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क्या नस्लवादी है पुलिस महकमा

जागरण मेहमान कोना
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Subhash Gatadeस्काटलंड यार्ड (लंदन की महानगरीय पुलिस सेवा का मुख्यालय) में फिलवक्त उसके अफसरों में मौजूद नस्लवाद का मसला बहसतलब है। यह मामला फिर एक बार सुर्खियां बना, जब पता चला कि पुलिस वॉचडॉग यानी पुलिस की शिकायतों को दर्ज करने के लिए बने महकमे में पुलिसकर्मियों के आचरण को लेकर सात नई शिकायतें दर्ज की गई। यह भी स्पष्ट हुआ कि पिछले साल हुए दंगों के वक्त एक अश्वेत व्यक्ति को गिरफ्तार करते वक्त उसे नस्लवादी गालियां दी गई थीं। ब्रिटेन के इस सबसे बड़े पुलिस बल के मुखिया ने पत्रकारों को सूचित किया कि अब तक हम बीस अधिकारियों के खिलाफ लगे आरोपों की जांच कर चुके हैं। आरोपों के सही पाए जाने के बाद अब तक आठ पुलिस अधिकारियों को निलंबित भी किया जा चुका है। तीन अधिकारियों को दंड के तौर पर सीमित कार्यो में लगाया गया है। बता दें कि लंदन की पुलिस ने नस्लवाद के आरोपों का अक्सर सामना किया है। वर्ष 1993 में एक युवा अश्वेत किशोर की हुई मौत के मामले में पुलिस द्वारा तैयार की गई प्रमुख रिपोर्ट के निष्कर्ष यही थे कि स्कॉटलैंड यार्ड संस्थागत तौर पर नस्लवादी है और लंदन के अश्वेत समुदाय से घृणा करता है। यों तो ब्रिटेन की पुलिस में व्याप्त नस्लवाद का मसला उनका अपना मसला है, जिससे वह निपटेगा, लेकिन भारतीय पुलिस के संदर्भ में भी क्या उसकी अहमियत नहीं है? यहां की पुलिस भी कानून-व्यवस्था के निष्पक्ष रखवाले के बजाय समाज में पहले से मौजूद जाति, संप्रदाय, जेंडर आदि पूर्वाग्रहों के वाहक के तौर पर बनती उसकी इमेज पर गंभीरता से सोचने के लिए तैयार है या नहीं? दो ताजा मसलों के चलते यह मसला समीचीन हो उठा है।


बिजनौर फर्जी मुठभेड़ में अदालत का फैसला और उत्तर प्रदेश के चुनावों के बाद बनती स्थिति जहां नवगठित अखिलेश यादव सरकार ने विगत कुछ सालों में फर्जी किस्म के मामलों में गिरफ्तार किए गए मुस्लिम युवकों को रिहा करने के लिए विधेयक लाने तथा ऐसे तमाम युवकों को रिहा करने की योजना बनाई है। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी ने इस संबंध में जानकारी दी, आतंकवाद के नाम पर निर्दोष युवा मुसलमानों पर लगे मुकदमे वापस लेने और उन्हें गिरफ्तारी की भरपाई के लिए उचित मुआवजा देने का फैसला लिया गया है। यह सही है कि आतंकवाद के नाम पर सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही नहीं, शेष मुल्कों में ही समुदाय विशेष को निशाना बनाए जाने के आरोप लगते रहे हैं। इस मसले पर लोगों ने आंदोलन भी किए हैं, मगर इस पर कोई कार्रवाई नहीं हो सकी है। मसलन, फैजाबाद, लखनऊ, वाराणसी की कचहरियों में सिलसिलेवार बम धमाकों के आरोपी के तौर पर विगत लगभग पांच सालों से उत्तर प्रदेश की जेलों में बंद तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद को ही देखें। इन दोनों को 22 दिसंबर 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन के पास से गिरफ्तार किए जाने का दावा किया गया था और साथ में आरडीएक्स एवं अन्य हथियारों की बरामदगी भी दिखाई गई थी।


