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पाकिस्तान की यात्रा से लौटकर वहां के लोगों का भारत के प्रति नजरिया बयान कर रहे हैं कुलदीप नैयर
पिछली बार एक साल पहले पाकिस्तान गया था। उस वक्त से अब तक पाकिस्तान कई मायने में बदल चुका है। देश के अधिकांश हिस्सों से आतंकवाद खत्म हो चुका है। कई महीनों से पंजाब में हिंसा की एक भी घटना नहीं घटी है। सबसे बढ़कर, अब वहां आतंकवाद बहस का विषय नहीं है। इस बार लाहौर की सड़कों पर मैंने कहीं सशस्त्र जवानों को नहीं देखा। इसके बावजूद अभी भी लोग असहज और असुरक्षित महसूस करते हैं। इसी तरह पिछले साल की तरह तालिबान अब रोजमर्रा की बहस का विषय नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि वहां तालिबानी हैं और ऐसा माना जाता है कि जिस तरह अफगानिस्तान में तालिबानियों का पीछा नहीं किया जाता, उसी तरह पाकिस्तान की सेना भी उनका पीछा नहीं करती है। यह स्पष्ट दिखता है कि अब मतांधता नहीं पनप रही है हालांकि धर्म के नाम पर अपील कम नहीं हुई है। मौलवी अभी भी सभी के लिए हौआ बने हुए हैं। उदारवादियों ने असहमति की अपनी आवाज को नरम कर लिया है। दक्षिणपंथी ताकतों को एहसास हो गया है कि व्यवस्था उनके साथ नहीं है। उन लोगों ने शांति और सद्भाव की वकालत करने वालों पर हमला करने के लिए कौंसिल ऑफ डिफेंस का गठन कर लिया है। मुंबई पर आतंकी हमले में शामिल हफीज सईद और आइएसआइ के पूर्व प्रमुख भारत विरोधी गुल मोहम्मद समेत दूसरे लोग इसके नेता हैं। इन लोगों को यह डर है कि इस्लामाबाद उनके प्रमुख दुश्मन अमेरिका और भारत से हाथ मिला लेगा। उनके जिहादी अभियान के बावजूद आम लोगों के बीच भारत के साथ रिश्ता बेहतर करने की चाहत है। सभी दबावों के बावजूद दोनों देशों की जनता के बीच सद्भावना की चाहत जोर पकड़ रही है।
पाकिस्तान में भारत के साथ दोस्ती का आज जो माहौल है, वैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा। कई प्रमुख लोगों ने कहा, हमने दुश्मनी में 65 साल बर्बाद कर दिए। कम से कम अब आगे का वक्त बर्बाद न करें। बुजुर्गो का मानना है कि अगर उनके जीते जी भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी खत्म नहीं हुई, तो उनके मरने के बाद यह खत्म नहीं होगी, क्योंकि युवा पीढ़ी इसके प्रति उदासीन है। हालांकि, मैंने भारत के प्रति दिलचस्पी रखने और यहां के युवाओं के साथ मेलजोल बढ़ाने की ख्वाहिश वाले कई युवाओं को देखा है, लेकिन उनकी मुख्य समस्या वीजा है, जिसे पाना नामुमकिन है। भारत के साथ व्यापार का इंतजार बेसब्री से किया जा रहा है। ऐसा सिर्फ इस कारण नहीं है कि इससे अर्थव्यवस्था की गिरावट रुकेगी, बल्कि यह बेसब्री इस बात को लेकर है कि इससे भारत के साथ संपर्क का अवसर मिलेगा। संस्कृति, परंपरा और लोकाचार की समानता बहुतेरे पाकिस्तानियों के दिल में यह भाव पैदा कर रही है कि उनका दीर्घकालिक हित भारत के साथ जुड़ने में है, न कि उस इस्लामी दुनिया से जुड़ने में, जिसकी वकालत दक्षिणपंथी ताकतें करती रहती हैं। हालांकि वहां के मीडिया के साथ ऐसी बात नहीं है। पाकिस्तानी मीडिया भी भारत के अखबारों और टेलीविजन चैनलों की तरह घरेलू मामलों में ही हर वक्त उलझी रहती है।
