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संसद ने सुनी जनता की आवाज

जागरण मेहमान कोना
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संसद की सर्वोच्चता का गाल बजाकर अन्ना के जन आंदोलन को धकियाने और कुचलने की कोशिश आखिरकार नाकाम साबित हुई। संसद ने उनकी तीन प्रमुख मांगों राज्यों में लोकायुक्तों का गठन, निचली नौकरशाही को लोकपाल के तहत लाना और सिटीजन चार्टर को सर्वसम्मति से पारित कर जनभावनाओं के प्रति आदर-सम्मान जता दिया है। देर से ही सही, खुद प्रधानमंत्री ने भी कहा है कि जनता की इच्छा ही संसद की इच्छा है। संसद के इस आचरण से उसकी गरिमा बढ़ी है और साथ ही लोकतांत्रिक जन आंदोलन का मस्तक भी ऊंचा हुआ है, लेकिन इस समझ को विकसित करने में सरकार और संसद ने न सिर्फ पौने तीन सौ घंटे लगा दिए, बल्कि आंदोलन के चरित्र को लांक्षित करने का भी काम किया, जो गैर-जरूरी था। चलिए, अंत भला तो सब भला। जीत तो आखिर लोकतंत्र की ही हुई। इस जीत ने न केवल भारत के वर्तमान पीढ़ी को उनकी एकजुटता का मतलब समझाया है, बल्कि हुक्मरानों को भी आईना दिखा दिया है कि लोकतंत्र में जनता के साथ विचार-विमर्श को ताक पर रखकर दीर्घकाल तक सत्ता का भोग नहीं लगाया जा सकता।


लोकतंत्र की जीत ने उन विधि-नियंताओं की आंखों पर पड़ी पट्टी को भी नोंच डाला है, जो जनप्रतिनिधि होने के नाते अपनी मनमर्जी को ही संविधान की भाषा समझ बैठे थे। अब उन्हें न केवल जनता की आवाज सुननी होगी, बल्कि अपनी निरंकुशता पर भी लगाम कसनी होगी। अन्ना के आंदोलन ने वैश्विक समुदाय को अहिंसावादी आंदोलन का एक नया पाठ पढ़ाया है। देर सबेर इसे दोहराया जाना तय है। अन्ना के आंदोलन ने साबित कर दिया कि आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी भारत महात्मा गांधी के आदर्शो और अहिंसावादी विचारों से दूर नहीं हटा है। जिस अहिंसावादी आंदोलनों के बूते गांधी ने ब्रिटिश साम्राज्य की चूलें हिला दीं, वह आदर्श विचार एक बार फिर अग्निपरीक्षा में तप कर कुंदन साबित हुआ है। अन्ना के अहिंसावादी आंदोलन ने साबित कर दिया कि भारत ट्यूनीशिया, मिस्र और लीबिया सरीखा देश नहीं है, जहां अपनी बातें मनवाने के लिए बंदूकों का मुंह खुला रखा जाता है। अन्ना के आंदोलन ने नई पीढ़ी के नौजवानों को अनुशासन की एक महान सीख दी है, जो कल के भारत के निर्माण में मील का पत्थर साबित हो सकती है।


भारत वह देश है, जिसके आदर्श बुद्ध, महावीर, गांधी और विवेकानंद हैं और उनके अहिंसावादी विचारों को अपनाकर ही देश को महान बनाया जा सकता है। कभी विवेकानंद ने कहा था कि पूरा देश तमस में है, लेकिन आज उन्हीं के अनुयायी अन्ना ने अपने तेवर से देश को रजस बना दिया है। देश सोया हुआ था। अन्ना ने उसे जाग्रत किया है। यथास्थितिवादी यह धारणा फैला चुके थे कि देश अब सुधरने से रहा, लेकिन आंदोलन ने साबित कर दिया कि अगर अन्ना जैसा सार्थक नेतृत्व मिले तो देश की तस्वीर रातोंरात बदली जा सकती है। अन्ना के विचारों का ही कमाल है कि राजनीतिक वर्ग की शिथिलता जो चरम पर थी, वह अब समाप्त होकर जनता के अनुकूल दिखने लगी है। आखिर राजनीतिक वर्ग भी कब तक अन्ना की जलाई ज्योति को नजरअंदाज कर अंधा बना रह सकता था। जन आंदोलन का ही परिणाम है कि आज संसद, जनतंत्र और जनशक्ति एक-दूसरे के करीब आते दिखने लगे हैं।


देश के लिए यह शुभ घड़ी और ऐतिहासिक पल है। उन लोगों की बात बेमानी साबित हुई है, जो यह कहा करते थे कि कानून सड़क पर नहीं बनता। उन्हें ज्ञान होना चाहिए कि दुनिया के हर बड़े फैसले सड़क पर ही तय हुए हैं। राजशाही और तानाशाही के खिलाफ विश्व की समस्त क्रांतियां सड़कों पर ही लड़ी गई। अगर दिल्ली के रामलीला मैदान में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना ने इंकलाब का बिगुल फूंका तो यह भी लड़ाई सड़क की ही मानी जाएगी। इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है। विश्व में युवा क्रांति जोरों पर है। राजशाही पर धक्का लगाया जा रहा है। राजतंत्र टूट रहे हैं। भारत इससे अछूता नहीं रह सकता। अन्ना ने युवा आक्रोश को सही दिशा दी है। दूसरी आजादी का सपना दिखाया है, लेकिन पाने का तरीका गांधी की तरह अहिंसक बताया है। उन्होंने सरकार को भी चेताया है कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है। उसे अलग रखकर आदर्श राज्य-समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता। कानून निर्माण में उसकी भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए। संसद को जनता की इच्छा का सम्मान करना होगा। उसे जानना होगा कि आखिर जनता चाहती क्या है? अन्ना ने वही बात की है, जिससे लोकतंत्र मजबूत होता है। बीते 42 सालों से लोकपाल बिल धूल फांक रहा था।


