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संसद में मोर्चेबंदी के मायने

जागरण मेहमान कोना
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Awdhesh Kumarइस समय के राष्ट्रीय राजनीतिक हलचलों पर सरसरी नजर दौड़ाइए और एक मोटा-मोटी तस्वीर बनाइए। संसद और उसके बाहर सत्तापक्ष एवं विपक्ष के बीच का तनाव एक सामान्य संसदीय लोकतंत्र की गतिविधियों की बजाय जानी दुश्मनों के एक-दूसरे को निपटा देने की मोर्चाबंदी में परिणत हो चुका है। दिल्ली के रामलीला मैदान में लालकृष्ण आडवाणी और राजग के अन्य नेताओं ने सरकार के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर आने वाले संसद सत्र एवं उसके बाहर की राजनीति का पूर्वाभास करा दिया था। वास्तव में संसद सत्र के ईर्द-गिर्द राजनीतिक युद्ध का जो माहौल बना हुआ है, उसकी पूर्वपीठिका पहले ही तैयार हो चुकी थी। राजनीति पर नजर रखने वालों के लिए काला धन, भ्रष्टाचार, चिदंबरम का बहिष्कार, महंगाई आदि पर दिख रही आक्रामकता कतई अस्वाभाविक नहीं है। इन मुद्दों पर सरकार के व्यवहार एवं भारतीय राजनीति की वर्तमान दिशा-दशा को देखते हुए ऐसी परिणाति स्वाभाविक है। प्रश्न है कि इसका परिणाम क्या आएगा? क्या हमारा देश ऐसी स्थिति में पहुंच गया है, जहां संसदीय लोकतंत्र के मान्य तौर-तरीके धीरे-धीरे बेमानी साबित हो रहे हैं? अगर ऐसा है तो इसके लिए दोषी कौन है? इन प्रश्नों का उत्तर तलाशने से पहले हमें उन घटनाक्रमों का संक्षिप्त विश्लेषण करना होगा, जिनसे स्थिति यहां तक पहुंची है। जरा संयोग देखिए कि आडवाणी की रथयात्रा समापन के दो दिनों पहले ही दिल्ली उच्च न्यायालय ने संसद में मतदान के लिए घूसकांड के आरोपी भाजपा नेताओं को जमानत देने के साथ पूरे मामले को ही गलत बता दिया। इससे भाजपा और राजग का हौसला बढ़ना स्वाभाविक है।


उच्च न्यायालय ने जमानत देते हुए स्पष्ट कहा कि यह भ्रष्टाचार नहीं, स्टिंग ऑपरेशन था। अब भाजपा और राजग यह कहने की स्थिति में हैं कि उसके पक्ष को न्यायालय ने भी सही ठहरा दिया है। इस परिप्रेक्ष्य में संसद और सड़कों पर संघर्ष की घोषणा के बाद ये पीछे हट जाएंगे, ऐसी तो कल्पना भी बेमानी है। आडवाणी भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष हैं। भ्रष्टाचार और काला धन पर करीब 7500 किलोमीटर की यात्रा के बाद उनके लिए अपनी मुहिम को तार्किक परिणति तक ले जाने का ही विकल्प है। इसका तरीका एक ही है, प्रत्येक स्तर पर सरकार को घेरने, कठघरे में खड़ाकर उसे भ्रष्ट या काला धन पर कार्रवाई की बजाय विपक्ष को फंसाने की कोशिश करने वाली तथा महंगाई बढ़ाकर आम आदमी की कमर तोड़ने वाली सरकार साबित करने की हर संभव कोशिश। सरकार के विरुद्ध वर्तमान राजनीतिक संघर्ष का यही उद्देश्य अभिष्ट है। वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों का संयोग भी है कि इनमें से कई मामलों पर भाजपा व राजग तथा वामदल भी एक हैं।


महंगाई पर वामदलों के स्थगन प्रस्ताव का भाजपा को समर्थन मिला तो काला धन पर बहस के भाजपा के प्रस्ताव को वामदलों का। कोई यह कल्पना न करे कि संसद में काला धन पर बहस के साथ भाजपा एवं राजग का सरकार विरोधी मुहिम थम जाएगी। जाहिर है, कांग्रेस और सरकार के लिए विपक्ष का यह तेवर ऐसी चुनौती है, जिससे पार आना आसान नहीं है। आर्थिक परिस्थितियां भी उसका साथ नहीं दे रहीं। रुपये के गिरते मूल्य ने तेल मूल्य बढ़ने और उसके अनुसार महंगाई के सुरसा का मुंह और फैलाने का खतरा पैदा कर दिया है। शेयर बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशक धन निकाल रहे हैं और बाजार लंबे समय से कोहराम की हालत में है। एक-दो दिनों के लिए थोड़ी हरियाली आती है और फिर लाल रंग के खतरे से बाजार आच्छादित हो जाता है। इसमें वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी द्वारा विपक्षी नेताओं को दोपहर के सुस्वादु भोज खिलाकर मनाने का प्रयास निष्फल जाना ही था। भ्रष्टाचार और काला धन के मसले पर विपक्ष किसी सूरत में सरकार को चैन से सांस लेने नहीं दे सकता। निस्संदेह, भ्रष्टाचार से विपक्ष का दामन भी पाक साफ नहीं, पर यह भी सही है कि वर्तमान केंद्र सरकार ने पिछले सारे काले रिकॉर्ड को धो दिया है। और हमारी राजनीति जिस अवस्था में है, उसमें सत्य, नैतिकता या नीर-क्षीर-विवेक से विचार कर अपनी जिम्मेवार भूमिका तय करने की सोच अब शेष बची ही कहां है। भ्रष्टाचार और काला धन दो ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर केवल विपक्षी दल ही नहीं, स्वामी रामदेव और अन्ना हजारे की मुहिम से भी पूरे देश में जन जागरण हुआ है। इसलिए संप्रग इतर सारे राजनीतिक दल इसका राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं। अगर संप्रग सरकार का बीच में पतन नहीं हुआ तो कम से कम 2014 के अगले लोकसभा चुनाव तक इस मोर्चाबंदी को हर हाल में परवान चढ़ाने की कोशिश जारी रहेगी।


