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ग्रामीण विकास के रोड़े

जागरण मेहमान कोना
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वैसे तो भारत में ग्राम पंचायतों की अवधारणा सदियों पुरानी है, लेकिन आजादी के बाद देश में पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक अधिकार देकर उसे मजबूत बनाने की कोशिश की गई है। खासकर संविधान के 73वें संशोधन में पंचायतों को वित्तीय अधिकारों के अलावा ग्रामसभा के सशक्तिकरण की दिशा में अनेक योजनाएं बनीं। यही वजह है कि आज देश के लगभग सभी राज्यों में पंचायतों के चुनाव नियमित हो रहे हैं। वहीं केंद्र सरकार इन पंचायतों के विकास लिए अपने खजाने से सालाना अरबों रुपये आवंटित कर रही है ताकि गांवों का सही विकास हो सके, लेकिन इतनी धनराशि आने के बावजूद देश में गांवों की बदहाली दूर नहीं हो पा रही है। असल में ग्राम स्वराज और ग्राम्य विकास का जो सपना महात्मा गांधी और जयप्रकाश नारायण ने देखा था वह अभी तक पूरा नहीं हो पाया है। जिस तरह संसदीय लोकतंत्र में देश के सर्वोच्च प्रतीक संसद और विधानसभाओं का महत्व है उसी तरह ग्रामसभा लोकतंत्र की सबसे निचली इकाई है। इसे सामान्य शब्दों में हम ग्राम संसद भी कहते हैं, लेकिन कमजोर अधिकारों के कारण ग्रामसभा उस तरह मजबूत नहीं हो पाई जैसी परिकल्पना राष्ट्रपिता और लोकनायक जयप्रकाश ने की थी। जिस तरह सांसद और विधायक करोड़ों रुपये की निधि का इस्तेमाल सही तरीके से नहीं करते उसी तरह पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि भी कमोबेश उसी राह पर चल रहे हैं।

 

ग्राम स्वराज का असल मकसद तभी पूरा होगा जब गांवों की सत्ता में ग्रामीणों को उचित भागीदारी मिले और विकास से जुड़े तमाम फैसले लेने का अधिकार ग्राम सभा को हो। उदाहरण के तौर पर गांव में सड़कें कहां बनानी हैं, ग्रामसभा की जमीन का किस तरह व्यावसायिक इस्तेमाल हो, इसके अंतिम निर्णय का अधिकार कलेक्टर और बीडीओ को नहीं, बल्कि पंचायत के सरपंच और प्रधान को मिलना चाहिए। संविधान के 73वें संशोधन के बाद दिल्ली से जारी होने वाली धनराशि पंचायतों के विकास के लिए पहुंचती है। अमूमन हर पंचायत में पांच साल के दौरान लाखों रुपये मिलते हैं। अगर इन पैसों का सही जगह इस्तेमाल किया जाए तो देश के समस्त गांवों की तस्वीर बदल सकती है, लेकिन इस भ्रष्ट व्यवस्था में ऐसा नहीं हो पा रहा है, क्योंकि पंचायतों को मिले रुपये कहां खर्च किए जाएं यह फैसला ग्रामीणों की सहमति के बगैर नहीं हो रहा है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि पंचायतों के प्रधान और सरपंच अपने चहते लोगों और अधिकारियों से साठगांठ कर उन योजनाओं को मंजूरी दिलाते हैं जिसमें बंपर कमीशन काटने की गुंजाइश होती है। यही वजह है कि देश के अधिकांश राज्यों में ग्रामसभा को निरंतर कमजोर करने की साजिश की जा रही है। इस मामले में बिहार का उदाहरण लिया जा सकता है। राज्य के तकरीबन सभी गांवों में अक्षय ऊर्जा योजना के नाम पर ग्राम प्रधानों ने सौर बिजली लगाने की योजना बनाई।

 

