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सन 1935 में अंग्रेजों के बनाए ब्रिटिश इंडिया एक्ट पर ही हमारी राजनीतिक व्यवस्था आधारित है। अर्थात जो व्यवस्था एक विदेशी, औपनिवेशिक सत्ता ने मूलत: अपने उद्देश्य से बनाई, वही स्वतंत्र भारत में अपना ली गई। संविधान निर्माताओं ने 1950 में जो राजनीतिक तंत्र अंगीकार किया, वह एक औपचारिकता थी। देश में प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद पहले से कार्यरत थे। ब्रिटिश वेस्टमिंस्टर संसदीय प्रणाली यहां अपनाने का निर्णय पहले ही हो चुका था। संविधान सभा ने उस पर केवल मुहर लगाई। किंतु हमने इस आयातित संसदीय प्रणाली के शरीर को तो अपनाया, उसकी आत्मा को नहीं। सिद्धांत, व्यवहार का यह दोहरापन स्वतंत्र भारत की राजनीतिक व्यवस्था की एक बुनियादी दुर्बलता रही है। यह दोहरापन स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले से भारतीय नेतृत्व में था। कांग्रेस पार्टी की सांगठिक पद्धति संसदीय या समितिवादी थी, किंतु वास्तविक कार्यसंचालन एक प्रकार की अध्यक्षीय सत्ता करती थी। सभी महत्वपूर्ण निर्णय कोई आलाकमान लेता था। चाहे वह आला व्यक्ति पार्टी के किसी पद पर भी न हो! यह कड़वा सत्य स्वीकार करना होगा कि महात्मा गांधी जिस तरह कांग्रेस पार्टी को चलाते थे, वह ब्रिटिश लेबर या कंजरवेटिव पार्टी में अकल्पनीय था।
किंतु यही लाक्षणिक उदाहरण भी है कि यूरोपीय सांगठनिक नियम और भारतीय मिजाज का मेल नहीं बैठता था। यह बेमेल स्थिति आज देश के लिए नई-नई समस्याएं पैदा कर रही है। स्वतंत्रता से पहले भी कांग्रेस के सिद्धांतों और नेताओं के आचरण में विरोधाभास था। कांग्रेस में महात्मा गांधी इस विरोधाभासी व्यवहार का बड़ी कुशलता से दुरुपयोग करते थे। यही दोहरापन और अंतर्विरोध स्वतंत्र भारत में पूरी राजनीतिक प्रणाली में स्थानांतरित हो गया। स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री तय किए जाने की प्रक्रिया इसकी गवाह बनी, जब कांग्रेस नेताओं की पहली पसंद न होने के बावजूद गांधीजी ने नेहरू को कांग्रेस और देश पर थोपा। फिर नेहरू ने यही शैली सरकार चलाने में अपनाई। 1950 में ही वल्लभभाई पटेल का निधन हो जाने के बाद उन्हें और आसानी हो गई। सारे महत्वपूर्ण फैसले नेहरू लेते थे। कई बार मंत्रिमंडल की बैठक में निर्णयों को केवल सूचित भर किया जाता था।
इस मनोहर पद्धति से निर्णयों के दुष्परिणामों की सीधी जिम्मेदारी उठाने से भी नेहरू बच जाते थे। चूंकि सभी निर्णय मंत्रिपरिषद के थे, सो पूरी मंत्रिपरिषद उसका बचाव करने को बाध्य हो जाती थी। कश्मीर, तिब्बत, पंचशील, चीन, समाजवाद, अमेरिका आदि मामलों में यह दोहरापन साफ नजर आता है। अत: सिद्धांत-व्यवहार में दोहरेपन ने एक ऐसी विकृति पैदा की, जिसने जल्द ही हमारे पूरे राजनीतिक तंत्र को ग्रस लिया। यदि सर्वोच्च स्तर पर कोई भयंकर भूल करके भी बच सकता था, तो नीचे के लिए भी वही उत्तरदायित्व विहीन अधिकार-भोग की शैली बन जाना स्वभाविक था। ध्यान दें, ऐसा ब्रिटिश संसदीय व्यवहार में नहीं होता था। गलतियां करने वाला वायसराय या कोई भी अधिकारी बिना दंड पाए नहीं रहता था। इस प्रकार, समय के साथ हमारे देश के राजनीतिक तंत्र में संसदीय तंत्र एक मुखौटा सा रहा, जबकि वास्तविक व्यवस्था अघोषित रूप से अध्यक्षीय जैसी रही। न केवल सरकार, बल्कि दलों के कार्यचालन में भी। गांधी, नेहरू से लेकर बीजू, सिद्धार्थ शंकर रे, एनटी रामाराव, जयललिता, लालू, मुलायम, मायावती, करुणानिधि और सोनिया गांधी तक अनेक नेताओं ने उसी शैली को अपनाया। दिखाने के लिए समिति, किंतु वास्तव में एक व्यक्ति सर्वाधिकार रखता रहा।
परिणामत: एक अनुत्तरदायी अध्यक्षीय तंत्र बना, जिसमें न संसदीय प्रणाली की आत्मा है, न अध्यक्षीय प्रणाली का लाभ। बल्कि इसमें दोनों की कमियां मौजूद हैं। नतीजे में हमारे यहां ऐसे शासन प्रमुख हो जाते हैं, जो बार-बार कह सकते हैं कि उन्हें निर्णयों के बारे में मालूम नहीं है। जबकि ऐसे स्वच्छंद नेता, मंत्री, अफसर भी होते हैं जो सारे निर्णय लेकर भी उसके दुष्परिणामों के उत्तरदायित्व से बचे रहते हैं। यह सभी स्तरों पर हो रहा है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं कि सोनिया गांधी और महात्मा गांधी की शासन शैली में समानताएं हैं। इनमें संसदीय और अध्यक्षीय प्रणाली का अघोषित पर खतरनाक घालमेल रहा है। इससे वर्तमान भारतीय संसदीय तंत्र एक अकार्यकुशल, किंतु अत्यंत खर्चीला बोझ हो गया है। अधिकांश सांसद समुचित कानून बनाने तथा सुसंगत नीति-निर्माण के अलावा बाकी सारे काम करते रहते हैं। इसी प्रकार, महंगी चुनाव प्रक्रिया के बाद देश को एक समर्थ, कार्यकुशल शासक के बजाए मात्र एक उच्च वेतन-सुविधा भोगी सामान्य प्रशासक मिलता है।
दलीय उठापटक के दौर में सासंदों, मंत्रियों और नेताओं का पूरा ध्यान इसी नाजुक सत्ता-संतुलन को बनाए रखने या बिगाड़ने में रहता है। परिणामत: शासन कार्य उपेक्षित, बाधित रहता है। देश में चल रही खिचड़ी, उत्तरदायित्वहीन व्यवस्था से कई क्षेत्रों में अराजक स्थिति पैदा हो गई है। जिसका लाभ देशी-विदेशी शत्रु उठाते हैं। आंतरिक सुरक्षा, वैदेशिक संबंध, शिक्षा आदि क्षेत्र इससे बहुत प्रभावित हो रहे हैं। इस बीच, भारतीय नौकरशाही का विशाल तंत्र मानो स्वायत्त हो चुका है। वह प्राय: अपनी इच्छा से चलता है, और स्वयं अपना ख्याल रखना ही उसका प्रमुख कार्य है। विशेषकर आईएएस तथा आईएफएस संगठनों का विशिष्ट क्षेत्र है जिन्हें किसी अकर्मण्यता, कमी या गलती का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
सांसदों की अयोग्यता, अनिच्छा के कारण नीति-निर्माण प्राय: उच्च नौकरशाह ही करते हैं। नीतियों के प्रारूप वही जैसे-तैसे बनवाते हैं और संसद में बिना वास्तविक छान-बीन के वही निर्णय बन जाते हैं। लोकतंत्र को जीवंत बनाए रखने के लिए वर्तमान संसदीय प्रणाली के स्थान पर अध्यक्षीय प्रणाली अपनाने की आवश्यकता है। अन्यथा उत्तदायित्व-विहीन राजभोग तथा कई मामलों में दिशाहीन शासन का रोग दूर होने वाला नहीं है। वर्तमान संसदीय प्रणाली की तुलना में अध्यक्षीय प्रणाली अधिक पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और कम खर्चीली है। अध्यक्षीय प्रणाली में अध्यक्ष को निर्णय लेने और उसका पालन करवाने के लिए ही सीधे चुना जाता है। उसी के हाथ सारे अधिकार भी रहते हैं। कार्यकाल नियत रहने, उसकी संख्या भी सीमित रहने से वह अनावश्यक दबावों से मुक्त रहता है। उसे अपने उत्तरदायित्व का भी सीधा भान रहता है क्योंकि संसद ही नहीं, देश के सामने भी वही हर सही-गलत का उत्तरदायी होता है। सासंदों की भूमिका सीमित होने से राज्यतंत्र में बिखराव और भ्रष्टाचार की संभावना भी बहुत घट जाती है।
लेखक एस शंकर एक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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