कड़े कानून के अभाव में भ्रष्टाचार के दानव का मुंह हर रोज चौड़ा हुआ है। आखिर किसकी गलती थी? भ्रष्टाचार पर हमला और जन लोकपाल की मांगकर अन्ना ने संसद को अपनी जवाबदेही का अहसास करा दिया है। संसद में सांसदों ने इसे स्वीकारा भी है। अन्ना ने साफ कह दिया है कि देश की असली मालिक जनता है। अभी तक संसद इसे मानने को तैयार नहीं थी। वह बार-बार जनतंत्र की जुबान को अपनी ताकत से कुचलने की कोशिश ही करती देखी गई, लेकिन दूसरी आजादी के दूसरे गांधी ने जनभावनाओं को संसद से ऊपर ला खड़ा कर दिया है। लोकतंत्र की परिभाषा को समग्रता दी है। अन्ना के संकल्प की व्यापकता ने ही आज जनता की बादशाहत को एक नई ऊंचाई दी है। सरकार हार गई है। उसके व्यूहकारों की रणनीति और षड्यंत्र किसी काम नहीं आया। सरकार ने अन्ना के अनशन को कुचलने के लिए क्या-क्या नहीं किया। अनशन स्थल देने के नाम पर छलावा किया। देश को असह्य पीड़ा हुई। लेकिन जब अन्ना और उनके सहयोगियों को तिहाड़ जेल भेजा गया तो देश उबल पड़ा। जनता सड़कों पर उतर आई। सरकार की हैवानियत ने जनमानस को अंदर से झकझोर दिया। जनता ने तिहाड़ जेल को घेर लिया। फ्रांसीसी क्रांति के वक्त की वह घटना याद आ गई, जब बास्तील के दुर्ग को लोकतंत्र के समर्थकों ने इसलिए घेर रखा था ताकि अपने देशभक्त साथियों को छुड़ा सकें।


अंतत: देशभक्तों ने बास्तील की जेल को ढहा ही दिया। शुक्र है कि भारत सरकार को यह बात पहले समझ में आ गई और वह अन्ना एवं उनके सहयोगियों को रिहा करने के साथ ही अनशन के लिए रामलीला मैदान की स्वीकृति भी दे दी, लेकिन सरकार के नुमाइंदों ने अन्ना हजारे पर आरोप लगाना नहीं छोड़ा। सरकार के इशारे पर उन्हें भ्रष्ट कहा गया। आंदोलन को कलंकित करने के लिए आंदोलन के पीछे अमेरिकी हाथ होने का दुष्प्रचार किया गया, लेकिन कहा जाता है न कि झूठ के हाथ-पांव नहीं होते। सरकार के आरोप भी वैसे ही प्रतीत हुए। सरकार जब हार-थक गई तो समाज के तथाकथित उन ढोंगी किस्म के समाजसेवियों और मानवाधिकारवादियों को आगे खड़ा कर दिया, जो अन्ना को फासिस्ट बताते देखे गए। इन कुतर्कवादियों ने आंदोलन को पिपली लाइव की संज्ञा दी। सत्ता के चाटुकारों ने अन्ना के आंदोलन को जात-पात के खांचे में भी फिट करने की कोशिश की, ताकि आंदोलन की दिशा को बदला जा सके। इसी बहाने सामाजिक न्याय की बात को भी उछाला गया, लेकिन इस देश की जनता सब कुछ समझती है। सभी कुतर्क बेमानी सिद्ध हुए। जनता ने कुतर्कियों की बकवास पर कान नहीं दिया।


आंदोलन में दलितों की नुमाइंदगी का बेसुरा राग अलापने वाले जातिगत ठेकदार चारों खाने चित्त हुए। उन लोगों को भी अपने पैरों के नाखून से जमीन कुरेदनी, पड़ी जो देश के नौजवानों को एक भटकाव की दिशा में देख रहे थे। वे यह मान बैठे थे कि नई पीढ़ी के नौजवानों को देश और समाज की समझ नहीं है और न ही उनमें राष्ट्रवाद की गंध महसूस करने की क्षमता है, लेकिन ऐसी पूर्वाग्रही सोच को हाथ में तिरंगा लिए नौजवानों ने खारिज कर दिया। इस तरह तय हो गया है कि नई पीढ़ी का रोल मॉडल बॉलिवुड के वे नायक-नायिकाएं नहीं हैं, जो रूपहले परदे पर लटके-झटके दिखाते हैं, बल्कि 74 वर्षीय वह समाजसेवी अन्ना हजारे हैं, जिन्होंने भ्रष्टाचार पर वार कर सरकार को घुटने के बल रेंगने के लिए मजबूर कर दिया है।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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