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नए चुनाव की जरूरत

जागरण मेहमान कोना
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शासन तंत्र के लगभग ठप पड़ने और जनता में अविश्वास का माहौल कायम होने के कारण नए आम चुनावों की जरूरत जता रहे हैं कुलदीप नैयर


इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि अगर पिछले दिनों खुदरा कारोबार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश [एफडीआइ] के फैसले को लागू करने पर मनमोहन सिंह की सरकार अड़ी रहती तो वह गिर जाती। 545 सदस्यों वाली लोकसभा में सरकार के पास सिर्फ 206 की संख्या रह गई थी। अगर सरकार मजबूत लोकपाल का बिल नहीं लाती है तो उसके सामने यह स्थिति फिर से आ सकती है। अगर मतभेद बढ़ गए तो सरकार को उसी स्थिति का सामना करना पड़ेगा जो एफडीआइ के समय आई थी। सरकार गिराने के लिए पर्दे के पीछे चलने वाली कोशिशें अभी रुकी नहीं हैं। नए समीकरणों पर विचार करने का काम लोग कर रहे हैं और सरकार के लिए मई 2014 तक का कार्यकाल पूरा करना कठिन दिखाई दे रहा है। इस खतरे ने सरकार के कामकाज को प्रभावित किया है। फैसलों में देरी हो रही है और प्रशासन लकवाग्रस्त है। ऐसा लगता है कि सरकार बस चलती जा रही है।


ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों, खासकर भाजपा ने लोकपाल के बिल के लिए अन्ना हजारे के उस आंदोलन का फायदा उठाया है जिसने नागरिक समाज को हजारों की संख्या में दोबारा सड़कों पर उतार दिया है। महाराष्ट्र की राकांपा [9 सांसद], पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस [19 सांसद], तमिलनाडु की डीएमके [16 सांसद] को छोड़कर दक्षिणपंथी दलों से लेकर वामदल तक सभी अन्ना हजारे के साथ एक मंच पर आए। संसद में इनकी संख्या 201 हो जाती है। कांग्रेस संसद में आधी संख्या 272 को छू नहीं पा रही है। इसके नियंत्रण में सिर्फ 248 सदस्य हैं। इसलिए परिस्थितियों की मांग होने के बावजूद सरकार कोई निर्णय नहीं ले सकती। कांग्रेस का यह आरोप लगाना सही है कि हजारे के आंदोलन का राजनीतिकरण हो गया है। पार्टी की इस बात में भी दम है कि इस तरह के दबाव मांगें मनवाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर बुरा असर डालते हैं। हालांकि मैं नहीं मानता कि अन्ना की नजर किसी राजनीतिक लाभ पर है। कांग्रेस इस तरह के जितने आरोप लगाएगी उसकी विश्वसनीयता उतनी ही कम होती जाएगी। इसके लिए खुद कांग्रेस जिम्मेदार है, क्योंकि उसने लोकपाल विधेयक का जो मसौदा तैयार किया है वह संतोषजनक नजर नहीं आ रहा। यह अन्ना हजारे से किए गए वायदे के भी खिलाफ है। अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए संसद में जिस सदन की भावना [सेंस ऑफ द हाउस] का प्रस्ताव पारित किया गया था, उसमें ये मुद्दे शामिल थे-लोकपाल के अधीन सिटीजन चार्टर लागू करना, निचले पायदान की नौकरशाही को लोकपाल के मातहत करना और राज्यों में लोकायुक्त बनाना। बिल में सिर्फ एक बात स्वीकार की गई-राज्यों में लोकायुक्त। कांग्रेस को यह आत्म-परीक्षण करना चाहिए कि वह राजनीतिक पार्टियों और जनता का मूड समझ क्यों नहीं पाई? पार्टी ने अपनी किरकिरी कराई। पहले तो उसने निचली नौकरशाही और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा और फिर 48 घटे के अंदर आत्मसमर्पण कर दिया।


