपोर्ट को समय की बर्बादी बताकर रद कर दिया।


अदालत का कहना था कि पाकिस्तान कानून के मुताबिक गवाहों से जिरह के बिना उनके बयान कानूनी रूप से मान्य नहीं हैं। भारत गए आठ सदस्यीय आयोग को गवाहों से जिरह की इजाजत नहीं दी गई। आयोग के आने से पहले ही दोनों देशों की सरकारों के बीच सहमति थी कि न्यायिक आयोग को गवाहों से जिरह की अनुमित नहीं होगी। सवाल है कि फिर आयोग भारत आया ही क्यों और भारत सरकार ने आने क्यों दिया? क्या दोनों देशों की सरकारों ने जानबूझकर ऐसा किया। क्या भारत सरकार भी यही चाहती है कि मुंबई हमले के आरोपियों को सजा दिलाने के लिए पाकिस्तान कुछ कर रहा है, ऐसा भ्रम बना रहे। पाकिस्तान और भारत के संबंध सामान्य होने में सबसे बड़ी बाधा यह है कि पाकिस्तान की सेना और आइएसआइ की इसमें कोई रुचि नहीं है। पाकिस्तान में भले ही चुनी हुई सरकारें आती रही हों पर वहां राष्ट्रीय मसलों पर निर्णायक भूमिका सेना की होती है। तो सवाल है कि भारत क्या करे? एक ही तरीका है कि भारत अपनी ताकत बढ़ाए। पाकिस्तान पर आक्रमण करने के लिए नहीं। ताकतवर वह होता है जिसे अपनी ताकत का इस्तेमाल करने की जरूरत न पड़े। जिस दिन पाकिस्तान की सेना और उसकी खुफिया एजेंसी को लगेगा कि भारत में आतंकवाद का निर्यात महंगा पड़ेगा उस दिन के बाद ही दोनों देशों के बीच बातचीत सार्थक हो पाएगी। तब तक दिल मिलें न मिलें, हाथ मिलाते रहिए।


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लेखक प्रदीप सिंह वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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