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परिवारवाद की यह कैसी राजनीति

जागरण मेहमान कोना
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्मी डिंपल यादव ने इतिहास बनाया है। वह कन्नौज संसदीय क्षेत्र से निर्विरोध निर्वाचित हुई हैं। जहां तक मेरी जानकारी है डिंपल यादव को छोड़कर कोई अन्य व्यक्ति लोकसभा में निर्विरोध चुनकर नहीं आया है। स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े नेता जवाहरलाल नेहरू का चुनाव भी निर्विरोध नहीं हो पाया था। लालबहादुर शास्त्री का भी नहीं, आचार्य कृपलानी का भी नहीं, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का भी नहीं। साठ साल के हमारे संसदीय इतिहास में डिंपल यादव ने लोकप्रियता की एक अलग नई ऊंचाई हासिल की है और अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। वास्तव में देखा जाए तो यह ऊंचाई डिंपल यादव की नहीं, बल्कि उनके पति और उत्तर प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की देन है। अखिलेश यादव ने जिस कौशल के साथ अपनी पत्नी की जीत सुनिश्चित की है उसका कोई जवाब नहीं है। कांग्रेस ने अगर डिंपल यादव के विरुद्ध कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया तो यह बात कुछ हद तक समझ में आती है। पिछली बार अखिलेश यादव ने ही कन्नौज से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता था। उस समस भी कांग्रेस ने उनके खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था। मुलायम सिंह यादव गैर कांग्रेसी राजनीति के स्तंभों में से एक माने जाते हैं, लेकिन समय-समय पर कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन या सौदा सामने आ ही जाता है।


कांग्रेस के मन में मुलायम सिंह या उनकी समाजवादी पार्टी के प्रति कितना स्नेह और प्यार है यह किसी से छिपा नहीं। फिर भी जरूरत पड़ने पर वे एक-दूसरे के काम भी आते हैं। जैसे एक जमाने में कम्युनिस्ट इंदिरा गांधी के काम आते थे। ऐसी स्थिति में डिंपल यादव के विरुद्ध उम्मीदवार खड़ा न करने के निर्णय का मतलब कोई भी व्यक्ति सहज ही अनुमान कर सकता है। पर यहां बड़ा सवाल यही है कि दूसरी अन्य राजनैतिक पार्टियों को आखिर क्या हो गया था जो उन्होंने भी कांग्रेस की तरह समाजवादी पार्टी को वॉकओवर देना बेहतर समझा। अखिलेश यादव की पार्टी ने बसपा को विधानसभा चुनाव में अभी-अभी हराया है। इसलिए कम से कम उसे तो डिंपल यादव का विरोध करने के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा करना ही चाहिए था। वैसे भी बसपा की एकछत्र नेता मायावती देश भर में जहां भी मौका मिलता है लोकसभा के लिए हो या राज्यसभा के लिए अपनी पार्टी का उम्मीदवार मैदान में जरूर उतार देती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि बसपा को सपा के हाथों एक और हार का डर था, लेकिन हार के डर से लोग चुनाव न लड़ें तब तो लोकतंत्र पानी भरने चला जाएगा। बसपा डिंपल यादव के कुछ वोट तो काट ही सकती थी। यही स्थिति भाजपा की भी है। भाजपा और समाजवादी पार्टी में एक तरह का खानदानी वैर है। तब भी भाजपा ने ऐसी स्थिति बना दी कि उसका उम्मीदवार चुनाव न लड़ सके।