ऐसा लगता है कि संसद की स्थायी समिति ने निचली नौकरशाही और प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में रखने की व्यवस्था की थी, लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी ने अंतिम क्षणों में दखल देकर इसे पलट दिया। कांग्रेस ने इस आरोप के खंडन में देरी लगाई। हजारे ने जब यह आरोप दोहराया कि राहुल ने लोकपाल बिल को कमजोर किया तो इसके बाद ही खंडन आया। जब तक राहुल इस आरोप का खंडन नहीं करते, खंडन की कोई वैधता नहीं है।


इसके बावजूद गतिरोध का मुद्दा सीबीआइ ही रह जाता है। यह एक ऐसा औजार है, जिसका सभी सरकारों ने इस्तेमाल किया है। सीबीआइ केंद्र सरकार के कार्मिक विभाग यानी सत्तारूढ़ पार्टी के मातहत है। शासक दलों ने अपना बहुमत कायम रखने के लिए इसका दुरुपयोग किया है। यहां तक कि सीबीआइ के जरिये कई सरकारों को अस्थिर किया गया। शरद यादव ने ईमानदारी से इसे सदन में स्वीकार किया कि जब वह सत्ता में थे तो उन लोगों ने भी सीबीआइ का दुरुपयोग किया। वास्तव में ऐसा वक्त आ गया है जब सभी राजनीतिक दल इसे स्वीकार करें कि चुनी हुई सरकारों को अस्थिर करना उनके या देश के लिए ठीक नहीं है। दूसरी ओर वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने चेतावनी दी है कि बगैर राजनीतिक स्थिरता के आर्थिक स्थिरता नहीं आ सकती। कोई भी देख सकता है कि जहां तक अर्थव्यवस्था का ताल्लुक है देश नीचे की ओर जा रहा है। औद्योगिक विकास दर फिसलकर 5.1 हो गई है। जीडीपी 7 प्रतिशत रह गई है। इससे नीचे आने का मतलब है कारखानों का बंद होना और भयंकर बेरोजगारी। रुपये की जिस तरह पिटाई हो रही है उससे लगता है कि भारत निवेश के लिए अब अच्छी जगह नहीं रह गया है। लगता है कि सत्ता में बने रहने के लिए मनमोहन सिंह सरकार को कई समझौते करने पड़ेंगे। तृणमूल कांग्रेस, डीएमके और दूसरी छोटी पार्टियों को आर्थिक पैकेज देना पड़ेगा। यह देश की सेहत, अर्थव्यवस्था और राजनीति के लिए ठीक नहीं है। काग्रेस ठीक ही यह आरोप लगाती है कि विपक्ष संसद का कामकाज रोककर जरूरी विधेयक पास नहीं होने दे रहा है। सच में राष्ट्र जब कठिन समय का सामना कर रहा है तब विपक्ष की भूमिका भी नकारात्मक हो गई है, लेकिन विपक्ष तो अर्थव्यवस्था को आगे धकेलना नहीं, बल्कि सत्ता पाना चाहता है। इसमें लोगों को तकलीफ हो रही है और वे प्रगति की दौड़ में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। पार्टियां राजनीतिक बिसात पर अपनी चालें इस तरह चल रही है कि वे अपनी ताकत कायम रख सकें और अपने हितों को आगे बढ़ा सकें- भले ही देश का विकास रुक जाए। बेशक, वे चुनाव का सामना करना नहीं चाहतीं, क्योंकि इसके नतीजों के बारे में अनिश्चितता है।


शासकों के काम नहीं करने और विपक्ष के असहयोग से पैदा हुई गड़बड़ी से निकलने का एक रास्ता जरूर है। जनता परिवर्तन चाहती है। अन्ना के आंदोलन ने सत्ता में और सत्ता से बाहर के लोगों के कारनामों के बारे में लोगों को जगा दिया है। ताजा चुनाव नए चेहरे, नई पार्टियां और नए समीकरण पैदा कर सकता है। एक मंथन हो जाए। थोड़ी गंदगी बाहर आ जाएगी। यह राष्ट्र के लिए अच्छा होगा। अंत में चीजें स्थिर होकर एक नए अध्याय, नई सरकार और नए उत्साह की शुरुआत करेगी।


लेखक कुलदीप नैयर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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