कुछ व्यापारियों ने मुझसे कहा कि भारत के साथ किसी तरह का व्यापारिक संबंध बनाने की स्थिति में उन्हें आतंकवादियों से अंजाम भुगतने की धमकी मिलनी शुरू हो गई है। सबसे अधिक ध्यान देने वाली खबर यह है कि पूरे कैंट इलाके की दीवारें भारत विरोधी नारों से पाट दी गई हैं। किसी विचार के फैलाव के लिए दीवारों को रंग देना आम प्रचलन है। आम धारणा है कि सेना मजबूत है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि सेना कुछ करने जा रही है। यहां तक जनरल मुशर्रफ के कार्यकाल में भी जो हुआ, उतना भी सेना नहीं करने वाली है। ऐसा लगता है कि सेना मान रही है कि इस बार सत्तापलट करना आसान नहीं होगा। राजनीतिक दल आपस में भिड़ रहे हैं, लेकिन उन सबने साफ कर दिया है कि मार्शल लॉ यानी सैन्य शासन का कोई सवाल ही नहीं है। नवाज शरीफ ने मुझसे कहा कि अगर सेना सत्तापलट की कोई भी कोशिश करती है, तो वे लोग आसिफ अली जरदारी की सरकार का साथ देंगे। मेरा मानना है कि जरदारी को शरीफ का संदेश मिल चुका है। शरीफ पाकिस्तान में भी अमेरिका या भारत जैसी सेना चाहते हैं।
ओसामा बिन लादेन की मौत सेना के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हुई है। सेना से जनता का भरोसा डिग गया है। वह इसे अत्यधिक कमजोर और अमेरिका की पिछलग्गू मानने लगी है। एक कहानी खुलेआम कही गई कि राष्ट्रपति जरदारी ने जनरल परवेज कियानी समेत सेना के वरिष्ठ अधिकारियों और कुछ वरिष्ठ मंत्रियों की बैठक यह तय करने के लिए बुलाई थी कि अमेरिका ने जिन पाकिस्तानी सैनिकों की हत्या की है, उसे लेकर अमेरिका पर इस्लामाबाद कितना दबाव डाल सकता है। इस बैठक में सेना के अधिकारियों ने कहा कि वे अमेरिकी दबाव का मुकाबला नहीं कर सकते। निस्संदेह, पिछले वर्ष की तुलना में इस बार अमेरिका विरोधी भावना ज्यादा तीव्र दिखी, लेकिन यह स्थिति मुख्य रूप से अमेरिका की काबुल परस्त नीतियों के कारण है। इस्लामाबाद अफगानिस्तान को रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मानता है और काबुल को सशक्त करने की अमेरिकी नीति से उसे दिक्कत होती है। भारत के साथ अमेरिका की नजदीकी से स्थिति और बिगड़ती है।
कियानी कोई भारत के दोस्त नहीं हैं, लेकिन वह अपने माथे पर भारत विरोध का तमगा भी नहीं लगाना चाहते। भारत विरोधी तेवर छोड़ने के अमेरिकी दबाव को वह महसूस करते हैं। कियानी को इस बात का एहसास है कि पाकिस्तान को अगर अपनी सेना को साधन संपन्न बनाना है तो उन्हें भारत से दूरी कम करने की कोशिशों का साथ देना होगा। भारत को मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा देने के निर्णय को उनकी सहमति हासिल है, लेकिन संभवत: उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि भारत के साथ शांति चाहने वालो की लॉबी उनके अनुमान से कहीं बड़ी हो गई है। नवाज शरीफ को यह कबूलने में कोई गुरेज नहीं है कि भारत के साथ दोस्ती की बात करने के कारण ही उन्हें 1991 में बेनजीर भुट्टो के खिलाफ जीत हासिल हुई थी। वह 2013 के अगले चुनाव में फिर से इसी मुद्दे को उठाने का इरादा रखते हैं। सत्तारूढ़ पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के कुछ लोगों को भी इस बात में फायदा नजर आने लगा है। हालांकि यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि राजनीतिक पटल पर उभर रहे इमरान खान इसके समर्थक नहीं हैं। सेना उनकी सबसे बड़ी समर्थक है और संभव है कि सेना भारत के साथ विवाद को सदा के लिए समाप्त न होने देकर कुछ लाभ उठाना चाहती हो।
लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं
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