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भटकाव की शिकार विदेश नीति

जागरण मेहमान कोना
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पिछले दिनों सेना प्रमुख जनरल वीके सिंह द्वारा यह रहस्योद्घाटन किया जाना कि पाकिस्तान कब्जे वाले कश्मीर में चार हजार चीनी सैनिक मौजूद हैं और इनमें चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के भी सैनिक हैं, भारत की सुरक्षा के लिहाज से बेहद ही संवेदनशील मामला है। इस खुलासे के आधार पर इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा जा सकता है कि चीन पाकिस्तान की मदद से भारत की घेराबंदी में पूरी तरह से जुट गया है। सेना प्रमुख ने यह भी दावा किया है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में चीन की कई टीमें काम कर रही हैं और इनमें चीनी इंजीनियरों की कई टुकडि़यां भी शामिल हैं। हालांकि इस तरह का खुलासा कोई पहली बार नहीं हुआ है। सेना प्रमुख से पहले भी चीन के खतरनाक इरादे की पुष्टि कई बार की है। पिछले दिनों वायुसेना प्रमुख एनएके ब्राउनी और उत्तरी कमान के वरिष्ठ लेफ्टीनेंट जनरल केटी परनाइक द्वारा भी चीन की नीयत को लेकर सवाल उठाया गया। भारत के ऐतराज के बावजूद भी भारतीय सीमा में चीनी सैनिकों की घुसपैठ जारी है। चीन एक सभ्य पड़ोसी के बजाय एक असभ्य शत्रु की तरह पेश आ रहा है। पिछले दिनों उसने जम्मू-कश्मीर में जनरल ऑफिसर कमांडिग इन चीफ के पद पर तैनात बीएस जसवाल को वीजा देने से भी मना कर दिया था। अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में वह खुलकर अपने दुस्साहसपूर्ण गतिविधियों को अंजाम दे रहा है। उसके खेल में पाकिस्तान भी शामिल है।


पाकिस्तान और चीन के बीच लगातार मजबूत हो रहे रिश्ते भारतीय सुरक्षा के साथ-साथ संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिए भी घातक साबित हो सकता है। इस्लामाबाद से चीन के उरुमची तक गतिविधियां पहले से कहीं ज्यादा तेज देखी जा रही है। अगर भारत अपनी सुरक्षा को लेकर अतिरिक्त सतर्कता नहीं बरतता है तो आने वाले दिनों में बीजिंग-इस्लामाबाद का नापाक गठजोड़ भारत की मुश्किलें बढ़ा सकता है। पिछले दिनों न्यूयार्क टाइम्स द्वारा खुलासा भी किया गया कि गुलाम कश्मीर में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण गिलगित-बल्तिस्तान क्षेत्र पर चीन का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। यहां तकरीबन 10 हजार से अधिक चीनी सैनिकों की मौजूदगी भी बराबर बनी हुई है। चीन इन क्षेत्रों में निर्बाध रूप से हाईस्पीड सड़कें और रेल संपर्को का जाल बिछाता जा रहा है। सिर्फ इसलिए की भारत तक उसकी पहुंच आसान हो सके। दरअसल चीन की मंशा अरबों रुपये खर्च करके काराकोरम पहाड़ को दो फाड़ करते हुए ग्वादर के बंदरगाह तक अपनी रेल पहुंच बनानी है। ताकि युद्धकाल में जरूरत पड़ने पर वह अपने सैनिकों तक रसद सामग्री आसानी से पहुंचा सके।


अरुणाचल प्रदेश को लेकर उसकी मंशा में आज भी बदलाव नहीं आया है। भारत से कई दौर की बातचीत के बावजूद भी वह अरुणाचल को अपना हिस्सा मान रहा है। भारत चीन की इच्छा के मुताबिक कई दशक पहले ही तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार कर विवादों को निपटाने की पहल की, लेकिन चीन अरुणाचल पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं है। भारत सरकार के पहल के बावजूद भी सीमा विवाद को सुलझाने के लिए चीन आगे नहीं आ रहा है। अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग किमी पर उसका दावा ज्यों का त्यों बना हुआ है। अरुणाचल प्रदेश से चुने गए किसी भी जनप्रतिनिधि को चीन जाने के लिए वीजा नहीं देता है। सीमा विवाद सुलझाने की बात 1976 से चल रही है, लेकिन भारत पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए वह दस्तावेजों के आदान-प्रदान में अपने दावे के नक्शे भारत को उपलब्ध नहीं कराता है। इसके बावजूद भी भारत चीन की तमाम शर्तो को समय-समय पर मानता रहा है ताकि आपसी कटुता कम हो, लेकिन भारत की उदारता को चीन उसकी कमजोरी समझ रहा है। इसके लिए भारत कम गुनाहगार नहीं है। उसे चीन की ढिठाई का जवाब कड़े तेवर के साथ देना चाहिए, लेकिन भारत सरकार चीन के आगे भीगी बिल्ली बनी हुई है जो अनुचित है।


भारत अभी भी अपने उसी पुराने सोच पर कायम है कि उसकी दोस्ताना नीति से चीन का दिल पिघल जाएगा, लेकिन चीन दोस्ती की आड़ में पीठ में छूरा ही भोंकता रहा है। भारत को अपनी कुटनीति में बदलाव करने का समय आ गया है। उसे चीन को संकेत देना होगा कि उसकी उदारता को वह उसकी कायरता न समझे, लेकिन भारत सरकार ऐसा संकेत देने क्यों बच रही है। सच तो यह है कि भारतीय विदेश नीति पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय से ही भटकाव की शिकार रही है। चीन के जवाब में भारत के पास सौदेबाजी की नेहरु काल की बची हुई सीमित ताकत यानी तिब्बत का मसला भी परवर्ती शासकों ने मुफ्त में गवां दी। इस उम्मीद में की चीन भारत के प्रति आक्रामक नहीं होगा। इसी का नतीजा है कि आज चीन कश्मीर मसले पर पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखता है।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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