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विपक्ष भी सार्थक भूमिका निभाए

जागरण मेहमान कोना
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संसद का शीतकालीन सत्र एक बार फिर हंगामे की भेंट चढ़ता दिखने लगा है। सत्तापक्ष और विपक्ष के अडि़यल रुख से इस निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन हो गया है कि सत्र अपने उद्देश्य को फलीभूत करने में सफल होगा। माना जा रहा था कि सरकार और विपक्ष आपसी सामंजस्य से शीतकालीन सत्र में महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के अलावा महंगाई की दंश भोग रही जनता को राहत देने के लिए एकजुटता का प्रदर्शन कर सकते हैं, लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष की राजनीतिक पैंतरेबाजी को देखते हुए कतई नहीं लगता है कि महंगाई और जनसरोकार से जुड़े विधेयकों को लेकर दोनों गंभीर हैं। यह सही है कि चरम पर पहुंच चुकी महंगाई और देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए सरकार की नीतियां और उसकी कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार है और इस आधार पर विपक्ष को हमला बोलने का अधिकार है। लेकिन उसके साथ विपक्ष का यह भी कर्तव्य बनता है कि महंगाई और भ्रष्टाचार जैसी गंभीर समस्या पर ईमानदारी से सरकार का साथ देते हुए किसी तार्किक नतीजे पर पहुंचे। पर ऐसा होता दिख नहीं रहा है। लेकिन इसके लिए सिर्फ विपक्ष को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता।


सरकार का रुख भी कम अहंकार वाला नहीं है। न तो वह अपनी नीतियों को लेकर आत्मावलोकन को तैयार दिख रही है और न ही विपक्षी दलों के सुझावों और आलोचनाओं को गंभीरता से ले रही है। उल्टे विपक्षी दलों के सुझावों का उपहास उड़ा रही है। सरकार की विध्वंसकारी अर्थनीति का ही दुष्परिणाम है कि महंगाई थमने के बजाए लगातार बढ़ती जा रही है। थोक मूल्यों पर आधारित महंगाई दर दहाई पार कर चुकी है। सरकार महंगाई कम होने की चाहे जितनी घोषणाएं करे, लेकिन अगले कुछ महीने तक महंगाई कम होने के आसार तो बिल्कुल ही नहीं है। औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर भी दो फीसदी से भी नीचे आ गई है। ब्याज दर चरम पर है। आने वाले दिनों में रिजर्व बैंक एकाध वृद्धि और कर सकता है। कॉरपोरेट सेक्टर भी सरकार की निर्णय क्षमता पर सवाल उठा रहा है। फिर भी सरकार चेत नहीं रही है, बल्कि अपनी नाकामियों पर पर्दादारी कर रही है। अपने कुतर्क को तर्कसंगत ठहरा रही है। ऐसे में विपक्षी दल संसद के अंदर सरकार की घेराबंदी तेज करते हैं या उसे घुटने पर आने को मजबूर करते हैं तो इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। एक निकम्मी सरकार जब विपक्ष के उचित सलाहों को न सुने तो उसके हाथ-पांव बांधना जरूरी हो जाता है। महंगाई और काले धन के सवाल पर सरकार का रवैया खेदजनक है।


काले धन के मसले पर न्यायालय भी सरकार की खिंचाई कर चुका है। अब जब विपक्ष को संसद में महंगाई और काले धन के सवाल पर सरकार को घेरने का मौका मिला है तो सरकार उससे सकारात्मक भूमिका की अपेक्षा की आड़ में अपने जाल में फांसने की कोशिश कर रही है। विपक्ष किन मसलों पर और किन नियमों के तहत चर्चा करेगा, यह अधिकार भी सरकार अपने पास रखना चाहती है। क्या लोकतंत्र के लिए यह शुभ होगा? विपक्षी दल संसद में महंगाई और काले धन के मसले पर चर्चा के अलावा मत विभाजन के लिए सरकार पर दबाव बना रहे हैं। सरकार चर्चा के लिए तो तैयार है, लेकिन मत विभाजन की मांग को सिरे से खारिज कर रही है। विपक्ष विशेषकर वामपंथी दल और भाजपा की रणनीति यह है कि महंगाई और काले धन के सवाल पर काम रोको प्रस्ताव के जरिये चर्चा करेंगे और बहस के बाद मतदान की मांग करेंगे। लेकिन सरकार विपक्षी दलों की एकजुटता से डरकर मत विभाजन से भाग रही है।


सरकार को डर है कि मत विभाजन की स्थिति में उसका अस्तित्व दांव पर लग सकता है। हालांकि सरकार बहुमत में है और उसे सत्ता खोने का डर नहीं है, लेकिन सरकार को अपने सहयोगियों पर भी विश्वास नहीं है। काले धन के सवाल पर भाजपा सरकार को बख्शने के मूड में नहीं है। हालांकि सरकार काले धन पर भाजपा के कार्य स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा कराने को तैयार है, लेकिन भाजपा मत विभाजन की मांग से पीछे हटेगी, ऐसा कहना जल्दबाजी होगा। इसके अलावा सरकार पर दबाव बनाने के लिए राजग के सांसद विदेश में अवैध संपत्ति न होने की घोषणा भी करने वाले हैं। निश्चित रूप से सरकार पर नैतिक दबाव बढ़ेगा। वैसे भी गृहमंत्री पी चिदंबरम का बहिष्कार कर भाजपा ने सरकार को असहज कर दिया है। गौरतलब है कि कांग्रेस ने भी पहले जार्ज फर्नाडीज का 18 माह तक बहिष्कार किया था। यही वजह है कि सरकार विपक्ष को मनाने के हथकंडे अपना रही है।


लेखक अरविंद जयतिलक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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