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सुधार का एक और आधार

जागरण मेहमान कोना
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Jasvir Singhमीडिया में प्रकाशित-प्रसारित रिपोर्टो में यह तथ्य उजागर हुआ है कि कुछ करोड़पति सांसद उन कायदे-कानूनों का खुला उल्लंघन कर रहे हैं जो उन्होंने खुद ही बनाए हैं। एक सामाजिक संगठन ने अपने अध्ययन में कहा है कि जिन 232 सांसदों के बारे में सूचनाएं दी गई हैं उनमें से 140 ने घोषणा की है कि उनकी किसी किस्म की पेशेवर संलिप्तता नहीं है, जबकि इनमें से कुछ ने अपने चुनावी शपथपत्र में करोड़ों की संपत्ति की घोषणा कर रखी है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार करीब 58 फीसदी राज्यसभा सदस्य करोड़पति हैं। यह देखना दिलचस्प है कि उनकी करोड़ों की संपत्ति के नियमित आर्थिक स्रोत नहीं हैं। किसी भी आम नागरिक की जिज्ञासा उठनी स्वाभाविक है कि चुनावी शपथपत्र में घोषित यह करोड़ों की रकम आई कहां से! यह इसका जीता-जागता उदाहरण है कि पहुंच वाले जनसेवक किस प्रकार कानून को धता बताते हैं और अपनी आधिकारिक शक्ति और अधिसत्ता का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन करते हैं। इसी कारण आम लोगों का राजनीतिक प्रतिष्ठानों से मोहभंग हो रहा है। सांसदों व विधायकों द्वारा शपथपत्र में घोषित संपत्ति की अनिवार्य, पारदर्शी और गहन पड़ताल का भी कोई नियामक तंत्र नहीं है। न ही इनका भौतिक सत्यापन किया जाता है। शपथपत्र में कम-ज्यादा संपत्ति की घोषणा करने पर दोषी जनप्रतिनिधियों को दंडित करने की भी कोई व्यवस्था नजर नहीं आती।


लोकसभा में भी हर बार करोड़पति सदस्यों की संख्या बढ़ती जा रही है। 2004 में जहां 156 करोड़पति लोकसभा सांसद थे वहीं 2009 में इनकी संख्या बढ़कर 315 हो गई है। 16 मई, 2007 को तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी द्वारा गठित कमेटी के अनुसार सांसदों को अपने आर्थिक हितों की घोषणा करना जरूरी है। सांसद किशोर चंद्र देव की अध्यक्षता में गठित की गई कमेटी ने स्पीकर को 31 मार्च, 2008 को रिपोर्ट सौंप दी थी और लोकसभा ने उसी साल 23 अक्टूबर को इसे सर्वसम्मति से अनुमोदित कर दिया था। हालांकि राजनीतिक पहल के अभाव ने रिपोर्ट के क्रियान्वयन पर ग्रहण लगा दिया और अब तक लोकसभा के किसी भी सदस्य ने अपने आर्थिक हितों की संबद्धता की घोषणा नहीं की। आचारसंहिता में यह भी उल्लिखित है कि सांसद सदन या संसदीय समितियों में किसी ऐसे सवाल का जवाब नहीं देगा जिससे उसके प्रत्यक्ष व्यक्तिगत हित जुड़े हुए हैं।


तीन वर्ष के लंबे अंतराल के बाद कमेटी द्वारा निर्धारित किए गए नियमों की राजनीतिक वर्ग द्वारा पूरी तरह अवहेलना की जा रही है। यह संसदीय लोकतंत्र की जवाबदेही और पारदर्शिता के मूल सिद्धांतों की अवमानना है। उदाहरण के लिए अगर इस आचार संहिता का पालन किया जाता तो टीवी चैनलों में हिस्सेदारी रखने वाले दनानिधि मारन को संचारमंत्री नहीं बनाया जाता। यही हालत विधानसभाओं की भी है। 2007 में विधायक कृष्णानंद राय की हत्या के बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया था कि अपराधियों का सार्वजनिक जीवन में कोई स्थान नहीं होगा। तुरंत ही प्रस्ताव को भुला दिया गया और तमाम प्रमुख पार्टियों ने दागी उम्मीदवारों को टिकट थमा दिए। इनमें कुछ उम्मीदवार जघन्य अपराधों के आरोपी भी हैं। इससे पता चलता है कि कायदे-कानून केवल आम लोगों के लिए हैं। सम्मानीय, सांसद और विधायक इनसे ऊपर हैं। केवल उत्तर प्रदेश में ही कुल 395 विधायकों में से 139 करोड़पति हैं। यही नहीं, 124 विधायकों ने तो अपने पैन की घोषणा तक नहीं की है। चुनाव शपथपत्र में घोषित संपत्ति के भौतिक सत्यापन और जांच की अनदेखी हमारी चुनावी प्रक्रिया की एक बड़ी खामी है। बहुत से उम्मीदवार अपने शपथपत्र को पूरा नहीं भरते। शपथपत्र की जांच-पड़ताल के उपयुक्त तंत्र के अभाव में पूरी प्रक्रिया एक मखौल में बदल गई है।