दूसरी तरफ हकीकत यही है कि 16 दिसंबर को मडियाहूं, जौनपुर में चाय की एक दुकान से सादी वर्दी में वहां टाटा सूमो में पहंुचे लोगों ने सैकड़ों लोगों के सामने खालिद का अपहरण किया था। इसी तरह तारिक को 12 दिसंबर 2007 को इसी तरह लोगों के सामने से सादी वर्दी में आए पुलिसवाले उठा कर ले गए थे। सोलह लोगों ने (जिनमें 12 हिंदू थे और चार मुसलमान) अदालत में यह शपथपत्र दिया था कि उनकी आंखों के सामने तारिक को उठाया गया था। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए मायावती सरकार ने एक आयोग का गठन किया था, मगर वह कागज पर ही अस्तित्व में रहा, कभी उसे सुविधाएं तक नहीं दी गई। वर्ष 1992 में बिजनौर के जंगलों में जस्सा उर्फ जसविंदर की हुई फर्जी मुठभेड़ के मामले में सीबीआइ की अदालत द्वारा 19 पुलिसकर्मियों को सुनाई गई सजा का मामला भी पिछले दिनों सुर्खियों में रहा है। 31 अक्टूबर 1992 को दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारे में सेवादार के तौर पर तैनात जस्सा को पुलिस ने आतंकवादी कहकर मार गिराया था और उसकी लाश से हथियारों की बरामदगी भी दिखाई थी। मगर क्या बिजनौर एनकाउंटर अपवाद माना जा सकता है? मुरादाबाद के सूचना अधिकार कार्यकर्ता सलीम बेग के उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा 2005 से 2010 के दौरान पुलिस मुठभेड़ में मारे गए लोगों की जानकारी का खुलासा हाल ही में हुआ है, जिसमें मालूम चला कि इस अंतराल में 455 लोग मारे गए। इनमें सबसे अव्वल नंबर राजधानी लखनऊ का था, जहां 34 लोग मारे गए।


गाजियाबाद में 32 और इलाहाबाद में 31 लोग मारे गए। यह सूचना पाने के लिए 13 माह का लंबा वक्त लगा और मुख्यमंत्री कार्यालय से डीजी पुलिस तक पहुंचे इस आवेदन को पुलिस अधिकारियों ने कोई न कोई बहाना बनाकर वापस कर दिया था। बाद में सलीम बेग को सूचना आयोग का दरवाजा खटखटाना पड़ा। फर्जी मुठभेड़ों को लेकर यूपी पुलिस हमेशा विवादों में रहती आई है। सवाल उठता है कि अगर यह सभी मुठभेड़ फर्जी नहीं थी, इसका मतलब पुलिसवालों ने अपराधियों का मुकाबला जांबाजी से किया होगा। फिर पुलिस महकमे में इनकी जानकारी साझा करने पर इतनी आनाकानी क्यों की गई? कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक व्यवस्थागत जांच के लिए सरकार तैयार नहीं होगी तो इसका हश्र यही होगा कि अपने चुनावी वादों को पूरा करने या अपने वोट बैंक को मजबूत बनाए रखने के लिए सरकार कल तारिक, खालिद को तो रिहा कर देगी या किसी जस्सा की मुठभेड़ के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित कर देगी, मगर कल इस बात की गारंटी नहीं रहेगी कि फिर ऐसा ही सिलसिला दोहराया न जाए।


अगर हम 21वीं सदी की पहली दहाई में आतंकवाद के नाम पर देश के अन्य भागों में गिरफ्तार कुछ अन्य मामलों को देखें तो यही मांग बुलंद होती दिख सकती है। उदाहरण के लिए मालेगांव बम धमाका, अजमेर, मक्का मस्जिद एवं समझौता एक्सप्रेस बम धमाका या जयपुर बम धमाका आदि को देखें, जिनमें अल्पसंख्यक समुदाय के युवकों को गिरफ्तार किया गया था, लंबे समय तक गैरकानूनी हिरासत में रखा गया था। बाद में फर्जी आरोप लगा कर जेल में डाल दिया गया था। वर्ष 2010-2011 में इन सभी लोगों को एक-एक कर जमानत मिलती गई है, मगर इन सभी पीडि़तों ने जिंहोंने अपनी जिंदगी के बेशकीमती साल जेल की सलाखों के पीछे गुजारे हैं, जिनके परिवार तबाह हुए हैं, उन्होंने एक सुर में यही मांग की है कि जिन पुलिस कर्मियों ने ऐसे फर्जी मुकदमे कायम किए, उन पर कार्रवाई हो। अभी तक शेष मुल्क में इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं हुई है। कहा जा रहा है कि अखिलेश यादव शासन-प्रशासन में नई जमीन तोड़ने के लिए आमादा है, क्या वह इस दिशा में भी नई पहल करके एक नजीर कायम करेंगे?


इस आलेख के लेखक सुभाष गाताडे हैं


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