Menu
blogid : 5736 postid : 4567

शांति के नए प्रयास

जागरण मेहमान कोना
जागरण मेहमान कोना
  • 1877 Posts
  • 341 Comments

फरवरी में अफगानिस्तान, ईरान और पाकिस्तान के नेताओं ने इस्लामाबाद में महत्वपूर्ण बैठक की। बैठक का मुख्य उद्देश्य अफगानिस्तान में समझौता वार्ता के लिए तालिबान पर पाकिस्तान का दबाव डलवाना था। पाकिस्तानी नेताओं ने इस मिशन में मदद का वायदा किया है, जिसके चलते प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने तालिबान के एक धड़े हिज्ब-ए-इस्लामी से सुलह-समझौता प्रक्रिया में शामिल होने की अपील की है। अभी इस अपील की असलियत के बारे में कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि इसमें पिछले साल 20 सितंबर को पूर्व अफगान राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी की कथित रूप से आइएसआइ द्वारा समर्थित आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या के बारे में कोई खुलासा नहीं किया गया है। करजई ने अफगान तालिबान के साथ बातचीत करने के लिए खुद ही रब्बानी को चुना था। गौरतलब बात यह है कि इन वर्षो में अफगान समझौता प्रक्रिया में पाकिस्तानी नेतृत्व से मदद का लगातार अनुरोध करने के बावजूद रब्बानी की हत्या हुई। इसलिए रब्बानी की हत्या की जांच के लिए एक जांच दल काबुल भेजने के पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के वायदे से इस हत्या में आइएसआइ का हाथ होने का काबुल का संदेह दूर न हो सका। यह शिखर सम्मेलन आयोजित करने की इस्लामाबाद की उत्सुकता समझ में आती है।


पाकिस्तान की असली शासक- सेना को आतंक के खिलाफ लड़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि जब तक वहां उग्रवाद जारी है, वह लोगों के रक्षक की अपनी छवि बनाए रख सकती है। उसके लिए अफगान सुलह-सफाई का मतलब यह होगा कि हक्कानी जैसे आइएसआइ-समर्थित तालिबान गुटों की काबुल में सत्ता में भागीदारी हो। उसका मकसद इन आइएसआइ एजेंटों की मदद से भारत को अफगानिस्तान से दूर रखने का है। किसी भी हालत में वह नहीं चाहेगी कि सुलह-सफाई की यह प्रक्रिया करजई के हिसाब से आगे बढ़े। इसलिए अगर एक ओर तालिबान धड़ों को शांति प्रक्रिया में शामिल होने की अपील करके और दूसरी ओर गुप्त रूप से पाकिस्तान-समर्थक आतंकी संगठनों को मदद करके अफगानिस्तान में तबाही मचाने के लिए पाकिस्तान दुमुंही नीति अपनाता है, तो इसमें हैरानी की क्या बात है। हालांकि इस शिखर सम्मेलन के समापन पर एक संयुक्त बयान में तीनों देशों ने क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा के लिए काम करने का इरादा जाहिर किया है, लेकिन इससे कुछ अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती।


अमेरिका तो पाकिस्तान पर आतंक के खिलाफ लड़ाई के प्रति गंभीर न होने का आरोप लगा ही चुका है। तेहरान का शिखर सम्मेलन में भाग लेने का एक कारण यह हो सकता है कि वह पाकिस्तान को ईरान में कई बम विस्फोटों के लिए जिम्मेदार आतंकी संगठन जुनदुल्लाह के लड़ाकों को ट्रेनिंग देना बंद करने को कहे। लेकिन घरेलू दबावों के चलते पाकिस्तान ईरान के इस अनुरोध को नहीं मान सकता। जहां तक भारत का सवाल है, उसने सुरक्षा और राजनयिक कारणों के चलते पिछले अक्टूबर में करजई की भारत यात्रा के दौरान अफगानिस्तान के साथ एक सामरिक समझौता किया था, लेकिन इसका एक व्यावहारिक कारण खास तौर से अफगानिस्तान में प्राकृतिक संसाधनों को हासिल करने की दौड़ में चीन के शामिल होने की वजह से अधिक प्रतिस्प‌र्द्धी होने की भारत की बढ़ती इच्छा भी है। बामियान प्रांत में विशाल हाजीगाक लौह अयस्क खदान के लिए एक भारतीय कंसार्टियम बोली पर अफगान सरकार गौर कर रही है। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या भारत, राजनीतिक रूप से अस्थिर अफगानिस्तान के साथ संबंध बनाने में निहित जोखिम उठा सकता है। लेकिन, करजई के शांति प्रयासों में भारत के अपने हित भी मौजूद हैं, इसलिए पाक-अफगान क्षेत्र में 2014 के बाद के संभावित परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए, उसे अपनी अफगान नीति पर पुनर्विचार करना ही होगा।


लेखक दिलीप घोष स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


Read Hindi News


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh