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राजनेताओं का क्रिकेट प्रेम

जागरण मेहमान कोना
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मुंबई क्रिकेट संघ के चुनाव में विलासराव देशमुख की जीत से क्रिकेट बोर्ड में एक और राजनेता का पदार्पण हो गया है। पहले से ही बोर्ड में डेढ़ दर्जन से अधिक राजनेता मलाईदार पदों पर काबिज हैं। कांग्रेस, भाजपा दोनों के बड़े चेहरे बोर्ड में अर्से से राजनीति कर रहे हैं और अपने रसूख व जोड़-तोड़ से लगातार विभिन्न राज्य संघों पर कब्जा जमाए बैठे हैं। वैसे किसी कानून में यह नहीं लिखा है कि नेता किसी सोसाइटी या निजी संस्था में पद नहीं संभाल सकते, लेकिन दिलचस्प तथ्य यह है कि बोर्ड किसी भी पदाधिकारी को वेतन नहीं देता। फिर भी शरद पवार, अरुण जेटली, नरेंद्र मोदी व राजीव शुक्ला जैसे व्यस्त राजनेता अपना अच्छा-खासा समय बोर्ड को देते हैं। अवैतनिक होने के बावजूद ये राजनेता क्रिकेट बोर्ड के काम में महीने में 8-10 दिन लगा देते हैं।


वेतन नहीं मिलता फिर भी इन नेताओं/पदाधिकारियों के फाइव स्टार होटलों की बैठकों में लाखों रुपये रोज खर्च किए जाते हैं। वर्तमान में सरकार के तीन मुख्यमंत्री बोर्ड से जुड़ हुए हैं। शरद पवार आइसीसी के चेयरमैन भी हैं व दुबई दफ्तर से क्रिकेट पर नियंत्रण बनाए हुए हैं। दिल्ली में मंत्रालय का कामकाज देखने की बजाय मुंबई की क्रिकेट राजनीति में उनकी दिलचस्पी ज्यादा रहती है। राजीव शुक्ला का काम ही क्रिकेट विवादों को निपटाना है। यूं तो विलासराव देशमुख भी इतने खाली नहीं हैं कि बोर्ड में अपने मन से आए हों। पवार चूंकि इस बार मुंबई का चुनाव तकनीकी रूप से लड़ नहीं सकते थे। इसलिए अपने प्रोक्सी के तौर पर उन्होंने देशमुख को यह चुनाव लड़वाया। शरद पवार, राजीव शुक्ला व विलासराव देशमुख तीनों सोनिया गांधी व राहुल के काफी नजदीकी माने जाते हैं। अत: यह तो साफ है कि बोर्ड में पद संभालने से पहले प्रधानमंत्री से इन तीनों मंत्रियों ने अनुमति जरूर ली होगी। क्या यह देश के साथ धोखा नहीं है कि सरकार के वरिष्ठ मंत्री बिना किसी वेतन व लालच के अपना महत्वपूर्ण समय मंत्रालयों के बजाय क्रिकेट बोर्ड के कामकाज में व्यतीत कर रहे हैं। क्या इस तरह उन पर दोहरे लाभ के पद का मामला नहीं बनता? यह वाकई बहस का विषय है। इसमें कोई शक नहीं है कि ये राजनेता/पदाधिकारी भारतीय क्रिकेट को पूरी तरह नियंत्रित किए हुए हैं। बोर्ड के भीतर सारी लड़ाई सिर्फ और सिर्फ बोर्ड की अकूत संपत्ति पर कब्जा करके अपनी-अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने की है।


क्रिकेटरों को बोर्ड ज्यादा महत्व नहीं देता। जहां बोर्ड को पेशेवर व गैर राजनीतिक होना चाहिए वहीं इसमें पारदर्शिता का घोर अभाव है। पिछले एक दशक में बोर्ड ने 3000 करोड़ रुपये से ज्यादा कमाए हैं। भाजपा के शासन में जगमोहन डालमिया ने क्रिकेट के व्यावसायीकरण की शुरुआत की। बाद में शरद पवार ने डालमिया को चित करके बोर्ड में व्यावसायीकरण की रफ्तार और तेज कर दी। यह जगजाहिर है कि सरकारी घालमेल से ही क्रिकेट का महाघोटाला हुआ और आज तक जांच एजेंसियां ललित मोदी को भारत नहीं ला पाईं। आइपीएल का एक हजार करोड़ रुपये का घोटाला और बड़े-बड़े घोटाले आने की वजह से दब गया, लेकिन यह सच है कि शरद पवार उस समय बीसीसीआइ को अपने हिसाब से चला रहे थे और आइपीएल फेंचाइजी काला धन आइपीएल खरीदने में लगा रहे थे। ललित मोदी पवार के इशारों पर ही आइपीएल की फ्रेंचाइजी बांट रहे थे। जब घोटाला पकड़ में आया तो मोदी को कसूरवार मानकर ठीकरा उन पर ही फोड़ दिया। कुल मिलाकर क्रिकेट बोर्ड में ताकतवर नेताओं के होने की वजह से कानूनी तौर पर चाहे बोर्ड पर सरकारी नियंत्रण नहीं है फिर भी सरकार इनकी मार्फत बोर्ड को अपने हिसाब से चला रही है। दरअसल, क्रिकेट बोर्ड में राजनेताओं की सक्रियता न तो खेल के हिसाब से वांछित है और न ही राजनीति के लिहाज से।


आलोक वार्ष्णेय स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं


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