बावजूद इसके बिहार के गांवों में अंधेरा अब भी कायम है, क्योंकि लगभग नब्बे फीसदी सोलर लाइटें खराब हो चुकी हैं। इस तरह बड़े पैमाने पर सोलर लाइटें लगाने की एकमात्र वजह थी मोटा कमीशन। अगर विकास योजनाएं ग्रामीणों की सहमति से बनाई जाए तो इस तरह की मनमानी और लूटपाट को रोका जा सकता है। गांवों का विकास ग्रामीणों की मर्जी से होना चाहिए ऐसा कहने के पीछे तर्क यह है कि ग्रामसभा को अधिक से अधिक विकेंद्रीकृत किया जाए। अगर संभव हो तो उसे वार्ड सभा और टोला सभा में तब्दील किया जाए, क्योंकि जिस तरह गांव का प्रधान कुछ हजार लोगों का प्रतिनिधित्व करता है उसी तरह एक पंचायत में चुने जाने वाले दर्जनों पंचायत सदस्य और पंच भी सैकड़ों लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए उनके साथ भेदभाव किया जाना ठीक नहीं। इस तरह के सौतेले बर्ताव से भला हम गांवों का सर्वागीण विकास कैसे कर पाएंगे? दिल्ली स्थित सेंटर फॉर सोशल इंपावरमेंट ऐंड रिसर्च जो ग्रामीण विकास के प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने के अभियानों से जुड़ी है। इस संस्था द्वारा किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि पंचायतों के चुनाव में भी धनबल और बाहुबल का उपयोग लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तरह होने लगा है। अध्ययन से पता चलता है कि पिछले साल उत्तर प्रदेश में हुए पंचायत चुनाव में सैकड़ों प्रत्याशी ऐसे थे जिनके पास करोड़ों की चल-अचल संपत्ति थी।

 

पंचायतों के चुनाव में मारामारी का आलम यह था कि ग्रामप्रधान और जिला पंचायत की एक सीट के लिए औसतन डेढ़ दर्जन उम्मीदवारों ने नामजदगी के पर्चे भरे। सीएसईआर के अनुसार उत्तर प्रदेश में हुए पंचायतों के चुनाव में ग्रामप्रधान के उम्मीदवारों ने जहां पांच लाख से सात लाख रुपये खर्च किए वहीं जिला पंचायत के लिए उम्मीदवारों ने औसतन दस लाख से सोलह लाख रुपये पानी की तरह बहाए। लोकतंत्र की नर्सरी कहे जाने वाले ग्राम पंचायतों के चुनाव में धन की यह धार सकारात्मक संकेत नहीं है। इन सबके बावजूद ग्राम विकास की उम्मीदें खत्म नहीं होतीं। निश्चित तौर पर बदलाव अचानक नहीं होता, लेकिन इसकी शुरुआत तो हो ही सकती है। उम्मीदों की ऐसी ही एक किरण कृष्ण नगरी मथुरा के मुखराई पंचायत में देखने को मिली। गोवर्धन तहसील से सटे इस पंचायत के प्रत्येक जनशिकायतों का समाधान ग्रामसभा की खुली बैठकों में ही किया जाता है। कुछ अरसे पहले यहां के ग्रामीण भी अन्य गांव वालों की तरह मानते थे कि गांव के विकास में उनकी कोई भागीदारी नहीं है। यही वजह था कि यहां के लोग अपने प्रधान और जिला पंचायत के सदस्यों से उनकी कार्यशैली के बाबत कोई पूछताछ नहीं करते थे। गांव के मुखिया विकास की कौन-कौन सी योजनाएं संचालित करते हैं, ग्राम सभा की बैठकें नियमित क्यों नहीं होती हैं आदि बातों से उन्हें कोई सरोकार नहीं था।

 

हालांकि अब ऐसा नहीं है, क्योंकि मुखराई लोग ग्रामीण विकास को लेकर पूरी तरह सजग हो चुके हैं। यहां के कुछ लोग सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत नित नई जानकारियां हासिल कर रहे हैं। मुखराई के लोगों का मुख्य पेशा कृषि और पशुपालन है। हालांकि कुछ समय पहले नीलगायों की वजह से यहां के किसान काफी त्रस्त थे। ग्रामीणों ने इस बाबत लिखित सूचना जिला प्रशासन को पूर्व में भी देते रहे, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई। नतीजतन यहां के लोगों ने इस समस्या को ग्राम सभा की खुली बैठकों में उठाया और उसके बाद यह मामला राज्य के शीर्ष अधिकारियों के पास पहुंचा। आपसी एकजुटता की वजह से यहां की ग्रामसभा आज पूरी तरह सशक्त बन चुकी है। इसे ग्रामीणों की चेतना का ही असर कहें कि मुखराई के ग्राम प्रधान अपने विकास कार्यो का लेखा-जोखा और एक-एक पैसे का हिसाब ग्राम सभा की बैठकों में देते हैं। बेशक देवभूमि मथुरा की मुखराई पंचायत देश भर के ग्राम सभाओं के लिए एक मिसाल है। अपनी मुखरता से मुखराई के लोग ग्रामीण विकास की दिशा में एक नई मिसाल कायम कर रहे हैं।

 

अभिषेक रंजन सिंह  स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं

 

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