भ्रष्टाचार के विरुद्ध केंद्र ने क्या कदम उठाए, विदेशों से काला धन वापस लाने एवं दोषियों की पहचान के लिए क्या-क्या कोशिशें हुई, कैसे द्विपक्षीय-अंतरराष्ट्रीय समझौते हुए केंद्र की ये बातें वस्तुत: राजनीति के गरम तवे पर पानी की कुछ बूंदों की तरह उड़ जा रही हैं। वैसे यह सच तो हमें स्वीकारना होगा कि केंद्र सरकार ने इन मामलों पर कार्रवाई से ज्यादा अपना बचाव एवं विपक्ष को बदनाम करने में बुद्धि कौशल का प्रयोग किया है। इसमें गृह मंत्री पी चिदंबरम की भूमिका लगातार संदिग्ध नजर आई है। जुलाई 2008 में संप्रग-1 सरकार के विश्वासमत के दौरान लोकसभा पटल पर भाजपा सांसदों द्वारा लहराए गए नोटों के बंडलों के बारे में देश में आम जन की सोच के विपरीत सरकार की ओर से इसे विपक्ष द्वारा बदनाम करने की साजिश बताई जाती रही है। गृह मंत्रालय के आदेश पर ही दिल्ली पुलिस ने भाजपा सांसदों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कर जांच की। अब उच्च न्यायालय ने कह दिया कि यह किसी नजरिए से आरोपियों द्वारा किया गया भ्रष्टाचार नहीं है। इसका सीधा अर्थ तो यही है कि इन्हें गृह मंत्रालय ने जानबूझकर फंसाया।


गृहमंत्री एवं सरकार को भाजपा और इसके घटक दल कैसे माफ कर सकते हैं। भाजपा तो पहले से ही आतंकी हमलों के मामले में कुछ हिंदुओं की संलिप्तता को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित करने एवं हिंदू संगठनों को फंसाने की साजिशों का आरोप लगाती रही है। हालांकि इस मामले पर उसे ज्यादा दलों का साथ नहीं मिला, पर 2जी मसले पर उनकी भूमिका को लेकर सारे विरोधी दल एक पायदान पर हैं। या तो चिदंबरम मंत्रिपरिषद से जाएं, उनके खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई हो या फिर लड़ाई जारी रहेगी। जाहिर है, चिदंबरम का बहिष्कार इस लोकसभा के अंतिम दिनों तक चलेगा और सरकार के लिए इस मामले पर विपक्ष को मनाना संभव ही नहीं। सरकार ने 2जी घोटाले की जांच का दायरा राजग सरकार तक पीछे ले जाकर भी तनाव कम करने की बजाय टकराव को तीखा ही बनाया है। इसमें हाल-फिलहाल मोर्चाबंदी के अंत की कतई संभावना नहीं है। बहरहाल, सरकार एवं विपक्ष के बीच ऐसी मोर्चाबंदी के परिणामस्वरूप हो सकता है राष्ट्रीय राजनीति का वर्तमान समीकरण बदल जाए, लेकिन उसके बाद क्या? वैसी स्थिति में कांग्रेस एवं उसके साथी दल जैसे को तैसा राजनीतिक रणनीति में तल्लीन होंगे। इस प्रकार यह एक अंतहीन सिलसिला बनता दिख रहा है। कहने का अर्थ यह है कि ऐसी मोर्चाबंदी का परिणाम अंतत: देश के लिए अच्छा नहीं हो सकता। साफ है कि हमारी राजनीति ऐसी अवस्था की ओर अग्रसर है, जिसमें सत्तापक्ष एवं विपक्ष की मर्यादित भूमिका की सीमाएं टूट रहीं हैं और उसके बाद की कोई स्थापित या मान्य परंपरा नहीं। इसलिए आगे केवल सीमाहीन अंधियारा ही दिख सकता है। यह देश हित चाहने वालों के लिए यकीनन गहरी चिंता का कारण होना चाहिए।


सामान्य तौर पर इसके लिए दोषी केंद्र की सरकार नजर आती है, जिसके रणनीतिकारों ने अपना दामन साफ करने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने, आंतरिक सुरक्षा सुनिश्चित करने, आम उपभोग की वस्तुएं उचित मूल्य पर उपलब्ध कराने तथा गरीबों, किसानों, कामगारों के हित में आर्थिक नीतियां मोड़ने की जगह शासन में बने रहने तथा विपक्ष की छवि कलंकित करने के लिए रणनीतियां बनाई और उसे साकार करने की कोशिश की। इस भूमिका ने संसदीय लोकतंत्र की राजनीतिक प्रतिस्पद्र्धा को दुश्मनी में परिणत करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया है।


लेखक अवधेश कुमार स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं



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