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प्रेम की शिक्षा

जागरण मेहमान कोना
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Raj Kishoreमुंबई में दो ऐसी संस्थाएं काम कर रही हैं जो प्रेम करने की कला सिखाती हैं। ये सिखाती हैं कि युवक-युवतियों को एक-दूसरे को कैसे आकर्षित करना चाहिए? कैसे निकट आना चाहिए और जब घूमने निकलें तब कैसे पेश आना चाहिए? चुंबन लेने का सही तरीका क्या है आदि-आदि। पहले थियरी पढ़ाई जाती है फिर व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है। उसके बाद वास्तविक स्थानों में ले जाकर उनके शर्मीलेपन को दूर किया जाता है। रिपोर्ट है कि इसमें लड़के ज्यादा आते हैं, लड़कियां कम। धीरे-धीरे झिझक टूटेगी और अनाड़ीपन से मुक्त होने की इच्छा पैदा होगी तो लड़कियों की संख्या भी बढ़ेगी। प्रेम के बिना कौन रह सकता है? हमारी पीढ़ी की समस्या यह थी कि हमें ऐसे शिक्षक नहीं मिले। जो छिटपुट किताबें मिलती थीं वे सेक्स की कला सिखाती थीं प्रेम की कला नहीं। जब कि किशोरावस्था में दोनों ही चीजें आकर्षित करती हैं। यह समस्या आज भी है। गांवों और कस्बों में ही नहीं, महानगरों में भी।


दुनियाभर की सभी सभ्यताओं में यह दिक्कत है। इसका कारण यही है कि सभी समाजों में स्त्री-पुरुष प्रेम को अच्छी निगाहों से नहीं देखा जाता। यहां तक कि वैवाहिक जीवन में भी प्रेम की कोई आवश्यकता नहीं थी। सेक्स को बुरा काम माना जाता था। सेक्स को सहज मानव आवश्यकता माना जाता है। यह पशु- पक्षियों के बारे में भी इतना ही सच है। दोनों के बीच फर्क यह है कि पशु-पक्षी मात्र यौन क्रिया से संतुष्ट हो जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है अनेक पशु-पक्षी एक-दूसरे को आकर्षित करने के लिए तरह-तरह का आचरण करते हैं। कुछ के शरीर से सुगंध निकलती है, कुछ की मुद्रा बदल जाती है। यह सब प्रेम संबंध स्थापित करने के लिए नहीं, यौन क्षुधा शांत करने के लिए होता है। जिसे हम प्रेम के नाम से जानते हैं उसका आविष्कार मानव जाति ने ही किया है। बहुत शुरू में उसका भी लक्ष्य काम भावना को संतुष्ट करना रहा होगा। जब कृषि व्यवस्था का जन्म हुआ तब मनुष्य ने साहचर्य का महत्व समझा। प्रेम कुछ नहीं है अगर उसमें साहचर्य की भूख नहीं है। इसके साथ ही पता नहीं क्या हुआ कि प्रेम और काम भावनाए दोनों को दमित करने की व्यवस्था चल पड़ी। आदिवासी समाजों में अभी भी प्रेम को उत्सव की तरह लिया जाता है।


लड़के लड़कियों को अपना जोड़ा चुनने की आजादी होती है। गोरे समाजों में माता-पिता द्वारा वर या कन्या खोजने की परंपरा सदियों पहले त्याग दी गई, लेकिन एशियाई खासकर भारतीय समाज में अभी भी 95 प्रतिशत से ज्यादा विवाह माता-पिता करते हैं। प्रेम विवाह को आम तौर पर अच्छा नहीं माना जाता, लेकिन सब कुछ के बावजूद युवा मन में प्रेम की अभिलाषा तो बनी ही रहती है। चूंकि यह प्रेम छुप-छुपकर किया जाता है इसलिए वह संजीदा और लंबे संबंध में बदल नहीं पाता। हमारे यहां अभी भी प्रेम प्रेम है और विवाह विवाह। जो प्रेम को नहीं जानता, वह विवाह को कैसे जान सकता है। यह एक दमित समाज पैदा करने का अचूक नुस्खा है। यही कारण है कि युवाओं को यह सिखाने की कोई व्यवस्था नहीं है कि प्रेम की शुरुआत कैसे की जानी चाहिए। प्रेम के नियम और उसकी नैतिकता क्या है तथा प्रेम और सेक्स के बीच सही रिश्ता क्या होना चाहिए? युवाओं को सब कुछ सिखाया जाता है बस यही नहीं। इसलिए भाभियां और सालियां प्रेम की पहली पाठशाला बन जाती हैं। अक्सर इस तरह के गोपनीय संबंधों में सेक्स की ही प्रमुखता होती है, प्रेम को विकसित होने के लिए पूरा अवकाश नहीं होता। आजकल यौन शिक्षा की चर्चा होने लगी है पर इसका दायरा शरीर विज्ञान और यौनिकता तक सीमित है। इस तरह की शिक्षा में प्रेम की कला के लिए गुंजाइश नहीं। ऐसा लगता है यौन शिक्षा देने वालों की मानसिकता कुछ पुरानी होती है।


आधुनिक युग की सदस्यता लेने में उन्हें झिझक होती है। वे पढ़ाते नए माहौल में हैं पर जीते हैं पुराने माहौल में। ऐसे समाजों में किसी तरह की यौन क्रांति नहीं हो सकती। हां, कामुकता का विस्फोट जरूर होता है। इसके कुत्सित उदाहरण आए दिन देखने को मिलते हैं। ऐसी परिस्थिति में अगर प्रेम करना सिखाने वाले विद्यालय खुल रहे हैं तो मैं उनका स्वागत ही करूंगा। बेशक प्रेम की भावना ऊपर से लादी नहीं जा सकती यह तो भीतर से ही पैदा होती है, लेकिन इसके प्रस्फुटन के लिए उचित वातावरण और आवश्यक प्रशिक्षण उपयोगी हो सकता है। सबसे बड़ी समस्या है बचपन से ही स्त्री-पुरुषों में बैठे पूर्वाग्रहों को दूर करना। हमारे समाज में चूंकि लड़के-लड़कियों को एक-दूसरे के निकट आने देने के विरुद्ध पूर्वाग्रह काम करता रहता है इसलिए लड़के-लड़कियों की स्वाभाविक कामनाओं को खुलकर सामने आने का वातावरण नहीं बन पाता। इस सबके फलस्वरूप हम देखते हैं कि किशोरावस्था से ही लड़के-लड़कियों में कुंठा का जन्म होने लगता है। प्रेम की कला सिखाने वाले तमाम स्कूल या प्रशिक्षण केंद्र इस तरह की कुंठाओं से लड़ने की प्रक्रिया की शुरूआत कर सकते हैं, लेकिन इसमें कुछ खतरे भी हो सकते हैं। सबसे बड़ा डर यही है कि इस तरह के खुलने वाले शिक्षण संस्थान कहीं लड़की या लड़का फंसाने का ट्रेनिंग स्कूल न बन जाएं। यदि ऐसा हुआ तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा, क्योंकि प्रेम और यौनिकता एक गंभीर मामला है। इसलिए स्वाभाविक है कि इसे अपेक्षित गंभीरता से लिया जाना चाहिए।


इस आलेख के लेखक राजकिशोर हैं


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