संसद और विधानसभाओं में करोड़पतियों और आपराधिक मामलों में लिप्त लोगों की बढ़ती संख्या को देखने से स्पष्ट हो जाता है कि इनमें अमीरों और दागी छवि वालों का वर्चस्व हो गया है। वास्तव में, बेहद खतरनाक पहलू यह है कि देश में ऐसा कोई प्रभावी नियामक तंत्र नहीं है, जो चुनाव से पहले उम्मीदवार द्वारा दाखिल शपथपत्र की गहन जांच करे। जब तक इन शपथपत्रों की गहन सार्वजनिक जांच नहीं होगी और गलत शपथपत्र भरने पर कड़े दंड का प्रावधान नहीं होगा तब यह पूरी प्रक्रिया बेमानी रहेगी। इस संदर्भ में अपनी संपत्ति के बारे में गलत जानकारी देने वाले उम्मीदवार को जीवनभर संसद और विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित किया जाना जरूरी है। जिन उम्मीदवारों की संपत्ति 50 लाख रुपये से अधिक है, उनकी जांच के लिए एक जवाबदेही आयोग का गठन किया जाना चाहिए। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि संपत्ति की घोषणा का व्यापक रेकॉर्ड सुरक्षित रखा जाए। जिन उम्मीदवारों की संपत्ति जवाबदेही आयोग द्वारा गलत तरीके से अर्जित बताई जाए, उन्हें तब तक चुनाव के अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए जब तक वे उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय की ओर से निर्दोष करार न दिए जाएं। जवाबहेदी आयोग की रिपोर्ट को किसी अन्य अदालत में चुनौती नहीं मिलनी चाहिए। यही नहीं, जिस प्रकार सरकारी नौकरी पाने वालों को पुलिस और जांच इकाइयों से अपने खिलाफ आपराधिक मामले न होने का सर्टिफिकेट लेना पड़ता है, उसी प्रकार चुनाव लड़ने वालों को भी आपराधिक मामले से बरी होने तक चुनाव लड़ने से प्रतिबंधित कर देना चाहिए। ऐसे अनेक उद्धरण हैं जिनमें राजनीतिक संभ्रांतों ने कायदे-कानूनों को हवा में उड़ा दिया है। भारत में यह प्रसिद्ध उक्ति पूरी तरह लागू होती है-पहले आदमी दिखाओ, तब बताऊंगा कानून क्या कहता है। आम आदमियों के लिए अलग कानून हैं और कुलीनों के लिए अलग।


उम्मीदवारों तथा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा जमा किए गए शपथपत्रों की गहन जांच के प्रभावी तंत्र के अभाव में हमारे सांसदों और विधायकों के धनी कॉरपोरेट घरानों के तरफदार होने और आपराधिक गतिविविधियों में लिप्त होने की आशंका बनी रहेगी। ऐसे में जनप्रतिनिधि जन कल्याणकारी योजनाओं जैसे स्वास्थ्य, खाद्य, शिक्षा, बिजली-पानी और मकान आदि पर ध्यान नहीं देंगे। इससे सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, पारदर्शिता और जवाबदेही का लक्ष्य हासिल करना दूर की कौड़ी बन जाएगा।


लेखक जसवीर सिंह आइपीएस अधिकारी हैं और ये उनके निजी विचार हैं


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