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जनता बनाम संसद का सवाल

जागरण मेहमान कोना
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Rahees singhउद्योगपति घनश्याम दास बिड़ला ने दूसरे गोलमेज सम्मेलन में एक बात कही थी, आज कांग्रेस के सामने वही पक्ष दोहराए जाने का वक्त आ गया है। उन्होंने कहा था, कोई भी सरकार किसी देश की सम्मति के बिना उस पर शासन नहीं कर सकती। अगर अमन-चैन कायम रखना है तो यह जरूरी है कि या तो आप हमारी मर्जी से हम पर हुकूमत करें या हमको अपने ऊपर आप हुकूमत करने दें। इस हालत में हम आपके दोस्त और साझीदार हो सकते हैं। अगर आपने इस मौके पर हमसे कोई दोस्ताना समझौता न किया तो यह आपकी भयंकरतम भूल होगी। ..मैं अपने मुल्क के नौजवानों को अच्छी तरह जानता हूं। बहुत संभव है कि कुछ वर्ष बाद इंग्लैंड को महात्मा गांधी या भारतीय नरेशों या मुझ जैसे पूंजीपतियों से समझौता न करके बिल्कुल नए आदमियों से, नई अवस्थाओं से, नए विचारों से, नई आकांक्षाओं से निपटना पड़े। इंग्लैंड को सावधान हो जाना चाहिए। आज की सरकार के लिए भी यही संदेश है कि हो सकता है कि आने वाले कल में सरकार का सामना अन्ना जैसे गांधीवादी से न होकर ऐसे युवाओं से हो, जो क्रांतिकारियों को अनुगमन कर रहे हों तो सरकार के सामने अरब देशों जैसी स्थिति पैदा हो जाएगी, लेकिन क्या इस विषय पर सरकार गंभीरता से विचार कर पा रही है? पिछले कुछ महीनों के अंदर ट्यूनीशिया, मिस्त्र और लीबिया में क्या हुआ और सीरिया व यमन में क्या हो सकता है, भारत की सरकार इस विषय का गंभीर अध्ययन करती तो बेहतर रहता। लेकिन सरकार ने शायद इसकी जरूरत नहीं समझी। इसके विपरीत उसने आधे-अधूरे ज्ञान के साथ कुछ ऐसे कदम उठाए, जो देश के समक्ष संकट उत्पन्न कर सकते थे। हालांकि यह भारत के लोगों की सहनशीलता थी कि उन्होंने अभी तक वैसा कुछ नहीं किया, जैसा कि अरब-अफ्रीकी देशों में घटित हुआ।


हमारे संविधान की प्रस्तावना में हम भारत के लोग सबसे पहले हैं। इसके बाद संसद और सरकार। सरकार इस बात से या तो अनजान है या वह इससे भटक गई है। जनता के मूड को जानने की कोशिश किए बगैर हर बात पर यही राग अलापते रहना कि संसद सबसे बड़ी है और कानून वही बनाएगी, उसे कोई ब्लैकमेल नहीं कर सकता, कितना उचित है? हमारे संविधान की प्रस्तावना में जिस विषय को तवज्जो दी गई है, उनमें सबसे पहले वी द पीपुल ऑफ इंडिया है। इसके साथ उन्हें (हम भारतीय नागरिकों को) यह शक्ति दी गई है कि भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी लोकतांत्रिक गणराज्य बनाएं तथा उसके समस्त नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता तथा समानता जैसे अधिकारों की प्रतिष्ठा करें। भारत के लोगों ने इन पंक्तियों का कितना मान रखा है, यह भले ही स्पष्ट न हो, लेकिन यह स्पष्ट है कि संविधान की शपथ लेने वालों ने इसकी पूरी तरह से अवहेलना की है। अगर ऐसा न होता तो आज देश में समानता और न्याय की प्रतिष्ठा हो चुकी होती और देश के अधिकांश नागरिक आज यह महसूस नहीं करते कि वे इन दोनों से ही वंचित हैं। सरकार की तरह यह बात हवा में नहीं की जा रही है, बल्कि इसके प्रमाण हैं। विश्व बैंक के मुताबिक भारत की लगभग 41.6 प्रतिशत आबादी अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा के नीचे है। ग्रामीण विकास मंत्रालय की ओर से गठित एनसी सक्सेना समिति तो यह प्रतिशत बढ़ाकर 50 कर देती है। सरकारें बार-बार नए मानक स्थापित कर विषय का पटाक्षेप कर लेती हैं।


