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अन्ना आंदोलन जन लोकपाल की बड़ी तस्वीर बन जाने के बावजूद एक सोची-समझी चाल के जरिए राजनीतिक कूटनीति का शिकार बना दिया गया है। प्रधानमंत्री ने अन्ना को राजनीतिक चतुराई से भरी जो चिट्ठी लिखी थी, उसी से साफ हो गया था कि सरकार इस मसले को राजनीति के प्लेटफॉर्म पर लाकर इसे विवादित बना देना चाहती है, क्योंकि संवैधानिक प्रावधानों और परंपराओं के जरिए ही आगे बढ़ाने की बाध्यता जताकर उन्होंने साफ कर दिया था कि सरकार की मंशा जन लोकपाल के पक्ष में नहीं है। इस प्रकरण के राजनीतिक हल तलाशने की सर्वदलीय बैठक के माध्यम से जो प्रक्रिया शुरू हुई और उसमें भाजपा समेत जिस तरह से जन लोकपाल को सभी दलों ने नकार दिया, उससे सरकार के हौसले बुलंद हुए और सरकार ने देर रात अन्ना दल को अंगूठा दिखा दिया। किंतु इस बैठक से दो बातें साफ हुई। एक तो हमाम में सब नंगे हैं, दूसरे संसद की सर्वोच्चता के बहाने सभी विपक्षी दल इसलिए लामबंद हो गए हैं, क्योंकि जन लोकपाल का श्रेय नागरिक समाज लूट ले गया तो ये दल हाशिये पर चले जाएंगे। लेकिन इस ताजा बदली परिस्थिति में 10 दिन से निराहार अनशन पर बैठे अहिंसा के पुजारी अन्ना ने भ्रष्टाचार खत्म करने की जो हुंकार भरी है, उसने सरकार समेत सभी राजनीतिक दलों की बैचेनी बढ़ा दी है। इसके परिणाम स्वरूप गुरुवार को लोकसभा में प्रधानमंत्री को घोषणा करनी पड़ी की सरकार जन लोकपाल को बहस के लिए संसद में रखेगी। एक निहत्थे, देहाती राष्ट्रभक्त ने इतना तो तय कर दिया है कि लड़ाई भले ही लंबी चले, लेकिन राजनीतिक बदलाव की यह प्रक्रिया अब थमने वाली नहीं है। अन्ना के नैतिक बल ने राजनीतिकों के प्रत्यक्ष अहंकार को पंगु बना दिया।
संविधान की सर्वोच्चता और संसद की संप्रभुता के बहाने देश की समस्त राजनीति कुटिलता के साथ प्रतिकार की होड़ में लग गई, जबकि बुधवार को ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने साफ कर दिया कि संविधान सर्वोच्च है, लेकिन जनता से ऊपर नहीं। किंतु संसद जनकाक्षांओं को समझने में पूरी तरह विफल रही। इसी का नतीजा है कि संसदीय जनतंत्र के इतिहास में ऐसा पहली बार होने जा रहा है कि किसी विधेयक के तीन मसौदों पर बहस होगी, जबकि जन लोकपाल की सौ सांसद सिफारिश कर चुके हैं। कितनी विडंबनापूर्ण स्थिति है कि जब भी जनांदोलनों द्वारा भ्रष्टाचार खत्म करने की बात उठती है, सभी राजनेता एक ही भाषा बोलने लगते हैं। आज सभी विपक्षी दल कह रहे हैं कि एक सशक्त और प्रभावी लोकपाल विधेयक लाया जाए, किंतु अन्ना दल का जो सशक्त और प्रभावी जन लोकपाल सामने है, उसे नकार भी रहे हैं।
प्रधानमंत्री कहते हैं कि मैं लोकपाल में आने को तैयार हूं, किंतु मेरे सहयोगी ऐसा नहीं चाहते। क्या एक राजनीतिक इच्छाशक्ति चंद सहयोगियों के सामने कमजोर पड़ गई है? यह तो एक बहाना भर है। दरअसल, प्रधानमंत्री खुद इस दायरे में आना नहीं चाहते, क्योंकि एक के बाद एक जो घोटाले संप्रग-2 के कार्यकाल में उजागर हुए हैं, उनमें मानमोहन सिंह की अप्रत्यक्ष भूमिका का अब खुलासा होने लगा है। 2जी स्पेक्ट्रम मामले में डीएमके सांसद कनिमोरी के बाद अब पूर्व दूरसंचार मंत्री ए. राजा ने भी कहा है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस आवंटन से पूरी तरह वाकिफ थे। जन लोकपाल को कूटनीति के गलियारे में धकेलने का काम पूरी तरह सुनियोजित साजिश है। जिस वक्त प्रधानमंत्री इस बिल को लेकर सर्वदलीय बैठक में दल प्रमुखों की राय ले रहे थे, उसी दौरान राज्यसभा में नारायण सामी ऐलान कर रहे थे कि जन लोकपाल स्थायी समिति के हवाले विचार-विमर्श के लिए भेज दिया गया है। इससे यह जाहिर करने कोशिश तो की गई कि अन्ना की मांगों को ठुकराया नहीं गया है, लेकिन उन्हें माना भी नहीं गया है।
सर्वदलीय बैठक के परिणामों से सरकार जो कुटिल खेल खेलने में कामयाब हुई है, उसका राजनीतिक परिदृश्य में सबसे ज्यादा खामियाजा कालांतर में भाजपा को भुगतना होगा। क्योंकि सरकार ने यह साफ कर दिया है कि भ्रष्टाचार की मुहिम में वह तो अन्ना के साथ है, लेकिन गेंद अब सभी संसदीय दलों के पाले में है। भाजपा इसलिए भी खामियाजा भुगतेगी, क्योंकि उसे उसकी ही पार्टी के कद्दावर कठघरे में खड़ा कर रहे हैं।
लेखक प्रमोद भार्गव स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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