चुनाव मैदान में दो निर्दलीय भी थे, लेकिन जब बसपा और भाजपा को पटाया जा सकता था तो निर्दलीय किस खेत की मूली ठहरे। उन्हें तो लालच भी दिया जा सकता था और डराया भी जा सकता था। परिवारवाद दक्षिण एशिया की राजनीति का एक कलंकपूर्ण अध्याय है। सत्ता के शीर्ष पर इतनी ज्यादा महिलाएं किसी भी देश या क्षेत्र में नहीं पहंुच पाई हैं, लेकिन हमारे इस भूखंड में पाकिस्तान जैसे कट्टरवादी मुस्लिम देश में भी एक महिला को प्रधानमंत्री होने का मौका मिला। परंतु ऐसा लगता है कि भारत की राजनीति ने इंतहा कर दी है। बाप की जगह बेटा या बेटी ले ले यह परिवारवाद है, लेकिन किसी परिवार के छह-छह सदस्य सत्ता के तंत्र में हों यह उससे आगे की चीज है। मुलायम सिंह खुद तो संसद सदस्य हैं ही, उनका भतीजा धर्मेद्र यादव भी संसद सदस्य हैं। मुलायम सिंह का छोटा बेटा राज्य सरकार में मंत्री है। मुलायम सिंह के चचेरे भाई राम गोपाल यादव राज्यसभा के सदस्य हैं। बेटा तो मुख्यमंत्री है ही अब बहू भी संसद सदस्य हो गई है। है देश का ऐसा कोई और परिवार जिसके इतने सदस्य सत्ता या संसद में एकसाथ विराजमान हों। यह भी कम दिलचस्प नहीं कि जब डिंपल यादव को नामांकित करने का वातावरण बन रहा था, उस वक्त समाजवादी पार्टी के किसी भी सदस्य ने इसका प्रतिवाद नहीं किया। मन में तो सब के आ रहा होगा कि यह ठीक नहीं है। मुलायम सिंह परिवार के पास पहले से ही इतने पद हैं ऐसी स्थिति में एक और नाम जोड़ने से हमारी प्रतिष्ठा में बट्टा लगेगा, लेकिन प्राय: सभी दलों में चापलूसी का ऐसा गहरा माहौल घर कर चुका है कि लोग खुली आंखों मक्खी निगलने के लिए तैयार रहते हैं। सपाइयों के पास एक और तर्क था। इसके पहले डिंपल यादव फिरोजाबाद से लोकसभा का चुनाव लड़ चुकी थीं और राज बब्बर के हाथों बुरी तरह पराजित भी हो चुकी थीं। सपाई कह सकते थे कि अभी-अभी हमने विधानसभा का चुनाव जीता है ऐसे में अगर डिंपल यादव फिर चुनाव हार गई तो क्या होगा? जरूरी नहीं कि पति द्वारा खाली की गई सीट पर पत्नी भी जीत जाए। कहते हैं युवा पीढ़ी में थोड़ा-बहुत आदर्शवाद रहता ही है, लेकिन शायद जमाना बदल चुका है और युवाओं की अभिलाषाएं भी। आज की नई पीढ़ी के दिमाग में अच्छे-बुरे का नैतिक द्वंद्व या तो है ही नहीं या है तो बहुत क्षीण है।


अखिलेश सिंह खुद युवा हैं और उनकी पत्नी डिंपल उनसे ज्यादा युवा हैं। इनके मन में लोकसभा की उम्मीदवारी को लेकर कुछ नैतिक द्वंद्व तो रहा होगा या हो सकता है कि अब भी हो, पर यह सब तो हमें नहीं मालूम। एक बात और कि डिंपल यादव ने जब फर्रुखाबाद संसदीय सीट से चुनाव लड़ा था तब उनकी पार्टी विपक्ष में थी। विपक्ष में होने के बावजूद परिवारवाद उतना ही बुरा होता है, लेकिन डिंपल जब कन्नौज से समाजवादी पार्टी की उम्मीदावार बनीं तब उनका पार्टी सत्ता में आ चुकी थी। जो आदमी सत्ता में हो उसे ज्यादा सावधान हो कर चलना चाहिए। यह तो तय ही है कि भारत की जनता ने परिवारवाद को स्वीकार कर लिया है। कभी किसी उम्मीदवार को इसलिए नहीं हराया गया कि वह किसी ऐसे परिवार से आया है जिसके सदस्य पहले से ही सत्ता या संसद में हैं। बेटे को स्वाभाविक रूप से राजनीतिक उत्तराधिकारी माना जाता है। जब देश के अधिकांश माता-पिता अपने बेटे-बेटी के लिए सही-गलत कुछ भी करने को तैयार हों, तब कोई परिवारवाद का क्यों बुरा माने? राजनीति में नेतृत्व भी एक पैकेज होता है अगर तुम मुझे चुनते हो तो मेरी इन-इन बातों को भी तुम्हें स्वीकार करना होगा। उत्तर प्रदेश में बसपा को हटाकर किसी और दल को सत्ता में लाना था तो समाजवादी पार्टी से बेहतर विकल्प क्या था? फिरोजाबाद के मतदाताओं ने डिंपल यादव को हरा दिया था, क्योंकि उनके पास चुनने के लिए और विकल्प थे, लेकिन कन्नौज के मतदाताओं को तो अपनी राय जाहिर करने का मौका भी न मिला उन्हें शांतिपूर्वक उनका सांसद सौंप दिया गया। लो, यह रहा तुम्हारा सांसद, अब तुम्हें वोट देने का कष्ट नहीं उठाना पड़ेगा।


लेखक राजकिशोर वरिष्ठ स्तंभकार हैं


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