ग्रामीण निर्धन परिवारों को चिह्नित करने के लिए वर्ष 1992, 1997 और 2002 में तीन बार आधिकारिक राष्ट्रीय सर्वेक्षण हो चुके हैं, लेकिन खुद सरकार ही यह स्वीकारती है कि आधे से अधिक गरीबों को चिह्नित नहीं किया जा सका है। इसका मतलब यह हुआ कि अगर उचित चिह्नीकरण हो जाए तो भारत के तथाकथित विकास की कलई पूरी तरह से खुल जाएगी। बेरोजगार युवाओं की मन:स्थिति धीरे-धीरे आक्रामकता की ओर बढ़ रही है, जिसे महंगाई और भ्रष्टाचार का दंश और आक्रामक बना रहा है। ये आंकड़े बताते हैं कि हमारी सरकार और हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधियों ने संविधान की भावना का आदर नहीं किया। राहत की बात यह है कि हमारे देश के लोगों की सहनशीलता अब भी बरकरार है, क्योंकि उन्होंने कजाकिस्तान की तरह कृत्य नहीं किया, जहां महंगाई के विरुद्ध चल रहे आंदोलन में शामिल लोगों ने गृहमंत्री की पीट-पीटकर हत्या कर दी थी और न ही अरब राष्ट्रों के लोगों की तरह सरकार के खिलाफ हथियार उठाए। 24 अगस्त को वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने मीडिया के समक्ष दिए एक बयान में कहा कि राष्ट्रीय सहमति से लोकपाल लाया जाएगा, लेकिन यहां पर राष्ट्रीय सहमति का तात्पर्य क्या है? क्या वित्तमंत्री उन राजनीतिक पार्टियों की सहमति को राष्ट्रीय सहमति के तौर पर पेश कर रहे हैं, जो 20 से 25 प्रतिशत मत पाकर संसद तक पहुंचने में कामयाब रही हैं? तकनीकी अर्थ में तो यह व्याख्या पूरी तरह से गलत है। अगर सरकार वास्तव में राष्ट्रीय सहमति से लोकपाल लाना चाहती है तो वह इस विषय पर जनमत संग्रह (रेफरेंडम या प्लेबीसाइट) क्यों नहीं करा लेती। आखिर सरकार इससे डरती क्यों हैं? यह दुहाई देते हुए बचने की कोशिश करना कि हमारे संविधान में इसका कोई प्रावधान नहीं है, क्या उचित तरीका है? हमारे संविधान में तो बहुत से प्रावधान नहीं थे, लेकिन उसमें सौ से अधिक संशोधन कर बहुत से नए खंड या उपखंड जोड़कर उसे अपने अनुरूप बना लिया गया। फिर इसे स्थापित करने में परहेज क्यों किया गया? हमारा संविधान इतना कठोर भी नहीं है कि उसमें इस प्रकार के विषय को समाविष्ट न किया जा सके। फिर भी अब सरकारों ने ऐसा नहीं किया तो इसलिए कि सरकार में इतनी हिम्मत ही नहीं है। आज दुनिया के तमाम देशों की जनता विशेष अवसरों पर अपने इस अधिकार का भी प्रयोग कर रही है।


भारत ने काफी कुछ दुनिया के तमाम देशों से ग्रहण किया है। फिर भी वह इस प्रक्रिया को स्वीकारने या अपनी जनता को रेफरेंडम का अधिकार देने से डर रही है, क्यों? दुनिया के कई देशों में जनमत संग्रह से संबंधित प्रयोग जनता की इच्छा को जानने के लिए किए गए। हालिया उदाहरण इटली, मोरक्को और सूडान का लिया जा सकता है। इसी वर्ष 13 जून को नाभिकीय नीति पर इटली ने जनमत लिया, जिसमें 95 प्रतिशत जनता ने सरकार के परमाणु कार्यक्रम को नकार दिया, जिससे सरकार परमाणु पॉवर प्लांट लगाने और पानी सप्लाई के लिए प्राइवेट पार्टनरशिप जैसे प्रस्तावों को संसद में पेश नहीं कर सकी। दूसरा उदाहरण मोरक्को का लिया जा सकता है, जहां 9 जुलाई को किंग मुहम्मद के अधिकार को लेकर जनमत संग्रह कराया गया और जनता ने उनके अधिकारों के विरुद्ध मत दिया। इसी वर्ष जुलाई में सूडान में दक्षिण सूडान को एक अलग राष्ट्र बनाने के लिए जनमत संग्रह कराया गया, जिसमें दक्षिण सूडान के 99.97 प्रतिशत लोगों ने एक नये राष्ट्र के उदय के पक्ष में मतदान किया। फलत: दक्षिण सूडान 54वें अफ्रीकी देश के रूप में प्रकट हुआ। भारत यूरोप के जिस देश की व्यवस्था के मॉडल को अपनाए हुए है, उसने भी यूरो अपनाने के संदर्भ जनमत कराया था, लेकिन जनता ने उसे नकार दिया। लिहाजा, सरकार यूरो अपनाने के मुद्दे पर पीछे हट गई। हम अपने आपको दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं तो क्या हमें उस व्यवस्था का आदर नहीं करना चाहिए, जिसके जरिए बहुसंख्यक जनता की हां या ना के अनुसार सरकार कानून का निर्माण कर सके? एशिया के ही तमाम ऐसे राष्ट्रों ने, जिन्हें हम गया-गुजरा मानते हैं, कई अवसरों पर अहम फैसले लेने में जनमत संग्रह लिया है, लेकिन दुर्भाग्य से हमारी सरकारें ऐसा करने का साहस नहीं जुटा सकीं।


बहरहाल, अब इस विषय पर सोचने का समय आ गया है कि सरकार के नजर में संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठित हम भारत के लोग का महत्व क्या है? सिर्फ इतना कि जब राजनीतिक दलों के लोग उनके दरवाजे पर सत्ता प्राप्त करने के उद्देश्य से मत लेने जाएं तो वे मूक-वधिर जैसा आचरण करते हुए चुपचाप उनकी अपेक्षाओं का आदर करें और फिर पांच वर्ष बाद के चुनावी पर्व की प्रतीक्षा करना शुरू कर दें। क्या संविधान में सबसे पहले स्थान वाले वी द पीपुल ऑफ इंडिया को अपने जनप्रतिविधियों द्वारा की जाने वाली उपेक्षाओं और अमर्यादित व अनैतिक आचरणों के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से भी विरोध दर्ज कराने का कोई हक नहीं है?


लेखक रहीस सिंह स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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